अचूक मंत्र है आत्मनिर्भरता: डा. वरिंदर भाटिया, पूर्व कालेज प्रिंसिपल

By: डा. वरिंदर भाटिया, पूर्व कालेज प्रिंसिपल Aug 19th, 2020 12:06 am

डा. वरिंदर भाटिया

पूर्व कालेज प्रिंसिपल

हमारा देश 130 करोड़ की विशाल जनसंख्या वाला देश है। इतनी आबादी देश के लिए समस्या भी है तो उसकी अपनी ताकत भी है। जनसांख्यिकीय लाभ भी हैं। विश्व का सबसे बड़ा बाजार भारत है, इस विशेषता को अपनी ताकत बनाकर हम आत्मनिर्भर बनें, स्वदेशी अपनाओ का केवल नारा ही न रहे, अपितु जरूरी है कि इस पर कार्य भी हो। जिस तरह से लक्ष्य साधक चार एल यानी लैंड, लेबर, लिक्विडटी और लॉ से जुड़ी बारीकियों पर जोर देते हुए इकोनॉमी, इंफ्रास्ट्रक्चर, सिस्टम, डेमोग्राफी और डिमांड जैसे पांच पिलरों को मजबूती देने का आह्वान किया गया है, उससे यह साफ  है कि इन  शब्दों की सीढि़यों के सहारे आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। इसलिए इस पर अविलंब फोकस किए जाने की जरूरत है..

देश में आत्मनिर्भरता को एक बड़े आर्थिक मंत्र के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। इसके अनुसार यदि हम स्थानीय स्तर पर तैयार वस्तुओं का इस्तेमाल करने लगें, तो न केवल आर्थिकी मजबूत होगी, बल्कि उद्योग के विस्तार का मार्ग भी प्रशस्त होगा। आज कई वस्तुओं के लिए आयात पर निर्भरता से हमारा व्यापार घाटा लगातार बढ़ता गया है तथा उन वस्तुओं को देश में ही उत्पादित करने की संभावनाएं भी कुंद होती गई हैं। विदेशों में जाते अपने उस धन को हम यहीं निवेशित कर रोजगार के अवसरों का भी सृजन कर सकते हैं तथा तकनीक एवं कौशल के क्षेत्र में विकास की प्रक्रिया को भी तेज कर सकते हैं। यदि विदेशों में बनी चीजों के लिए भारत एक बड़ा बाजार हो सकता है तो भारत अपने ही बनाए उत्पादों की खपत भी कर सकता है। रोजगार, उत्पादन और मांग के सिलसिले को मजबूत कर हम अपनी अर्थव्यवस्था को आगे ले जाने का सामर्थ्य रखते हैं।

स्थानीय के लिए आग्रह और आदर का भाव भी पैदा करने की आवश्यकता है। स्वावलंबन हमारे समाज में गहरे तक पैठ बना चुकी आर्थिक विषमता का उपचार भी हो सकता है। आर्थिक और औद्योगिक विकास में व्याप्त क्षेत्रीय असमानता को पाटने का भी यह कारगर उपाय है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि ऐसा कर भारत वैश्वीकरण और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था से परे जा रहा है, बल्कि इसके उलट कुछ देशों पर बहुत सारे देशों की निर्भरता और इसके बदले उनके दबाव से निकलने का यह रास्ता है। हम उत्पादन में बढ़ोतरी कर निर्यात के मोर्चे पर अच्छा कर सकते हैं तथा घरेलू उद्योग के लिए बाहर के निवेश को आकर्षित कर सकते हैं। महात्मा गांधी जी के हिंद स्वराज में भारत के आत्मनिर्भरता के विचार को विस्तार से समझाया गया है। गांधी जी ने स्वदेशी विचार में भारत के उस औपनिवेशिक शोषण को खारिज किया था जिससे ब्रिटिश खजाने भरते थे और नतीजे में भारत के गरीब और कुचले हुए लोग घाटे में रहते थे।

अब देश के प्रधानमंत्री को वही बात एक महामारी के संदर्भ में फिर तीन बार दोहरा कर कहनी पड़ी, आत्मनिर्भर, आत्मनिर्भर, आत्मनिर्भर। आत्मनिर्भरता हमारी संस्कृति का आधारभूत तत्त्व है और यह आज की संकटग्रस्त वैश्वीकृत दुनिया में हमारे लिए गौरवपूर्ण स्थान पाने का सूत्र भी बन सकता है। केंद्र सरकार पहले से ही मेक इन इंडिया जैसी पहलों से आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को हासिल करने के प्रयास में जुटी हुई है। सजग राष्ट्र के जीवन में आत्मनिर्भरता बहुत जरूरी है। जिस राष्ट्र में आत्मनिर्भरता होती है, वह जीवन में कभी हार नहीं सकता, वह अपना लक्ष्य आसानी से हासिल कर सकता है। जिस बेहद जरूरी आत्मनिर्भरता की ओर हम जाना चाहते हैं, उसका रास्ता गांवों को प्राथमिकता देने से ही हो सकता है। आत्मनिर्भरता से देश में अमीर और गरीब के बीच की खाई कम करने में आसानी होगी, लाखों लोगों को स्वरोजगार मिल सकेगा और देश विश्व का अधिक सक्षम राष्ट्र होगा। यदि हम महात्मा गांधी के ‘ग्राम स्वराज’ या दीनदयाल उपाध्याय के ‘अंत्योदय’ पर अमल करके अपने जीवन को चलाए होते तो इस समय में इतना बड़ा पलायन या इतनी कठिनाइयां नहीं आतीं।

हमारा देश 130 करोड़ की विशाल जनसंख्या वाला देश है। इतनी आबादी देश के लिए समस्या भी है तो उसकी अपनी ताकत भी है। जनसांख्यिकीय लाभ भी हैं। विश्व का सबसे बड़ा बाजार भारत है, इस विशेषता को अपनी ताकत बनाकर हम आत्मनिर्भर बनें, स्वदेशी अपनाओ का केवल नारा ही न रहे, अपितु जरूरी है कि इस पर कार्य भी हो। जिस तरह से लक्ष्य साधक चार एल यानी लैंड, लेबर, लिक्विडटी और लॉ से जुड़ी बारीकियों पर जोर देते हुए इकोनॉमी, इंफ्रास्ट्रक्चर, सिस्टम, डेमोग्राफी और डिमांड जैसे पांच पिलरों को मजबूती देने का आह्वान किया गया है, उससे यह साफ  है कि इन  शब्दों की सीढि़यों के सहारे आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।

इसलिए इस पर अविलंब फोकस किए जाने की जरूरत है। हमें यह भी सोचना होगा कि आखिर निवेशकों को चीन ने क्यों प्रभावित किया? जवाब तो  अनुकूल माहौल की बात है। एफडीआई को आकर्षित करने के लिए चीनी प्रांत और शहर एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं। वे निवेशकों से सीधे जुड़ते हैं। उन्हें फास्ट ट्रैक क्लीयरेंस देते हैं। भारत में अभी ऐसा नहीं है। हमें अपने यहां की मानसिकता को सुधारना होगा। हमारा तंत्र निवेशकों व कंपनियों को सुविधा देने की बजाय उनके नियामक के तौर पर ज्यादा काम करते नजर आते हैं। क्या यह ठीक है? आत्मनिर्भरता केवल व्यक्ति के लिए ही नहीं, राष्ट्र के लिए भी आवश्यक है। स्वतंत्रता के बाद कई वर्षों तक भारत खाद्यान्न के लिए दूसरे राष्ट्रों पर निर्भर था। इसके कारण इसे कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। साठ के दशक में हुई हरित क्रांति के बाद भारत खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बना। यह भारत की आत्मनिर्भरता का ही नतीजा रहा कि देश की जनता की खुशहाली में स्वाभाविक तौर पर वृद्धि हुई। हमारी भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा है, ‘एक राष्ट्र की शक्ति उसकी आत्मनिर्भरता में है, दूसरों से उधार लेकर काम चलाने में नहीं।’ आत्मनिर्भरता से ही मनुष्य की प्रगति संभव है। आत्मनिर्भरता आज भी एक अचूक आर्थिक मंत्र है।

यह किसे भूला होगा कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी ने भी ठीक सौ बरस पहले 1920 में स्वराज के जरिए आत्मनिर्भर होने की बात कही थी, पर हमारे पास इस बात का जवाब कहां है कि बीते सौ बरसों में आज तक आखिर ऐसा क्यों नहीं हो सका? आत्मनिर्भरता तभी संभव है जब हम लोकल के लिए वोकल बनेंगे। इससे स्थानीय स्तर पर ही रोजगार उत्पन्न होंगे। इस तरह इसके जरिए हम बेरोजगारी की समस्या का समाधान भी कर सकते हैं। वास्तव में दूसरों पर निर्भरता आर्थिक असमानता पैदा करती है। आत्मनिर्भरता के जरिए हम आर्थिक असमानता भी दूर कर सकते हैं। स्थानीय स्तर पर रोजगार उपलब्ध होने से युवाओं को इधर-उधर भटकने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आत्मनिर्भरता ग्राम स्वराज के जरिए हासिल की जा सकती है। दूसरों पर निर्भर भारतीय गांवों को हमें आत्मनिर्भर बनाना होगा, तभी हम सही अर्थों में आर्थिक विकास कर पाएंगे।

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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