आत्मा और परमात्मा

By: श्रीराम शर्मा Sep 5th, 2020 12:20 am

पुरातन काल में एक अपराजित हेय दैत्य कृतवीर्य के आतंक से दसों दिशाओं में हाहाकार मच गया था। वह महाप्रतापी और वरदानी था। देवता और मनुष्यों में से कोई उससे लोहा ले सकने की स्थिति में नहीं था। सभी असहाय बने जहां-तहां अपनी जान बचाते फिरते थे। उपाय ब्रह्माजी ने सोचा। भगवान शंकर को एक प्रतापी पुत्र उत्पन्न करने के लिए सहमत किया। वही इस प्रलय दूत से लड़ सकता था। कार्तिकेय स्वामी जन्मे।

अग्नि ने उन्हें गर्भ में रखा। कृतिकाओं ने पाला और इस योग्य बनाया कि वह अकेला ही चुनौती देकर कृतवीर्य को परास्त कर सके। ऐसा ही हुआ भी और संकट टलने का सुयोग आया था। इस पौराणिक उपाख्यान में कितना सत्य और कितना अलंकार है यह कहना कठिन है, पर प्रस्तुत विभीषिकाएं सचमुच ही ऐसी हैं, जिन्हें कृतवीर्य के आतंक तुल्य ठहराया जा सके। जो सामने हैं, उनकी परिणति महाप्रलय होने जैसी मान्यता हर विचारशील की बनती जा रही है।

अणु युद्ध की विभीषिका किसी भी दिन साकार हो सकती है और इस धरती पर विषाक्तता के अतिरिक्त और कुछ बचने के आसार नहीं हैं। बढ़ती जनसंख्या के लिए निर्वाह साधन अगले दिनों भी मिलते रहेंगे, इसकी कोई संभावना नहीं है। अन्न, जल, खनिज ही नहीं, शुद्ध वायु तक मिलना संभव न रहेगा और लोग भूख, प्यास, घुटन से संत्रस्त होकर दम तोड़ेंगे। मर्यादाओं को तोड़- मरोड़ डालने में निरत व्यक्ति को स्वास्थ्य,  संतोष, सुरक्षा, संपदा सभी से वंचित होना पड़ेगा। अनाचार की मान्यता देने वाले समाज में स्नेह, सहकार और न्याय के लिए क्या स्थान रहने वाला है। विशृंखलित और विग्रही समाज का कोई भी सदस्य चैन से न रह सकेगा। इन परिस्थितियों का विवेचन हर क्षेत्र के मूर्धंय विचारशील कर रहे हैं और एक स्वर में इस निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं कि समय रहते न चेता गया, तो मनुष्य जाति को सामूहिक आत्महत्या के लिए बाधित होना पड़ेगा। इस प्रसंग में शास्त्रकार, दिव्यदर्शी, ज्योतिषी, भविष्यवक्ता भी अपने-अपने तर्क प्रमाण प्रस्तुत करते हुए यह घोषित करते हैं कि दुर्दिनों की विपत्ति बेला अब कुछ ही दिनों में आ धमकने वाली है।

बढ़ते तापमान से धु्रव पिघलने, समुद्र उफनने और हिम युग वापस लौटने जैसी चर्चाएं आए दिन सुनने को मिलती रहती हैं। कोई चाहे तो इन परिस्थितियों की कृतवीर्य महादैत्य के समय से तुलना कर सकता है, जो किसी के भी झुकाए न झुक पा रहा है।  ऐसे समय में अध्यात्म शक्ति ही कारगर होती रही है। विश्वामित्र का यज्ञ जिसकी रक्षा करने राम, लक्ष्मण गए थे, सामयिक आतंक को टालने की पृष्ठभूमि बनाने के लिए ही किया गया था। दधीचि के अस्थिदान के पीछे भी यही उद्देश्य था। कार्तिकेय जैसी अध्यात्म क्षमता उत्पादित करने के प्रयत्नों के साथ किसी प्रकार संगति बिठानी हो, तो प्रज्ञा परिजनों द्वारा संचालित प्रज्ञा पुरश्चरण से बैठ सकती है, जिसमें चौबीस लाख व्यक्ति एक समय पर एक विधान से वातावरण संशोधन की साधना करते हैं। इसी की एक कड़ी इस अनुभव प्रयास के साथ जुड़ती है, जिसमें एकांतवास के साथ उग्र तपश्चर्या करने का निर्धारण है।


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