अवैध निर्माण की सूली पर कंगना रणौत: डा. चंद्र त्रिखा, वरिष्ठ साहित्यकार-पत्रकार

By: डा. चंद्र त्रिखा, वरिष्ठ साहित्यकार-पत्रकार Sep 15th, 2020 12:06 am

डा. चंद्र त्रिखा

वरिष्ठ साहित्यकार-पत्रकार

दरअसल अवैध निर्माण विवशता से भी उपजते हैं और लोभ से भी। मगर इन्हें हटाना हो तो उसके लिए निर्धारित कानूनी प्रावधान हैं। जहां तक ‘स्लम्स’ का सवाल है, उन्हें वैकल्पिक छतें देनी होंगी। सिर्फ वोट-बैंक के लिए आप न केवल अवैध निर्माण को बढ़ावा दे रहे हैं, बल्कि उन्हें सम्मान एवं गरिमा की स्वस्थ जिंदगी से भी वंचित कर रहे हैं। राजकपूर की फिल्म थी ‘श्री 420’, उसमें आवाम को ठगने के लिए मात्र सौ रुपयों में मकान देने की योजना का प्रचार होता है। नायक इसके पीछे के ठगों की पोल खोल देता है और आम लोगों से कहता है कि उनके द्वारा जमा किया गया धन वे सरकार को दें…

चौतरफा शोर है। कभी सुशांत, कभी रिया, कभी कंगना और अब 45 हजार झुग्गियों को तीन माह में उजाड़े जाने की बात। उनका शोर भी दो दिन चलेगा। फिर किसी नए हंगामे की वजह तलाशी जाएगी। सुशांत को मालूम होता कि आत्महत्या के बाद उसके परिवेश की एक-एक परत उखड़ेगी तो वह जैसे-तैसे शोषित युवा अभिनेता की जिंदगी काट लेता, मगर आत्महत्या न करता। वैसे अभी तो यह भी तय होना है कि उसने आत्महत्या की थी या उसकी हत्या हुई है? अभी हत्या का कोई थोड़ा सा भी सुराग मिला तो टीवी चैनलों के कैमरे व रिपोर्टर और एंकर उधर लपकेंगे। दो-चार दिन बाद रिया, कंगना, 45 हजार झुग्गियां, सब हाशिए पर सरका दी जाएंगी। कंगना को मालूम होता कि उसके जुझारू तेवरों को अब नारकोटिक्स वाले या मुंबई पुलिस के ड्रग्स-निरोधक दस्ते नकेल डालने की मशक्कत करेंगे तो शायद वह अपने बंगले की तोड़-फोड़ पर सत्ता तंत्र को चुनौती देने से पहले एक बार सोच लेती। मगर अब उसे थोड़ा और जूझना होगा। ज्यादा मशक्कत करनी होगी ‘नशे’ के आरोपों से निपटने के लिए। आज वह ‘खूब लड़ी मर्दानी’ है और उसे जमकर कवरेज मिल रही है। कल कोई नया मुद्दा उभरा तो टीवी चैनल, प्रिंट वाले और अन्य सभी उसे एक तरफ  सरका कर उधर भाग लेंगे। उन्हें टीआरपी या ग्राहक संख्या की ‘रेटिंग’ में जगह चाहिए। इस रेटिंग के चक्कर में सुशांत, रिया, कंगना या झुग्गी वाले सब उनके लिए बराबर हैं। जहां शोर ज्यादा होगा, उसे ज्यादा महत्त्व मिलेगा। अब जीडीपी, अर्थनीति ज्यादा दिलचस्प नहीं रहे। कोरोना अभी है, मगर उसे चौबीसों घंटे सातों दिन परोसा तो नहीं जा सकता।

अगर चीन विवाद चलता है तो उस पर भी नजर रखी जाएगी, मगर कंगना है तो वह गंभीर विवाद भी दूसरे तीसरे ‘स्लॉट’ पर सरक जाता है। चलिए 45 हजार झुग्गियों की बात कर लें। अपने देश में इस समय कितने लोग हैं जिनके सिर पर छत नहीं है, इसका सही अनुमान नामुमकिन है। हमें इतना भी सही-सही मालूम नहीं है कि कितने लोग अब कोरोना-युग में भी सड़कों के किनारे या फुटपाथों पर सोते हैं? मगर इतना तय है कि दोनों वर्गों की संख्या करोड़ों में है। इसके अलावा ‘धारावी’ तो मुफ्त में बदनाम है, देश के कमोबेश सभी महानगरों व प्रमुख शहरों में धारावी सरीखे स्लम-क्षेत्र मौजूद हैं। चंडीगढ़ सरीखे आधुनिक शहरों में स्लम बस्तियां हैं। दिल्ली में नौ, मुंबई में धारावी सहित पांच। दिल्ली कभी रेल से जाएं तो पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से पहले आपको रेल लाइनों के किनारों पर ही ऐसी अनेक बस्तियां दिखाई देंगी, जिनमें पिछली कई पीढि़यों से परिवार रहते हैं। बिजली, पानी, टीवी, स्कूटर सब कुछ आपको दिखाई दे जाएगा इन अवैध घरों में। वर्ष 2013 में हुए इस सर्वेक्षण के अनुसार लगभग दो करोड़ परिवारों के पास उनके अपने नाम पर कोई मकान नहीं है।

महाराष्ट्र में अकेले ठाणे जिले में पांच लाख अवैध आवास खड़े हैं। जिस मुंबई में कंगना रणौत के आवास का कुछ हिस्सा अवैध निर्माण के नाम पर ढहाया गया है, उसी में सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार 41.3 प्रतिशत आबादी अवैध मकानों में रहती है। अकेले धारावी में लगभग दस लाख लोग अवैध निर्माणों में बसते हैं। कुल क्षेत्रफल 2.1 वर्ग किलोमीटर और दस लाख लोग। इस क्षेत्र की पूरी जिम्मेदारी बृहन्न मुंबई नगर निगम यानी बीएमसी की है। मगर इस पूरे अवैध स्लम को टेलीफोन कोड के अलावा पिन कोड भी प्राप्त हैं, बिजली, पानी, जलनिकासी, सफाईकर्मी आदि सब उपलब्ध हैं। इन्हें हटाने की बात कोई सोच भी नहीं सकता। इनके पास वोट-कार्ड का एक ऐसा अमोघ अस्त्र है जिसके आगे सभी कानून-कायदे धराशायी हो जाते हैं। यहां रहने वालों को मुम्बा देवी का आशीर्वाद है। इन मराठा-मानुष को छेड़ा भी नहीं जा सकता। अब वहां नवनिर्माण की योजनाएं चली हैं। ब्रिटिश आर्किटेक्ट नक्शे बना रहे हैं। मगर यह सिलसिला भी दो दशकों से चल रहा है। बहरहाल, मुद्दा यह है कि अवैध निर्माण के खिलाफकार्रवाई सिर्फ कायदे-कानूनों को लागू करने के लिए नहीं होती। अपने किसी भी राजनीतिक शत्रु को सबक सिखाने के लिए भी जेसीबी चलाई जा सकती है और जेसीबी की सक्रियता को मीडिया-प्रकरण के लिए फिल्माया जाता है। जब फोटो खींची जा रही होती हैं, तब जेसीबी ड्राइवर मुस्कराता हुआ दिखता है।

उसे पता है फोटो वायरल होगी। दरअसल अवैध निर्माण विवशता से भी उपजते हैं और लोभ से भी। मगर इन्हें हटाना हो तो उसके लिए निर्धारित कानूनी प्रावधान हैं। जहां तक ‘स्लम्स’ का सवाल है, उन्हें वैकल्पिक छतें देनी होंगी। सिर्फ वोट-बैंक के लिए आप न केवल अवैध निर्माण को बढ़ावा दे रहे हैं, बल्कि उन्हें सम्मान एवं गरिमा की स्वस्थ जिंदगी से भी वंचित कर रहे हैं। राजकपूर की फिल्म थी ‘श्री 420’, उसमें आवाम को ठगने के लिए मात्र सौ रुपयों में मकान देने की योजना का प्रचार होता है। नायक इसके पीछे के ठगों की पोल खोल देता है और आम लोगों से कहता है कि उनके द्वारा जमा किया गया धन वे सरकार को दें। साधनहीन व्यक्ति का सपना है कि उसका एक घर हो।

हमारे देश में हजारों एकड़ जमीन है। सरकार साधनहीन लोगों को साधन और अवसर दे सकती है ताकि वे अपने परिश्रम से मकान बनाएं। महानगरों की मकान योजना के तहत मकान जिन्हें आवंटित किए गए, उन्होंने मकान किराए से दिए और स्वयं झोंपड़पट्टी में रहना जारी रखा। फिल्म ‘नायक’ में एक दिन के लिए बना मुख्यमंत्री इसकी पोल खोल देता है। देश की असली शक्ति उसके नागरिक का चरित्र है। राजनीतिक शत्रु को सबक सिखाने के लिए अवैध निर्माण का मसला उठाना तर्कसंगत नहीं लगता है। देश में और भी मसले हैं जिन पर अवश्य ही विचार किया जाना चाहिए।


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