विश्व बैंक की गलत सलाह: डा. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक विश्लेषक

By: डा. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक विश्लेषक Aug 25th, 2020 12:07 am

डा. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक विश्लेषक

तात्पर्य यह है कि बड़ी कंपनियों के माध्यम से उत्पादकता बढ़ाने की कोशिश में हम अपनी कुल अर्थव्यवस्था को संकुचित करते हैं, वह छोटी होती जाती है, लेकिन उस छोटी अर्थव्यवस्था में भी बड़ी कंपनियों का विस्तार होता है। यही गति पिछले चार वर्षों से जारी है। हमारा सेंसेक्स 30 हजार से बढ़कर 40 हजार हो गया, लेकिन हमारी विकास दर 10 प्रतिशत से घटकर पहले चार प्रतिशत और अब नकारात्मक हो रही है। अतः हमारी सरकार को विश्व बैंक से बचना चाहिए। विश्व बैंक की सलाह को रिजेक्ट कर देना चाहिए और छोटे उद्यमों को संरक्षण देना चाहिए। देश में महंगी फुटबाल को श्रम सघन उपायों से बनाना चाहिए। इससे आम आदमी का रोजगार जिंदा रह सकेगा…

19 अगस्त 2020 को प्रकाशित इंडिया डिवेलपमेंट अपडेट में विश्व बैंक ने भारत को सलाह दी है कि सरकार अपने श्रमिकों की उत्पादकता और निर्यात बढ़ाने का प्रयास करे। उत्पादकता का अर्थ यह हुआ कि प्रति व्यक्ति माल का उत्पादन अधिक हो जैसे हलवाहे की तुलना में ट्रैक्टर चालक की उत्पादकता अधिक होती है। ट्रैक्टर चालक एक दिन में अधिक भूमि की जुताई करता है। विश्व बैंक का कहना है कि जब उत्पादकता बढ़ेगी तो हमारा माल सस्ता होगा, जैसे हलवाहे की तुलना में ट्रैक्टर से खेती करने में उत्पादन लागत कम पड़ती है। उत्पादन लागत कम होने से हम अपने माल का विश्व बाजार में निर्यात कर सकेंगे और हम कोविड के संकट से निकल जाएंगे। यहां विषय यह है कि श्रम की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए हमें पूंजी तथा मशीनों का उपयोग अधिक करना पड़ता है। जैसे ऊपर के उदाहरण में हलवाहा और एक जोड़ी बैल में 40 हजार की पूंजी लगती है, जबकि ट्रैक्टर में 10 लाख की। चूंकि ट्रैक्टर चालक अधिक पूंजी से काम करता है, इसलिए वह एक दिन में अधिक काम कर पाता है।

अब इतना सही है कि यदि ट्रैक्टर जैसी मशीनों के उपयोग से श्रम की उत्पादकता बढ़ाई गई तो निश्चित रूप से माल सस्ता बनेगा, लेकिन समस्या यह है कि साथ-साथ श्रम का उपयोग घटेगा, रोजगार घटेगा और बेरोजगारी बढ़ेगी। यूं समझें यदि अपने देश में डीजल की उपलब्धि बंद हो जाए और सभी ट्रैक्टर काम करना बंद कर दें तो जुताई के लिए वर्तमान की तुलना में लगभग 10 गुणा रोजगार बैलों से जुताई करने में उत्पन्न हो जाएंगे। साथ-साथ गेहूं का दाम भी बढ़ जाएगा। अर्थात यदि हम ट्रैक्टर से खेती करते हैं तो दो प्रभाव पड़ते हैं। एक तरफ पूंजी अधिक उपयोग होती है तो दूसरी तरफ श्रमिक बेरोजगार होता है। इन दोनों प्रभावों का मिलाजुला परिणाम यह होता है कि माल सस्ता हो जाता है। अर्थ यह कि बेरोजगारी दूर करने के लिए महंगे माल को स्वीकार करना होगा। इसी उदाहरण को जब हम मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में लागू करते हैं तो जो प्रभाव खेती में ट्रैक्टर का होता है, वही प्रभाव मैन्युफैक्चरिंग में ऑटोमेटिक मशीनों का होता है।

ऐसा समझें कि हमें फुटबाल बनानी है। यदि बड़ी कंपनी द्वारा ऑटोमेटिक मशीन से फुटबाल बनाई गई तो मान लीजिए एक दिन में प्रति श्रमिक 1000 फुटबाल बनती है। उसी फुटबाल को यदि छोटी फैक्टरी में हाथ से सिल कर बनाया गया तो एक दिन में एक श्रमिक मात्र 10 फुटबाल बना सकेगा। इस प्रकार यदि हम विश्व बैंक की सलाह को मानते हुए उत्पादकता बढ़ा कर सस्ती फुटबाल बनाते हैं तो बाजार में सस्ती फुटबाल उपलब्ध हो जाएगी और श्रमिक बेरोजगार हो जाएंगे। उत्पादकता बढ़ाने का ऐसा ही प्रभाव छोटे उद्योगों पर होता है। बड़े उद्योगों द्वारा माल का उत्पादन सस्ता किया जाता है क्योंकि वे बड़े पैमाने पर माल का उत्पादन करते हैं जिसको ‘इकोनोमीज आफ  स्केल’ कहा जाता है। जैसे यदि फुटबाल बनाने का बड़ा कारखाना है तो वह चमड़े को थोक में चेन्नई से खरीदकर लाएगा। वह फुटबाल की गुणवत्ता की जांच करने के लिए आधुनिक मशीन लगाएगा और वह एक पूरे ट्रक में माल भरकर भेजेगा जिससे ढुलाई सस्ती पड़ेगी।

बड़े उद्योग की तुलना में छोटे उद्योग की उत्पादन लागत ज्यादा आती है। इसलिए यदि हम विश्व बैंक के बताए अनुसार उत्पादकता बढ़ाने पर ही विशेष ध्यान देते हैं और रोजगार की अनदेखी करते हैं तो इसका सीधा परिणाम यह होता है कि बड़ी कंपनी के द्वारा ऑटोमेटिक मशीनों से माल का उत्पादन होगा। देश में छोटे उद्योग बंद होंगे और बेरोजगारी बढ़ेगी। इसके साथ जब हम निर्यात को जोड़ देते हैं तो समस्या और विकट हो जाती है। निर्यात बढ़ाने का अर्थ यह हुआ कि हम खुले व्यापार को अपनाएंगे। जब हम निर्यात बढ़ाने का प्रयास करेंगे तो हम अपनी सरहद को आयातों के लिए भी खोलेंगे जिसके कारण चीन अथवा दूसरे देशों में बड़ी कंपनियों द्वारा बनाए गए सस्ते माल का प्रवेश हमारे देश में आसान हो जाएगा। विश्व बैंक की नीति को अपनाने का हम प्रत्यक्ष प्रमाण अपने शेयर बाजार में देख सकते हैं। कोविड के संकट के पहले सेंसेक्स 39 हजार के लगभग था। कोविड संकट में यह 30 हजार के लगभग पहुंच गया।

आज हमारी अर्थव्यवस्था संकुचित हुई है, जीडीपी गिरा है, लोग बेरोजगार हुए हैं, लेकिन सेंसेक्स पुनः 36 हजार पर पहुंच गया है। इसका कारण यह है कि जब उत्पादकता बढ़ाकर रोजगार को घटाते हैं तो बाजार में माल की मांग कम होती है और कुल अर्थव्यवस्था सिकुड़ती है, जैसा कि हम कोविड संकट के बाद देख रहे हैं। लेकिन उस सिकुड़ी हुई अर्थव्यवस्था में बड़ी कंपनियों या बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हिस्सा बढ़ जाता है। इस प्रकार समझें कि कोविड के पहले अपने देश में 10 फुटबाल का निर्माण होता था और इनकी खपत हो जाती थी। पांच किसी बड़ी कंपनी के द्वारा बनाई जाती थीं और पांच छोटी-छोटी पांच कंपनियों द्वारा बनाई जाती थीं। अब कोविड संकट आया। लोग बेरोजगार हो गए। फुटबाल की बिक्री कम हुई। 10 के स्थान पर केवल आठ फुटबाल बिकने लगीं। भारत सरकार ने विश्व बैंक की सलाह के अनुसार श्रमिकों की उत्पादकता बढ़ाई।

बड़ी कंपनियों का रास्ता आसान किया तो बड़े निर्माता ने पांच के स्थान पर सात फुटबाल बनाना शुरू कर दिया। चार छोटे फुटबाल निर्माताओं का कारोबार बंद हो गया। इस प्रकार कुल उत्पादन और खपत पूर्व में 10 फटबाल से घटकर आज आठ हो गया क्योंकि चार छोटे निर्माताओं के साथ उनके श्रमिक बेरोजगार हो गए और फुटबाल की मांग बाजार में कम हो गई। लेकिन साथ-साथ बड़ी कंपनियों का उत्पादन पांच से बढ़कर सात फुटबाल हो गया। इसीलिए मंदी के बावजूद शेयर बाजार बढ़ रहा है। तात्पर्य यह है कि बड़ी कंपनियों के माध्यम से उत्पादकता बढ़ाने की कोशिश में हम अपनी कुल अर्थव्यवस्था को संकुचित करते हैं, वह छोटी होती जाती है, लेकिन उस छोटी अर्थव्यवस्था में भी बड़ी कंपनियों का विस्तार होता है। यही गति पिछले चार वर्षों से जारी है। हमारा सेंसेक्स 30 हजार से बढ़कर 40 हजार हो गया, लेकिन हमारी विकास दर 10 प्रतिशत से घटकर पहले चार प्रतिशत और अब नकारात्मक हो रही है। अतः हमारी सरकार को विश्व बैंक से बचना चाहिए। विश्व बैंक की सलाह को रिजेक्ट कर देना चाहिए और छोटे उद्यमों को संरक्षण देना चाहिए। देश में महंगी फुटबाल को श्रम सघन उपायों से बनाना चाहिए और जनता को बताना चाहिए कि हम सस्ते आयातों पर रोक लगा रहे हैं जिससे कि देश में आम आदमी का रोजगार और जीविका जिंदा रहे।

ई-मेलः bharatjj@gmail.com


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