गुरु और शिष्य का रिश्ता

By: श्रीराम शर्मा Aug 15th, 2020 12:20 am

श्रीराम शर्मा

योग साधकों के लिए सबसे पहले साधना के प्रवेश द्वार की पहचान जरूरी है। क्योंकि यही वह महत्त्वपूर्ण स्थल है, जहां से योग साधना की अंतर्यात्रा शुरू होती है। महर्षि पतंजलि ने योगसूत्र में इसी के बारे में गूढ़ संकेत दिए हैं। इस प्रथम सूत्र में उन्होंने योग साधना की पूर्व तैयारियों, साधना में प्रवेश के लिए आवश्यक एवं अनिवार्यताओं का ब्योरा सूत्रबद्ध किया है। समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद एवं कैवल्यपाद तथा 195 सूत्रों वाले योगदर्शन की आधारशिला यही पहला सूत्र है। योग सूत्रकार महर्षि के एक-एक शब्द को ठीक से समझना जरूरी है। क्योंकि महावैज्ञानिक पतंजलि एक भी शब्द का निरर्थक प्रयोग नहीं करते। इस सूत्र में पहला शब्द है ‘अथ’। योग सूत्र की ही भांति अथ शब्द ब्रह्मसूत्र में भी आया है।

अथातो ब्रह्मजिज्ञासा यही पहला सूत्र है महर्षि बादरायण व्यास का। इसमें से ‘अथ’ शब्द की व्याख्या में आचार्य शंकर एवं आचार्य रामानुज ने सुदीर्घ व्याख्याएं की हैं। अपनी भारी मतभिन्नता के बावजूद दोनों आचार्य ‘अथ’ के महत्त्व के बारे में एकमत हैं। जिन्हें सचमुच ही साधना में प्रवेश करना है, उन्हें अच्छी तरह से जान लेना चाहिए कि ‘अथ’ को समझकर साधक का जीवन अर्थवान बनता है। बिना ‘अथ’ को समझे वह पूरी तरह से अर्थहीन रह जाता है। अब साधक के जीवन में वह पुण्य क्षण है जब उसके हृदय में उठने वाली योग साधना के लिए सच्ची चाहत अपने चरम को छूने लगी। उसकी अभीप्सा की ज्वालाओं का तेज तीव्रतम हो गया। उसकी पात्रता की परिपक्वता हर कसौटी पर खरी साबित हो चुकी। उसका शिष्यत्व पूरी तरह से जाग उठा। उसकी पुकार में वह तीव्रता और त्वरा आ गई कि सद्गुरु उससे मिलने के लिए विकल बेचैन हो उठे। परम पूज्य गुरुदेव के जीवन में ‘अथ’ का पुण्य क्षण 15 वर्ष की आयु में ही आ गया। वह पात्रता और पवित्रता की हर कसौटी पर पिछले जन्मों से ही खरे थे। श्री रामकृष्ण परमहंस, समर्थ स्वामी रामदास, संत कबीर के रूप में उन्होंने योग साधना के सत्य को पूरी तरह जिया था। अपने जीवन को इसकी अनुभूतियों के रस में डूबोया था।

फिर भी उन्हें इस बार भी अपनी पात्रता को सिद्ध करना पड़ा, जो उन्हीं की भाषा में पिसे को पीसा जाना था। उनकी जाग्रत चेतना की पुकार इतनी तीव्र हो उठी कि उनके सद्गुरु हिमालय के गुह्यक्षेत्र से भागे चले आए। उन्होंने इस सत्य को बताते हुए अपनी आत्मकथा हमारी वसीयत और विरासत में लिखा हमें गुरु के लिए भागदौड़ नहीं करनी पड़ी। हमारे गुरुदेव तो स्वयं ही हम तक दौड़े चले आए। यह है महर्षि के योग सूत्र के प्रथम सूत्र के प्रथम शब्द को समझ लेने का चमत्कार। गुरुदेव ने जगह-जगह पर अपने साहित्य में लिखा है, स्थान-स्थान पर अपने प्रवचनों में कहा है कि हमारी मंशा अपने गुरु की जेब काटने की नहीं थी। हम तो उन्हें अपना शिष्यत्व समर्पित करना चाहते थे। हमारे अंदर तो एक ही ख्वाहिश थी, सच्चा शिष्य बनने की। बस, हम तो अपने गुरु के हो जाना चाहते थे। अपनी तो बस एक ही चाहत थी, बस एक ही नाता रहे, एक ही रिश्ता बचे गुरु और शिष्य का।


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