आत्मनिर्भरता का रास्ता है स्वदेशी: हेमांशु मिश्रा, लेखक पालमपुर से हैं

By: हेमांशु मिश्रा, लेखक पालमपुर से हैं Aug 31st, 2020 12:07 am

हेमांशु मिश्रा

लेखक पालमपुर से हैं

जहां इंस्पेक्टरी राज-लाइसेंस प्रणाली जैसी अव्यवस्था टूट रही थी तो वहीं महात्मा गांधी जी, दीन दयाल उपाध्याय जी और लोहिया जी के ग्राम केंद्रित अर्थव्यवस्था के स्वप्न अमलीजामा पहनाने से पहले ही धराशायी हो गए। अब देश और बुद्धिजीवी ग्लोबल विलेज की बात करने लग पड़े थे। डब्ल्यूटीओ की दखल बढ़ रही थी, डंकल प्रस्ताव, पेटेंट कानून और  अंतरराष्ट्रीय  दबाव में सत्ता काम करती हुई दिखी। मोनसंटो ने किसान के बीजों को संचित करने पर प्रतिबंध की बात रख दी थी। ऐसे में देश की संप्रभुता और आर्थिक ताना-बाना भी कमजोर हो रहा था…

स्वदेशी का विचार वास्तव में सतत सनातन और शाश्वत विचार है। हम प्रार्थना में भी सूर्य, पृथ्वी, राष्ट्र, ग्राम और स्थान की पूजा करते हैं। ग्राम और स्थान की ऊर्जा के संवर्धन से ही स्वावलंबन और सशक्तिकरण का रास्ता निकलता है, जो सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक दृढ़ता को प्रगाढ़ करता है। जिस ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था को आजादी के आंदोलन में भारतीयों ने जीया, वह आजादी के बाद साम्यवाद, पाश्चात्य विचार के प्रभाव और पूंजीवाद के द्वंद्वों के बीच मिश्रित अर्थव्यवस्था में ढल गया।

लाइसेंस-इंस्पेक्टरी राज के चलते मशीनीकरण से सस्ते माल की आपूर्ति से अर्थव्यवस्था के पांव गांव से उखड़ कर शहरों की झुग्गियों में बस गए। गांव से बड़े पैमाने में पलायन होने लगा, गांव का आत्मनिर्भर कामगार शहरों का मजदूर बन गया। मजदूर और मजबूर में ज्यादा अंतर नहीं है। भारत से ब्रेन ड्रेन विदेशों में हो रहा था तो गांव से श्रम पलायन रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। दिल्ली, मुंबई, पुणे, सूरत, बंगलोर आदि अनेक शहरों में जनसंख्या करोड़ों में पहुंच गई और गांव में सन्नाटा पसरने लग पड़ा। भारत में 50 से 70 के दशक में जूते बाटा बनाने लगा। गांव के कामगार के पास काम कम हो गया। कपड़ा डीसीएम, बॉम्बे डाईंग, रेमंड आदि सस्ता उपलब्ध करवा रहे थे और हथकरघा उद्योग सांसें गिनने लग पड़ा था। अर्थव्यवस्था के महालनोबिस मॉडल से रुपए की कीमत टूट रही थी। बेरोजगारी बढ़ रही थी।

दूसरे शब्दों में कहूं तो अमीरी चमक रही थी, गरीबी सिसक रही थी। ऐसे समय जनसंघ के विचारक महामंत्री दीनदयाल उपाध्याय जी ने एकात्म मानववाद, गांधीवादी ग्राम केंद्रित अर्थव्यवस्था का विचार देश के सामने रखा, जो प्रकृति और देशानुकूल था। व्यक्ति का प्रकृति के अनुकूल विकास दीन दयाल जी के विकास के मॉडल का मूलमंत्र रहा।

प्रकृति का शोषण नहीं, दोहन हो, यह इस विचार का मूल था और इसके साथ अंत्योदय का विचार प्रस्फुटित हुआ जो विनोबा भावे की भावना के अनुकूल था। पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति का विकास मूलतः आत्मनिर्भरता, स्वावलंबन के साथ सशक्तिकरण का विचार है। दीन दयाल जी के विचारों को अंगीकार कर जनसंघ भाजपा भी आगे बढ़ रही थी, तो राम मनोहर लोहिया जी एवं जयप्रकाश नारायण जी के विचार भी समाजवाद की मजबूत नींव पर टिके थे। देश में एक मजबूत राजनीतिक ताकत होने के बाद भी तत्कालीन सत्ता से ग्राम केन्द्रित समाजवाद पर कुछ ज्यादा ठोस काम धरातल में नहीं करवा सके। उधर समय करवट ले रहा था। 20वीं शताब्दी के 90 के दशक में अंतरराष्ट्रीय आर्थिक जगत में आए आमूलचूल परिवर्तन से भारत भी अछूता नहीं रहा। मनमोहन सिंह जी के वित्त मंत्री बनते ही आर्थिक खुलापन, उदारीकरण की बात होने लगी। उधर अर्थव्यवस्था को जकड़े बेडि़यां टूट रही थीं।

जहां इंस्पेक्टरी राज-लाइसेंस प्रणाली जैसी अव्यवस्था टूट रही थी तो वहीं महात्मा गांधी जी, दीन दयाल उपाध्याय जी और लोहिया जी के ग्राम केंद्रित अर्थव्यवस्था के स्वप्न अमलीजामा पहनाने से पहले ही धराशायी हो गए। अब देश और बुद्धिजीवी ग्लोबल विलेज की बात करने लग पड़े थे। डब्ल्यूटीओ की दखल बढ़ रही थी, डंकल प्रस्ताव, पेटेंट कानून और  अंतरराष्ट्रीय  दबाव में सत्ता काम करती हुई दिखी। मोनसंटो ने किसान के बीजों को संचित करने पर प्रतिबंध की बात रख दी थी। ऐसे में देश की संप्रभुता और आर्थिक ताना-बाना भी कमजोर हो रहा था। तब गांव से पलायन का नया दौर शुरू हुआ था जो मनरेगा के आने तक भी नहीं रुका। गांव से पलायन यह था कि देश की 10 प्रतिशत आबादी 90 के दशक में गांव से पलायन कर गई। श्रम पलायन आर्थिक खुलेपन का खतरनाक दुष्परिणाम था। अब तो विदेशी बड़ी कम्पनियां दस्तक दे चुकी थीं। डब्ल्यूटीओ में चीन की एंट्री के बाद तो बाजार में घमासान ही मच गया। बाटा, डीसीएम, बॉम्बे डाईंग इत्यादि अनेक कम्पनियां कमजोर हो गईं।

कुछ बंद हो गईं। चीन ने भारतीय व्यापार का अध्ययन किया और सस्ते माल से बाजार पर कब्जा करने का प्रयास किया। मोबाइल उद्योग में तो चीन का दबदबा रहा ही, अन्य गैर परम्परागत क्षेत्रों जैसे एप्स, भारतीय त्योहारों और फार्मा उद्योग में आधिपत्य ही जमा लिया। यह तो शुक्र है कि ऑटोमोबाइल और सेवा क्षेत्रों में भारतीय उद्योग अपनी मेहनत और तकनीक से अव्वल रहे। चीन, यूरोप और अमरीका भारत में जनसंख्या के कारण बाजार खंगाल रहे थे तो भारत में बेरोजगारी भी बढ़ रही थी। इस तरह अर्थव्यवस्था के ग्लोबल हो जाने से भारतीय आर्थिकी को बड़ा नुकसान हुआ। विश्व व्यापार संगठन भारतीय अर्थव्यवस्था को अपनी उंगलियों पर नचाने लगा था।


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