हठधर्मिता तर्कहीन

By: श्रीश्री रवि शंकर Sep 26th, 2020 12:20 am

श्रीश्री रवि शंकर

यद्यपि ईश्वर निराकार है, लेकिन किसी को आनंद मिलता है, तो ईश्वर को मूर्ति रूप मानने में कोई बुराई नहीं है। देवत्व से जुड़ा हुआ भाव ही मायने रखता है और अगर कोई एक विशेष रूप या मूर्ति के माध्यम से भावपूर्ण संबंध का अनुभव करता है, तो ऐसा करने के लिए उसकी आलोचना करना अनुचित है…

जीवन अगाध है, लेकिन लोग अपने विभिन्न दृष्टिकोणों से इसकी गहराई नापने का प्रयास करते हैं। इतनी व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक  विविधता पूर्ण आस्थाओं के साथ जीवन भारत के सिवा इतने स्पष्ट रूप में और कहीं भी नहीं मिलेगा। जब सभी को संविधान द्वारा अभिव्यक्ति स्वतंत्रा प्रदान की गई है, तो हिंसा इसे व्यक्त करने का माध्यम बिलकुल नहीं है। जो कोई भी अपनी असहमति को हिंसा द्वारा व्यक्त करता है, वह केवल  कायरता को ही प्रकट करता है। हमारे देश में अलग-अलग दृष्टिकोण का हमेशा स्वागत किया गया है और इन्हीं से हमारी संस्कृति को एक अनूठी समृद्धि प्राप्त हुई है।

भक्ति सूत्र विभिन्न संतों के विचारों को प्रस्तुत करता है और सभी का आदर भी करता है। जिस तरह से असहमति और संघर्ष को हल किया जाता है, उसी से उस समाज की सुशीलता या सभ्यता का पता चलता है। सत्य इतना विशाल है कि अकेले एक परिप्रेक्ष्य में इसे शामिल नहीं कर सकते है। इसमें अंगभूत अनेक तर्क एक दूसरे के साथ विरोधी प्रतीत हो सकते है। यही कारण है कि भगवद गीता विरोधाभासों से भरी हुई है। इसलिए बुद्धिमान लोग विभिन्न दृष्टिकोण होने की अपेक्षा भी एक ही बिंदु, तथ्य पर एकाग्र होते हैं। शायद जितना हम ज्यादा जानने लगते हैं, उतना ही ज्यादा हमें अनुभूति होती है कि हम कुछ भी नहीं जानते। हर किसी को जैसे चाहे वैसे अपने आपको अभिव्यक्त करने का अधिकार है, लेकिन अपने अभिव्यक्ति स्वतंत्रता की आड़ में लोगों की भावनाओं को आहत करना उचित नहीं है।

यद्यपि ईश्वर निराकार है, लेकिन किसी को आनंद मिलता है, तो ईश्वर को मूर्ति रूप मानने में कोई बुराई नहीं है। देवत्व से जुड़ा हुआ भाव ही मायने रखता है और अगर कोई एक विशेष रूप या मूर्ति के माध्यम से भावपूर्ण संबंध का अनुभव करता है, तो ऐसा करने के लिए उसकी आलोचना करना अनुचित है। एक तर्कसंगत दृष्टिकोण से, मूर्तियों और अनुष्ठानों का कोई अर्थ नहीं है, लेकिन कईयों के लिए, यह आत्मा के उत्थान मार्ग है। तो समझें कि अगर मूर्ति में देवत्व नहीं, तो देवत्व भक्त के उस भाव में तो है, जो मूर्ति की वजह से उसमें उत्पन्न होता है। हर एक स्तर की समझ और बोध के लोग यहां हैं और हमारी प्राचीन संस्कृति की उदारता यह है कि वह प्रत्येक को, चाहे वो किसी भी स्तर पर हो, अपनाती है। क्या सही है और क्या गलत है, इस पर संकुचित मानसिकता होना ही धर्मांधता है। यहां तक कि तर्कसंगत विचार भी यदि कोठरी में बंद कर दें, तो वह धर्मांधता की ओर ले जा सकते हैं और तर्कहीन विचार भी अगर मुक्त और निष्कपट हों, तो सत्य की ओर ले जाते हैं।


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