ईश्वर में विश्वास

By: श्रीराम शर्मा Sep 19th, 2020 12:20 am

ईश्वर के अस्तित्व को संसार के प्रायः सभी धर्मों में स्वीकार किया गया है और उसकी शक्तियां एक जैसी मानी गईं हैं। उपासना, पूजा विधि और मान्यताओं में थोड़ा-बहुत अंतर हो सकता है और समाज की विकृत अवस्था का उन मान्यताओं पर बुरा असर भी हो सकता है, जिससे किसी भी धर्म के लोग नास्तिक जैसे जान पडं़े पर सामाजिक एकता, संगठन, सहयोग, सहानुभूति आदि अनेक सद्प्रवृत्तियां तो उन जातियों में भी स्पष्ट देखी जा सकती हैं। जो जातियां ईश्वर के प्रति अधिक निष्ठावान होती हैं उनमें आत्मविश्वास, कर्त्तव्यपरायणता, त्याग, उदारता आदि भव्य गुणों का प्रादुर्भाव भी देखा जा सकता है। ईश्वर में विश्वास का वैज्ञानिक आधार समझ में न आए तो भी मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी इतना महत्त्वपूर्ण होता है कि सामाजिक जीवन में सभ्यता और सदाचार की पर्याप्त मात्रा बनी रहती है और उससे जातियों के जीवन सुविकसित, सुखी और संपन्न बने रहते हैं। भारत की आदि संस्कृति और यहां की प्राचीन प्रणाली की गहन गवेषणा पर उतरें तो यहां की संपूर्ण संपन्नता, वैभव और ऐश्वर्य, सुख-संपत्ति और व्यापार आदि में समुन्नति, व्यक्तिगत जीवन में गुण और चरित्र निष्ठा आदि का मुख्य कारण यहां पर ईश्वर के प्रति अगाध आस्था को ही माना जा सकता है।

इस विश्वास के ठोस तर्क और प्रमाण भी थे जो आज भी हैं, किंतु उन दिनों लोग उन तर्कों पर गंभीरतापूर्वक विचार और विवेचन करते थे, ज्ञान की साधना के आधार पर यहां का बच्चा-बच्चा उस परमतत्त्व के प्रति अटूट भक्ति रखता था, उसे सर्वज्ञ, सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान मानते थे। फलस्वरूप उनके आचरण भी उतने सुंदर थे। अधर्म और पापाचार की बात मन में लाते हुए भी उन्हें डर होता है। उन दिनों भारत भूमि स्वर्ग तुल्य रही हो, तो इसमें आश्चर्य की कौन सी बात। धर्मशील के पास संपदाओं की क्या कमी।

स्वर्ग का महत्त्व भी तो इसी दृष्टि से है कि वहां किसी प्रकार का भाव नहीं है। आज भौतिक विज्ञान का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेने के कारण लोग ईश्वर के अस्तित्व को मानने से इनकार करने लगे। इतना ही नहीं वह धर्म और अध्यात्म की हंसी भी उड़ाते हैं। उनकी किसी भी बात में न तो विचार की गहराई होती है और न बौद्धिक चिंतन। हमारा आज का समाज इतना हल्का है कि वह विचारों की छिछली तह पर ही इतरा कर रह गया है। आत्मिक ज्ञान और संसार के वास्तविक सत्य को जाने बिना मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण ही कहा जा सकता है। जिसे अपने आपका ज्ञान न हो जो केवल अपने शरीर, हाड़, मांस, रक्त, मुंह, नाक, कान, हाथ आदि की बात तो सोचे, पर प्राण तत्त्व के संबंध में जिसको कुछ भी न मालूम हो उसके भौतिक विज्ञान के ज्ञान को पागलों की सी ही बातें ठहराई जा सकती हैं। सामाजिक जीवन में सत्यता और पवित्रता अक्षुण्ण रखने के लिए आस्तिकता एक महत्त्वपूर्ण उपचार सिद्ध हुआ। ईश्वर की सर्वज्ञता पर जिसे विश्वास होगा उसे उसकी न्यायप्रियता पर भी भरोसा होगा और वह ऐसा कोई भी कार्य करने से जरूर डरेगा, जिससे मानवीय सिद्धांतों का हनन होता हो।


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