ड्ढवंचित की आवाज को बुलंद करती हैं मनोज की कविताएं

By: Oct 14th, 2018 12:05 am

मेरी किताब के अंश :

सीधे लेखक से

किस्त : 7

ऐसे समय में जबकि अखबारों में साहित्य के दर्शन सिमटते जा रहे हैं, ‘दिव्य हिमाचल’ ने साहित्यिक सरोकार के लिए एक नई सीरीज शुरू की है। लेखक क्यों रचना करता है, उसकी मूल भावना क्या रहती है, संवेदना की गागर में उसका सागर क्या है, साहित्य में उसका योगदान तथा अनुभव क्या हैं, इन्हीं विषयों पर राय व्यक्त करते लेखक से रू-ब-रू होने का मौका यह सीरीज उपलब्ध करवाएगी। सीरीज की सातवीं किस्त में पेश है कवि मनोज चौहान का लेखकीय संसार…

‘पत्थर तोड़ती औरत’ नामक कविता संग्रह के रचयिता मनोज चौहान जिला मंडी से हैं। उनका अपने बारे में जो कुछ कहना है, उसे हम उन्हीं के शब्दों में यहां पेश कर रहे हैं। स्कूल के दिनों से ही मुझे कविताएं-कहानियां पढ़ने का शौक रहा। मुझे याद है कि जब स्कूल में हिंदी की कक्षा में नामी लेखकों-साहित्यकारों की रचनाएं अध्यापकों द्वारा सरलार्थ सहित समझाई जाती थीं तो मुझे उन्हें सुनकर एक रोमांच सा पैदा हो जाता था। मन ही मन सोचता था कि मैं भी कभी जीवन में लिखने का प्रयास करूंगा। परीक्षा परिणाम आने पर जब अगली कक्षा की पुस्तकें खरीदी जाती तो मैं उनमें से हिंदी की पुस्तकें, जिनमें कविताएं-कहानियां समाहित होती थीं, उन्हें पहले ही पूरी पढ़ लेता था। मेरा जन्म हिमाचल प्रदेश के जिला मंडी में गांव महादेव (सुंदरनगर) में एक साधारण किसान परिवार में हुआ।

1995 में दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद बारहवीं की परीक्षा वाणिज्य विषयों सहित उत्तीर्ण की और उसके बाद राजकीय बहुतकनीकी संस्थान सुंदरनगर से वर्ष 2000 में विद्युत अभियांत्रिकी में तीन वर्षीय डिप्लोमा किया। इसी दौरान लिखने की तरफ  रुझान होने लगा था। चंडीगढ़ से प्रकाशित एक दैनिक समाचार पत्र में एक छोटा सा लेख 2001 में प्रकाशित हुआ। महादेव (मंडी) के वरिष्ठ साहित्यकार कृष्ण चंद्र महादेविया के सान्निध्य में साहित्य को पढ़ने और लिखने की समझ बनी। वे हमेशा से निरंतरता बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित करते रहे। सुंदरनगर के वरिष्ठ एवं चर्चित कवि सुरेश सेन निशांत से भी समय-समय पर उचित मार्गदर्शन प्राप्त होता रहा। आकाशवाणी शिमला में दो बार कविता पाठ में शामिल होने का मौका मिला। इसके बाद पांच वर्षों तक निरंतर लिखता और छपता रहा। बेरोजगारी के दंश ने अनेक पापड़ बेलने पर मजबूर किया। इसी दौरान हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से पत्राचार के माध्यम से कला स्नातक की परीक्षा पास की। वर्ष 2005 में नौकरी की तलाश में बद्दी चला गया। निजी क्षेत्र की नौकरी में समयाभाव के कारण लेखन को पूर्णतः विराम लग गया। तीन साल तक वहां पर संघर्षरत रहकर जीवन के कई रोचक एवं कड़वे अनुभव हुए। फिर 2008 में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम एसजेवीएन लिमिटेड शिमला में नियुक्ति हुई। जीवन चक्र यूं ही चलता रहा। इंडस्ट्रियल सेफ्टी में पीजीडीएम नौकरी के दौरान ही पूर्ण की। 2013 से पुनः लेखन में सक्रिय हुआ और वर्तमान में कविता, लघुकथा और आलेख लेखन में निरंतरता बनाए हुए हूं। इन दिनों मैं सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम एसजेवीएन की रामपुर जल विद्युत परियोजना (बायल) में सहायक प्रबंधक के पद पर कार्यरत हूं। अपनी कविताओं के बारे में सिर्फ  इतना ही कहना चाहूंगा कि सामाजिक परिवेश में घटित हो रही कोई घटना या दृश्य जो कहीं भीतर तक छू जाए, उसे ही शब्दों का रूप दे देता हूं। हमेशा यही कोशिश रही कि मेरी रचनाओं में कल्पनाशीलता कम हो और यथार्थ को शब्दों का रूप दे सकूं जो आम जनमानस को आसानी से समझ में आ सके। उपेक्षित और वंचित आदमी के पक्ष में आवाज बुलंद करना ही मेरा उद्देश्य रहता है। कविता मेरे लिए अपने भीतर के मनुष्य का मंथन कर समाज को कुछ बेहतर देने की कोशिश है। ‘पत्थर तोड़ती औरत’ मेरा प्रथम कविता संग्रह है जो साल 2017 में अंतिका प्रकाशन गाजियाबाद से प्रकाशित हुआ है। ‘पत्थर तोड़ती औरत’ नामक कविता जब लिखी थी तो किसी निर्माण साइट पर कार्य करती हुई महिला को देखकर जो भाव उमड़े थे, उन्हीं को शब्दों में पिरो दिया था।

बाद में किसी व्हाट्स एप ग्रुप में शेयर करने पर पता चला कि निराला जी ने भी इसी विषय पर पहले से कविता लिखी हुई है। मूलतः इंजीनियरिंग के पेशे से संबंधित होने के कारण मैं कभी साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा। मुझे अपनी कविता के भाव निराला जी की कविता से अलग लगे। इसीलिए मैंने हमेशा अपने द्वारा लिखी कविता को निराला जी की कविता से अलग पाया। यह एक ऐसा सच है जिस पर शायद किसी के लिए भी आसानी से विश्वास करना आसान नहीं है। लेकिन मुझे यही सोचकर संतोष होता है कि मैं अपना सच जानता हूं। कई सार्वजनिक मंचों पर समीक्षकों, आलोचकों और साहित्यिक विद्वानों ने भी मेरी किताब के शीर्षक और शीर्षक कविता को निराला जी से जोड़ने का प्रयास किया। अपने कविता संग्रह का शीर्षक चुनती बार भी मैंने इस विषय में अधिक नहीं सोचा। अगर विवाद बढ़ने का जरा भी अंदेशा होता तो शीर्षक निश्चित ही अलग होता। बहरहाल मैं ‘निंदक नियरे राखिये’ का पक्षधर हूं और स्वस्थ आलोचना का सदैव स्वागत करता हूं। इस संग्रह में छोटी-बड़ी 44 कविताएं संकलित हैं। इन कविताओं में जहां एक ओर गुजरे हुए अतीत की स्मृतियां हैं तो वहीं दूसरी ओर मानवीय संवेदनाओं और संबंधों का ताना-बाना है। प्रस्तुत पुस्तक में संकलित रचनाएं कई राष्ट्रीय और प्रादेशिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं जिनमें समकालीन भारतीय साहित्य, मधुमती, आकंठ, विपाशा, हिमप्रस्थ, गिरिराज, हिमभारती, शुभ तारिका, सुसंभाव्य, शैल सूत्र, साहित्य गुंजन, सरोपमा, स्वाधीनता संदेश, मृग मरीचिका व परिंदे आदि शामिल हैं। इसके अलावा अंतर्जाल पर कविता कोश, गद्य कोश, कई ब्लॉग और एक दर्जन से अधिक ई-पत्रिकाओं ने मेरी रचनाओं को स्थान दिया है। मेरी कुछ कविताएं और लघुकथाएं इंटरनेट पर ऑडियो के रूप में भी उपलब्ध हैं। इसके अलावा लगभग 10 साझा संग्रहों में मेरी कविताएं, लघुकथाएं और व्यंग्य आदि संकलित हुए हैं। पाठकों के स्नेह और प्रतिक्रियाओं ने हमेशा ही मेरा उत्साह वर्धन किया है। कवि सम्मेलनों और साहित्यिक समारोहों में समयाभाव और नौकरी की विवशताओं के मद्देनजर अधिक उपस्थिति दर्ज नहीं करवा पाता, लेकिन यदा-कदा समय मिलने पर शिरकत कर लेता हूं। कोई भी लेखक पहले खुद पर लिखता है और फिर समाज पर। मेरे संदर्भ में भी कुछ भी इतर नहीं है। अपनी रचनाओं में मेरा प्रयास व्यष्टि से समष्टि की ओर जाने का रहता है। मेरे संग्रह में शामिल पहली कविता ‘लिंगडू की गठरियां’ में मैंने इस पहाड़ी सब्जी को बेचते बच्चों की भावनाओं, सपनों और उनकी पारिवारिक जरूरतों को बहुत करीब से महूसस किया है। ‘पहाड़ी पर घर’ नामक कविता में पहाडि़यों पर गिरने वाले बर्फ से होने वाली परेशानियों और पहाड़ी लोगों की मनोव्यथा को उकेरने का प्रयास किया है। अपने कार्यक्षेत्र के समीप ही जंग लगे कल-पुर्जों वाली मशीन को देखकर ही ‘बड़े दांतों वाली मशीन’ नामक कविता की रचना की थी जिसमें यह संदेश देने का प्रयास किया गया है कि किसी भी इनसान को स्वयं को कमतर नहीं आंकना चाहिए और निरंतर संघर्ष करते रहना चाहिए। समाजसेवा का मुखौटा ओढ़कर जब लोग अपनी स्वार्थ सिद्धि पर उतारू हो जाते हैं तभी ‘विषैले खूख’ जैसी रचना का जन्म होता है। खूख  एक आंचलिक शब्द है जिसका अर्थ कुकुरमुत्ता अथवा कवक से है। इस शब्द का पर्याय इस कविता में स्वयंभू नेताओं से हैं जिन्हें सामाजिक और नैतिक मूल्य अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के आगे बौने नजर आते हैं। आरक्षण को केंद्र में रखकर लिखी गई कविता ‘आरक्षण भाई’ में मैंने सामान्य वर्ग के उस व्यक्ति की पीड़ा को उकेरने का प्रयास किया है जो कि जरूरतमंद और होनहार है। लेकिन वह फिर भी आरक्षण के प्रावधानों के तहत जब उम्र का एक पड़ाव पार कर जाता है तो उस नौकरी के लिए अयोग्य हो जाता है जिसकी उसे नितांत आवश्यकता होती है। महज 10 वर्षों के लिए दिए गए अस्थायी आरक्षण को कोई भी राजनीतिक दल आज तक हटा नहीं पाया और सभी ने इसे सत्ता प्राप्ति की सीढ़ी के तौर पर इस्तेमाल किया है। ‘भीतर का ठहराव’ एक ऐसी कविता है जो एक रचनाकार के कुछ नया रच न पाने की छटपटाहट को दर्शाती है। अपने आस-पास होने वाली घटनाओं को जब एक लेखक शब्दों का रूप नहीं दे पाता तो वह व्याकुल हो उठता है। यह ठहराव उसे स्वीकार्य नहीं होता, सृजन ही उसे इस अवसाद से बाहर ला सकता है। ‘फिर जल गया रावण’ नामक कविता के बारे में भी बात करना चाहूंगा। दशहरे का पर्व नजदीक है और इस रचना का जन्म भी दशहरे के पर्व पर ही हुआ था। मौजूदा परिदृश्य में जहां बहू-बेटियां सुरक्षित नहीं हैं और आए दिन बलात्कार जैसे घिनौने कृत्य समाज में घटित हो रहे हैं, उसी संदर्भ को लेकर इस कविता की रचना हुई है। रावण चाहे जितना भी क्रूर और निर्दयी रहा होगा, लेकिन उसने कभी भी सीता की पवित्रता भंग करने का प्रयास नहीं किया। इसीलिए रावण को जलाकर खुद को सांत्वना देने से बेहतर होगा कि समाज के उस रुग्ण अंग की शल्य चिकित्सा की जाए जिस कारण यह घटनाएं सामने आ रही हैं। एक ओर जहां हम खुद को गौपालक देश की संज्ञा से नवाजते हैं तो वहीं दूसरी ओर इस देश में गाय की दुर्दशा भी किसी से छिपी नहीं है। इसी विषय को लेकर लिखी गई है कविता ‘कान्हा के इस देश में’। इस कविता में गाय की उपेक्षा और इनसान के स्वार्थीपन और खोखली मान्यताओं पर प्रहार करने का प्रयास किया गया है। अनुभव, भयभीत लोग एवं सच कभी मरता नहीं नामक कविताएं सामाजिक विमर्श पर लिखी गई हैं और आडंबरी प्रवृत्ति के लोगों को उजागर करने की कोशिश भर हैं। इन कविताओं में एक संदेश है कि समाज को गुमराह और भ्रमित करने से सच कभी मरता नहीं, उसे एक न एक दिन बाहर आना ही है। संग्रह की अंतिम कविता ‘कबाड़ उठाती लड़कियां’ मौजूदा परिवेश में विकास और पर कैपिटा इनकम में बढ़ोतरी दर्शाने वाले तंत्र की पोल खोलती है और संविधान में वर्णित शिक्षा के मौलिक अधिकार पर भी प्रश्नचिन्ह लगाती है। इसके अलावा इस संग्रह में शामिल ब्याही बेटी, पुश्तैनी खेत, चिठ्ठियां, रिश्तों के भंवर में, पिता और शब्दकोष, बड़ी अम्मा, संवेदनाएं, दीमक, मेरी बेटी, परिंदे, वे दिन, मुश्किल दौर, बेटी बीमार है, चूल्हे की रोटियां, कटघरे में पिता नामक कविताएं मेरे हृदय के बहुत करीब हैं जिन्हें पढ़कर मैं अक्सर भावुक हो उठता हूं। कविता के अलावा मैं लघुकथा विधा में भी निरंतर सक्रिय हूं। मेरी लघुकथाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित हो रही हैं। मेरी लघुकथाओं के विषय सामाजिक विद्रूपताओं और कुरीतियों पर केंद्रित होते हैं। मेरी अगली किताब लघुकथा संग्रह ही होगा, लेकिन यह कब तक आ पाएगी, यह कहना अभी मुश्किल है। अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज को कुछ बेहतर दे पाऊं, मेरा सदैव यही प्रयास रहता है। लेखन के दौरान जिन आदरणीय एवं प्रिय साहित्यिक मित्रों का सहयोग एवं प्रोत्साहन मिला, उन सभी का तहे दिल से आभारी हूं। उन सभी साथियों का भी आभार व्यक्त करता हूं जिन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमेशा मुझे प्रोत्साहित किया है।

साहित्य संवाद

(सीरीज में कोई भी लेखक खुद अपनी किताब का विवेचन कर सकता है। यहां दिए मोबाइल नंबर्स पर  संपर्क करें।)

जुड़ने के लिए 94181-92111 या 94183-30142 पर संपर्क करें

गुदगुदाती हैं डा. प्रत्यूष गुलेरी की बाल कविताएं

पुस्तक समीक्षा

* कविता संग्रह : मेरी 57 बाल कविताएं

* कवि का नाम : डा. प्रत्यूष गुलेरी

* प्रकाशक : बुक क्राफ्ट पब्लिशर्स, नई दिल्ली

* मूल्य : 295 रुपए

कांगड़ा से संबद्ध हिमाचल के प्रसिद्ध साहित्यकार डा. प्रत्यूष गुलेरी का काव्य संग्रह ‘मेरी 57 बाल कविताएं’ जहां एक ओर बच्चों को सीख देता है, वहीं वह उन्हें गुदगुदाने में भी सफल रहा है। संग्रह की कविताएं पढ़कर लगता है कि गुलेरी जी बाल मनोविज्ञान को अच्छी तरह समझते हैं। तभी वह बच्चों को कविताओं का एक पैकेज देने में सफल हुए हैं। संग्रह में कुल 57 कविताएं हैं जो विविध विषयों पर लिखी गई हैं। ‘चांद लोक की सैर कराना’ में बच्चों की यह जिज्ञासा प्रकट हुई है कि चांद लोक का ठौर-ठिकाना कैसा होगा। ‘बादल मितवा’ में आश्चर्य की अभिव्यक्ति हुई है। ‘गुडि़या रानी’ एक कर्म प्रधान कविता है। ‘नया साल फिर आया’ में सीख है कि व्यर्थ में समय नहीं गुजारना चाहिए। ‘अच्छे बच्चे’ में अच्छे बच्चों की विशेषताएं बताई गई हैं। ‘हुर्रा हुर्रा गाओ सारे’ में पर्यावरण संरक्षण की सीख दी गई है। एक अन्य कविता में बच्चे की चाहत बताई गई है। सर्दी का मौसम में सर्दी की विशेषताएं गिनवाई गई हैं। परीक्षा नामक कविता में बच्चों से खूब पढ़ने का आह्वान किया गया है। होली है होली, राखी, प्यारी धौलाधार, रजिया चली बाजार, छुट्टी में, पहाड़ी रेल व प्यारी मौसी नामक कविताओं में बच्चों की स्वाभाविक उछल-कूद की अभिव्यक्ति हुई है। पापा शिमला ले जाओ नामक कविता में बच्ची की शिमला घूमने की ख्वाहिश है। मोबाइल के फंक्शन एक ऐसी कविता है जिसमें पहली पीढ़ी तीसरी पीढ़ी को तकनीक समझा रही है। नदी प्यारी में प्रकृति के दर्शन हैं तो मोटू सेठ में चूहलबाजी है। पों पों पों नामक कविता में बस को लेकर बच्चों का उत्साह उमड़ आया है। नानी आई नामक कविता कहती है कि नानी जैसा दुलार कहीं और मुश्किल है। कुछ कविताएं मां पर भी लिखी गई हैं जिनमें ममता के महत्त्व को दर्शाते हुए उसकी तुलना दुनिया की दौलत से की गई है। कुलफी के दिन में गर्मी के दिनों में ठंडी चीजों का महत्त्व दर्शाया गया है तो कल की शान में बताया गया है कि बच्चे ही देश का भविष्य होते हैं। कविता लिखो नामक कविता में लेखन के आनंद को इंगित किया गया है। एक अन्य कविता सूर्य की महत्ता पर प्रकाश डालती है। पताका फहराएंगे हम ऐसी कविता है जिसमें भविष्य के सपने बुने गए हैं। चिरैया प्यारी परिश्रमी चिडि़या को समर्पित कविता है। भारत के वीरो नामक कविता में शहीदों को नमन किया गया है। ‘हम भारत की संतान’ राष्ट्रीय एकता का आह्वान करती है। मेरा तोता, आई चिडि़या, जैकी और बोल मदारी नामक कविताएं बच्चों को गुदगुदाती हैं। मेरा देश में भारत की महत्ता का बखान करते हुए फिर से यहीं जन्म लेने की कामना की गई है। ‘बच्चों को’ ऐसी कविता है जो कुछ करने की सीख देती है। कुछ अन्य कविताएं भी संग्रह में संकलित हैं जिनमें से कुछ गुदगुदाती हैं तो कुछ बच्चों को सीख देती हैं। बच्चों को मनोरंजन के साथ-साथ कुछ सीख भी देने में कविवर सफल हुए हैं। सभी कविताएं सरल भाषा में लिखी गई हैं।

-फीचर डेस्क

जिंदगी से दूर होती किताबें

बतौर नायक ‘किताब’ टॉम आल्टर की अंतिम शार्ट फिल्म है जिसे उन्होंने करीब एक साल पहले अपने निधन से पूर्व पूरा किया था। हाल ही में जब मुझे बीकानेर फिल्म फेस्टिवल में यह फिल्म देखने का मौका मिला तो इसकी विषयवस्तु ने सभी दर्शकों को स्तब्ध कर दिया था। फिर, मेरे सुझाव पर देव कन्या ने शिमला फिल्मोत्सव के लिए इस फिल्म का चयन किया। हमारे जीवन से जिस प्रकार लगातार किताबों की उपस्थिति गायब हो रही है, उसकी घनीभूत पीड़ा को शार्ट फिल्म ‘किताब’ में शिद्दत से प्रस्तुत किया गया है। कुल 25 मिनट अवधि की यह मूक फिल्म हमें यह सोचने पर बाध्य करती है कि मोबाइल और इंटरनेट के डिजिटल युग में हमारे पुस्तकालय किस प्रकार खंडहर में तबदील होते जा रहे हैं। जहां सन्नाटा पसरा हुआ है और यह पुस्तकालय पाठकों की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मुझे लगा अगर इस फिल्म में संवाद होते तो इसकी गुणवत्ता को ठेस पहुंचती। 1931 से पूर्व जब सिनेमा में आवाज के जादू ने दस्तक नहीं दी थी, तब विजुअल लैंगवेज यानी दृश्य भाषा के माध्यम से मूक फिल्में ऐसा जबरदस्त प्रभाव पैदा करती थीं कि दर्शकों का दीवानापन देखने लायक होता था। ‘किताब’ फिल्म के माध्यम से यह दिखाने का सफल व सशक्त प्रयास हुआ है कि डिजिटल युग में किस प्रकार पुस्तकों का महत्त्व क्षीण हो रहा है और इनकी उपस्थिति हमारे जीवन से कमोबेश गायब सी हो चुकी है। बतौर निर्माता निर्देशक दिल्ली के फिल्मकार कमलेश के. मिश्रा की यह पहली शार्ट फिल्म है जिसे राजधानी में 15 मई 2018 को रिलीज किया गया था। मात्र चार महीने में ‘किताब’ ने देश-विदेश में आयोजित फिल्म समारोहों में करीब 20 पुरस्कार हासिल कर लिए हैं। इसकी कहानी मसूरी में स्थित तिलक मैमोरियल इंस्टीच्यूट की लाइब्रेरी में रची गई है। 2001 में यहां किताबों के चाहने वालों का तांता लगा रहता था। जब लाइब्रेरियन टॉम आल्टर इसका ताला खोलते तो पाठकों की भीड़ भीतर जाने के लिए आतुर दिखाई देती। लाइबे्ररी के अंदर पाठकों की दीवानगी का यह आलम होता कि सुबह से शाम तक पुस्तक प्रेमी इसे गुलजार करते रहते। आगामी सालों में यानी 2005, 2008 व 2011 में स्थितियां इस कदर बिगड़ीं कि पुस्तकालय से किताबें इश्यू करवाने वाले पाठकों और यहां बैठ कर किताबें, पत्रिकाएं और अखबार पढ़ने वालों की संख्या में चिंताजनक गिरावट होती गई। कभी पुस्तक रसिकों की आवाजाही से लबरेज रहने वाला यह पुस्तकालय उजड़ने लगा। एक वक्त ऐसा आया जब टॉम आल्टर इसका ताला खोलते और दिन भर पाठकों का इंतजार करते रहते। सचमुच उनके लिए यह अत्यंत पीड़ादायक मंजर था। मसूरी में ही रहने वाली एक पुस्तक पे्रमी पूजा दीक्षित टॉम आल्टर के साथ  एकमात्र पाठक दिखाई दी। मगर लैपटॉप और मोबाइल के मोह ने उसे इस हद तक जकड़ लिया कि उसने भी लाइबे्ररी में आना-जाना छोड़ दिया। टॉम आल्टर अकेले रह गए। फिल्म में उनका संताप उनकी देह भाषा से झलकता है जब वे बेचैनी के आलम में कभी दरवाजे की देहरी पर तो कभी अपनी कुर्सी पर बैठे अंतिम पाठक की प्रतीक्षा में डूबे दिखाई देते हैं। इसी कशमकश में वे अपने हाथों में किताबों का ढेर थामे पूजा दीक्षित के घर के गेट तक पहुंचते हैं, लेकिन पूजा को लैपटॉप में तन्मय देखकर ठिठक जाते हैं। हालांकि पूजा मोबाइल में किसी के साथ वार्तालाप में मशगूल रहते हुए गेट के बाहर आती है, पर हाथों में किताबें उठाए टॉम आल्टर को नहीं देख पाती। आहत होकर टॉम आल्टर पुस्तकें गेट पर ही रखकर लाइबे्ररी में लौट जाते हैं। पूजा जब मोबाइल से मुक्त होती है तो किताबों को देखकर चकित रह जाती है। बदहवासी में वह टॉम आल्टर से मिलने पुस्तकालय पहुंचती है। लेकिन कुर्सी पर उन्हें सुन्न पाकर उसे गहरा धक्का लगता है और जब टॉम आल्टर की मृत काया कुर्सी से मेज पर लुढ़क जाती है तो वह फूट-फूट कर रोने लगती है। फिल्म के अंत में पूजा स्वयं लाइबे्ररियन के दायित्व को ग्रहण करती है और आशावान रह कर पाठकों की प्रतीक्षा करने लगती है। निःसंदेह ‘किताब’ एक विचारोत्तेजक फिल्म है और हमें किताबों की दुनिया में फिर से लौटने के लिए प्रेरित करती है।

-राजेंद्र राजन, फिल्म समीक्षक

नवीन शैली के विधायक कवि थे निराला

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (जन्म-21 फरवरी, 1896 ई., मेदनीपुर बंगाल; मृत्यु-15 अक्तूबर, 1961, प्रयाग) हिंदी के छायावादी कवियों में कई दृष्टियों से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। निराला जी एक कवि, उपन्यासकार, निबंधकार और कहानीकार थे। उन्होंने कई रेखाचित्र भी बनाए। उनका व्यक्तित्व अतिशय विद्रोही और क्रांतिकारी तत्त्वों से निर्मित हुआ है। उसके कारण वे एक ओर जहां अनेक क्रांतिकारी परिवर्तनों के स्रष्टा हुए, वहां दूसरी ओर परंपराभ्यासी हिंदी काव्य प्रेमियों द्वारा अरसे तक सबसे अधिक गलत भी समझे गए। उनके विविध प्रयोगों-छंद, भाषा, शैली, भावसंबंधी नव्यतर दृष्टियों ने नवीन काव्य को दिशा देने में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसलिए घिसी-पिटी परंपराओं को छोड़कर नवीन शैली के विधायक कवि का पुरातनतापोषक पीढ़ी द्वारा स्वागत न होना स्वाभाविक था।

रचनाएं

कविता संग्रह :

परिमल, अनामिका,

गीतिका, कुकुरमुत्ता, आदिमा, बेला, नए पत्ते, अर्चना, आराधना, तुलसीदास व जन्मभूमि।

उपन्यास

अप्सरा, अल्का, प्रभावती, निरूपमा, चमेली, उच्छृंखलता व काले कारनामे।

कहानी संग्रह

चतुरी चमार, सुकुल की बीवी, सखी, लिली व देवी।

निबंध संग्रह

प्रबंध-परिचय, प्रबंध प्रतिभा, बंगभाषा का उच्चरन, प्रबंध पद्य, प्रबंध प्रतिमा, चाबुक, चयन व संघर्ष।

सच से आंख चुराते हम

जो समझाने में लगे हैं, जो दूसरों को बताने में लगे हैं, जान लीजिए कि वे अभी खुद से बेखबर हैं। वे अभी अपने आप से सटे हैं। वे अभी खुद को भरने के लिए डटे हैं। उपदेशक के लिए पंडाल महत्त्वपूर्ण है। विवेचक के लिए किताब महत्त्वपूर्ण है। गुरु होने की लालसा में जो रत हैं, वे अभी शिष्य होने की योग्यता में भी कम हैं। आप बिना प्रेम को जाने, प्रेम की भाषा का अलाप कर रहे हैं तो मान लीजिए कि प्रेम का संगीत अभी कोसों दूर है। बगल में छुरी दबाकर भक्ति का कोई गीत नहीं गाया जा सकता। काख में मूली दबाकर शरीर को सहज अवस्था में नहीं लाया जा सकता। दूसरों के अतीत अनुभवों से अपने को न शृंगारित किया जा सकता है और न स्पंदित। ूतकाल की गलियों में भ्रमण करते रहने से वर्तमान का चैतन्य भी विलुप्त होने लगता है। हमेशा अतीत का भैरवी राग हमारे वर्तमान की सितार के तार तोड़कर छोड़ेगा। हमेशा किन्हीं महापुरुषों के वचनों को आदर्श बना लेने से हम उनके ज्ञान से भी वंचित हो जाया करते हैं। उनके अनुभव और जीवन से हमारी जिंदगी तब तक नहीं सुधरने वाली जब तक हम अपने दैनंदिन जीवन से दो चार नहीं होते। आपका हर दिन रोने चिल्लाने में निकल रहा हो और आप ऊंचे आदर्शों की डींग हांकने में मशगूल हैं तो जान लीजिए कि दीये तल अंधेरा है। यशस्वी होने की पहली शर्त अपने आपके यश को लेकर चिंतित होने को छोड़ना है। आयु को दिनों से गिनेंगे तो उम्र बिना किसी पड़ाव तक पहुंचे बीत जाएगी। सत्य कभी भी सत्ता के पथ की ओर नहीं ताकता। सत्ता कभी भी सत्य की ओर नजर नहीं डालती। इसलिए जो सत्ता को साधने में लगे हैं, वे कभी मानवता के पुरोधा नहीं होने वाले। जो सत्य को जी लेने की बात करते हैं, वे कभी सत्ता के झूठ को अपना नहीं सकते। ताल ठोंकने के लिए घमंड का ढोल चाहिए और सहज होने के लिए अपने अस्तित्व का नाद चाहिए। सीने का नाप दिखाने वाले अभी अपने सीने में धड़क रहे दिल से अनभिज्ञ हैं।

-भारत भूषण ‘शून्य’


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