श्रद्धा-श्रद्धालु के प्रति जवाबदेही

By: Aug 13th, 2018 12:05 am

आस्था की आय और मंदिर के व्यय का हिसाब अगर आंका जाए, तो हिमाचल के लिए यह आर्थिकी का नया प्रसाद है। माननीय हाई कोर्ट ने मंदिरों में आस्था का दानपात्र टटोलते हुए जो प्रश्न पूछे हैं, उनकी गहराई में जाना होगा। यह पहला अवसर है जब श्रद्धा से श्रद्धालु की सुविधाओं की जवाबदेही तय हो रही है। मंदिर व्यवस्था का एक बड़ा तंत्र हिमाचल के विकास को रेखांकित करता है। मंदिरों में व्यवस्थागत सुधार के लिए जो कानून बना वह अब तीन दर्जन धार्मिक स्थलों का लेखा-जोखा पेश करता है, तो इसकी कानूनी समीक्षा अपरिहार्य हो जाती है। मंदिर न तो व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा का तिलिस्मि हैं और न ही सरकारी व्यवस्था का मैला आंचल यहां बर्दाश्त किया जा सकता है। हालांकि समय-समय पर सरकारों ने व्यवस्थागत सुधारों की दिशा में घोषणाओं या समितियों के गठन से ऐसे विषयों की पड़ताल की, लेकिन हकीकत में राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा की पूजा में अपव्यय बढ़ता गया। बारह मंदिर अगर दस सालों में 361 करोड़ जुटाते हैं, तो इससे जुड़े बजट का मूल्यांकन आवश्यक हो जाता है। हम मंदिरों के बजट में अपव्यय को निहारें, तो अब परिसर की परिक्रमा में फैले सरकारी तंत्र का खुलासा होना चाहिए। दियोटसिद्ध जैसे अति प्रसिद्ध व प्रमुख मंदिर का खजाना, सबसे अधिक वित्त पोषण से केवल राजनीतिक नियुक्तियों की पगार साबित हो रहा है, तो हर परिसर में बिछे कालीन पर चलती प्रशासनिक फिजूलखर्ची को भी समझना होगा। सरकारी दायित्व में चलते मंदिरों ने बेशक अपना इंतजाम बदला और परिसर के कायाकल्प में आस्था का योगदान बढ़ा, लेकिन बारहदरी के भीतर सरकारी अक्स बढ़ गया या क्षेत्रीय विधायकों ने इन्हें अपने वादों के सौदे पर लगा दिया। इसके मूल कारण में अलग-अलग ट्रस्टों के जरिए संचालन तथा विभिन्न विभागों की कार्यसंस्कृति में लंबी होती परछाइयां देखी जा सकती हैं। कहने को धर्म-संस्कृति की पताका पर कला-संस्कृति एवं भाषा विभाग का नाम लिख दिया गया, लेकिन वास्तविक अर्थों में राजस्व विभाग का कॉडर यहां ओहदेदार बना है। जिला प्रशासन के तहत मंदिर भी अब एक कार्यालय की तरह चलने लगे और जहां सत्ता के हर बदलाव ने आमदनी से चुराई गई प्रतिष्ठा को ओढ़ने की कोशिश की, नतीजतन वित्तीय अव्यवस्था के सुराख चौड़े होते गए। मंदिर व्यवस्था का जब तक एक रूप नहीं होता या इसे एक केंद्रीय ट्रस्ट का प्रारूप नहीं मिलता, हिमाचली आस्था के ये स्रोत अपनी आय को व्यर्थ गंवाते रहेंगे। जो मंदिर दर्जनों मुलाजिमों की पगार का प्रबंध कर रहे हैं या शिक्षण संस्थान चला रहे हैं, उनका अपना कोई कॉडर नहीं और न ही वेतन-भत्तों की कोई अनुशासित परिधि तैयार हुई। बेशक प्रशासनिक जिम्मेदारियों में विभिन्न अधिकारियों ने कई प्रयास किए और ढांचागत सुविधाओं में इजाफा भी हुआ, लेकिन हिमाचल के मंदिरों की आय से धार्मिक नगरियों की परिकल्पना साकार नहीं हो पाई। यह इसलिए क्योंकि जवाबदेही बिखरी हुई रही और आय भी अलग-अलग मंदिरों के हिसाब से अपने खर्च के बिंदुओं पर टिकी रही। जाहिर है मंदिरों की कुशल व्यवस्था तथा प्रबंधन से धार्मिक पर्यटन के ऊर्जा स्रोत सशक्त होंगे। यह इसलिए भी क्योंकि पर्यटकों की शिनाख्त में अस्सी फीसदी केवल तीर्थ यात्री हैं या अब तीर्थ यात्राओं का विस्तार पर्यटक डेस्टीनेशन से जुड़ने लगा है। विडंबना यह है कि धार्मिक पर्यटन को मंदिरों से जोड़ने का न पूर्ण खाका और न ही प्रबंधन की राज्य स्तरीय व्यवस्था हो पाई। कायदे से धार्मिक पर्यटन विकास प्राधिकरण, परिषद या किसी केंद्रीय ट्रस्ट के तहत लक्ष्य व वित्तीय जवाबदेही तय होनी चाहिए। वैष्णो देवी या दक्षिण भारतीय मंदिरों में विकास व यात्री सुविधाओं के जरिए आय में जिस तरह इजाफा हुआ है, उससे राज्यों की आर्थिकी में निखार आया है। हम मंदिरों की आय को यात्री व नागरिक सुविधाओं, शहरी व्यवस्था तथा पर्यटन नगरियों के विकास का प्रारूप बना सकते हैं। उदाहरण के लिए नयनादेवी, ज्वालाजी, चिंतपूर्णी, दियोटसिद्ध तथा कुछ अन्य धार्मिक नगरियों का विस्तार तथा व्यवस्था को अगर मंदिर पर्यटन परियोजना के प्रारूप में देखें तो आय व व्यय का लक्ष्य निर्धारित होगा। मंदिर व्यवस्था को स्वायत्त तथा स्वतंत्र एजेंसी के तहत चलाने की जरूरत है और इस तरह आय भी तीन से पांच गुना बढ़ेगी तथा बजट का योगदान सामुदायिक विकास का खाका मजबूत करेगा। उदाहरण के लिए अगर प्रदेश के प्रमुख मंदिर अपनी ही रेल परियोजना पर काम करें तो अंब-अंदौरा से चिंतपूर्णी, ज्वालाजी, कांगड़ा, चामुंडा, दियोटसिद्ध आदि धार्मिक स्थलों तक रेल विस्तार का संकल्प व अभिप्राय बदल सकता है।


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