किसानों पर गांधी के विचार: डा. वरिंदर भाटिया, कालेज प्रिंसिपल

By: डा. वरिंदर भाटिया, कालेज प्रिंसिपल Sep 30th, 2020 7:30 am

डा. वरिंदर भाटिया

कालेज प्रिंसिपल

ऐसा नहीं है कि अपने जीवन के अंतिम वर्षों में ही गांधी किसानों के बारे में ऐसा विचार रखने लगे थे, बल्कि आज किसानों में जितना असंतोष है उसकी परिणति क्या हो सकती है, इसकी चेतावनी बहुत पहले गांधी ने दे दी थी। हालांकि यह बात उन्होंने जमींदारी के दौर में लिखी थी, लेकिन किसानों की स्थिति आज भी उससे बहुत अलग नहीं है। पांच दिसंबर 1929 को ‘यंग इंडिया’ में वह लिखते हैं, ‘…असल बात यह है कि (किसानों के लिए) कितना भी किया जाए, वह किसानों को उनका वाजिब हक देर से देने के सिवाय और कुछ नहीं है।’ महात्मा गांधी ने आगे लिखा था, ‘इस समय धनिकवर्ग के सर्वथा अनावश्यक दिखावे और फिजूलखर्ची तथा जिन किसानों के बीच वे रहते हैं, उनके गंदगी से भरे वातावरण और पीस डालने वाले दारिद्रय के बीच कोई अनुपात नहीं है…’

देश के कुछ हिस्सों में किसान केंद्र द्वारा पास किए गए विधेयकों को लेकर गहन चिंतन में हैं। इन विधेयकों को लेकर तर्क-वितर्क और बहस जारी है। गांधी जयंती पर किसानों और किसानी के बारे में राष्ट्रपिता का क्या नजरिया था, यह समझना अत्यंत सामयिक और महत्त्वपूर्ण है। विचारणीय होगा कि बीते अरसे में किसानों की असहजता को लेकर गांधी ने जो चेतावनी दी थी, क्या आज हम उसी का सामना कर रहे हैं? आजाद भारत की सत्ता में किसानों की भागीदारी की वकालत करने वाले महात्मा गांधी ने अपनी मृत्यु से एक दिन पहले तक कहा था कि भारत का प्रधानमंत्री एक किसान होना चाहिए।  आधुनिक भारत में संगठित किसान आंदोलन के जनकों में से एक प्रोफेसर एनजी रंगा स्वयं एक किसान के बेटे थे। उन्होंने गुंटूर के ग्रामीण विद्यालय से लेकर ऑक्सफोर्ड तक में अर्थशास्त्र की पढ़ाई की थी और वह गांधी से बेहद प्रभावित थे। गांधी से मिलते तो सवालों की झड़ी लगा देते थे और कई बार लंबी-लंबी प्रश्नावली पहले से लिखकर उन्हें सौंप देते थे।

1944 में जब गांधी जेल से रिहा हुए तो प्रोफेसर रंगा किसानी पर अपने सवालों की लंबी फेहरिस्त के साथ गांधी से मिलने जा पहुंचे। 29 अक्तूबर 1944 को हुई इस मुलाकात में रंगा का पहला ही सवाल बहुत पैना था, ‘आप कहते हैं कि न्याय की दृष्टि से धरती किसानों की है या होनी चाहिए, लेकिन इसका अर्थ केवल अपनी जोत की जमीन पर नियंत्रण होना है या जिस राज्य में वह रहता है उस पर उसे राजनीतिक सत्ता प्राप्त होना भी है? क्योंकि यदि किसानों के पास केवल जमीन होगी और राजनीतिक सत्ता नहीं होगी तो उनकी स्थिति उतनी ही खराब होगी जितनी सोवियत रूस में है। वहां राजनीतिक सत्ता पर तो तानाशाही ने अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया, लेकिन भूमि के सामूहिकीकरण के नाम पर किसान जमीन पर अपने अधिकार से हाथ धो बैठे।’ गांधी जी ने जवाब दिया, ‘मुझे पता नहीं कि सोवियत रूस में क्या हुआ है, लेकिन मुझे इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि यदि हमारे यहां लोकतांत्रिक स्वराज्य हुआ और अहिंसक तरीकों से आजादी हासिल करने पर ऐसा होगा ही, तो उसमें किसानों के पास राजनीतिक सत्ता के साथ ही हर किस्म की सत्ता होनी ही चाहिए।’

नवंबर 1947 में किसी ने गांधी जी को चिट्ठी लिखकर कहा कि भारत के तत्कालीन मंत्रिमंडल में कम से कम एक किसान तो होना ही चाहिए। इसके जवाब में 26 नवंबर 1947 की प्रार्थना-सभा में महात्मा गांधी का कहना था, ‘हमारे दुर्भाग्य से हमारा एक भी मंत्री किसान नहीं है। सरदार पटेल जन्म से तो किसान हैं, खेती के बारे में समझ रखते हैं, मगर उनका पेशा बैरिस्टरी का था। जवाहर लाल जी विद्वान हैं, बड़े लेखक हैं, मगर वह खेती के बारे में क्या समझें! हमारे देश में 80 फीसदी से ज्यादा जनता किसान है। सच्चे प्रजातंत्र में हमारे यहां राज किसानों का होना चाहिए। उन्हें बैरिस्टर बनने की जरूरत नहीं। अच्छे किसान बनना, उपज बढ़ाना, जमीन को कैसे ताजी रखना, यह सब जानना उनका काम है। ऐसे योग्य किसान होंगे तो मैं जवाहर लाल जी से कहूंगा कि आप उनके सेक्रेटरी बन जाइए। हमारा किसान-मंत्री महलों में नहीं रहेगा। वह तो मिट्टी के घर में रहेगा, दिनभर खेतों में काम करेगा, तभी योग्य किसानों का राज हो सकता है।’ अपनी मृत्यु से ठीक एक दिन पहले यानी 29 जनवरी 1948 की प्रार्थना सभा में गांधी का कहना था, ‘मेरी चले तो हमारा गवर्नर-जनरल किसान होगा, हमारा बड़ा वजीर किसान होगा, सब कुछ किसान होगा, क्योंकि यहां का राजा किसान है। मुझे बचपन से एक कविता सिखाई गई, ‘हे किसान, तू बादशाह है।’ किसान जमीन से पैदा न करे तो हम क्या खाएंगे? हिंदुस्तान का सचमुच राजा तो वही है। लेकिन आज हम उसे गुलाम बनाकर बैठे हैं। आज किसान क्या करे? एमए बने, बीए बने, ऐसा किया तो किसान मिट जाएगा। पीछे वह कुदाली नहीं चलाएगा। किसान प्रधान (प्रधानमंत्री) बने तो हिंदुस्तान की शक्ल बदल जाएगी। आज जो सड़ा-पड़ा है, वह नहीं रहेगा।’

ऐसा नहीं है कि अपने जीवन के अंतिम वर्षों में ही गांधी किसानों के बारे में ऐसा विचार रखने लगे थे, बल्कि आज किसानों में जितना असंतोष है उसकी परिणति क्या हो सकती है, इसकी चेतावनी बहुत पहले गांधी ने दे दी थी। हालांकि यह बात उन्होंने जमींदारी के दौर में लिखी थी, लेकिन किसानों की स्थिति आज भी उससे बहुत अलग नहीं है। पांच दिसंबर 1929 को ‘यंग इंडिया’ में वह लिखते हैं, ‘…असल बात यह है कि (किसानों के लिए) कितना भी किया जाए, वह किसानों को उनका वाजिब हक देर से देने के सिवाय और कुछ नहीं है।’ महात्मा गांधी ने आगे लिखा था, ‘इस समय धनिकवर्ग के सर्वथा अनावश्यक दिखावे और फिजूलखर्ची तथा जिन किसानों के बीच वे रहते हैं, उनके गंदगी से भरे वातावरण और पीस डालने वाले दारिद्रय के बीच कोई अनुपात नहीं है। इसलिए (धनिकवर्ग को चाहिए कि वह) किसानों के जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए स्वयं अपने को दरिद्र बना ले। वह अपने संरक्षित किसानों की आर्थिक स्थिति का अध्ययन करे और ऐसे विद्यालय खोले जिनमें किसानों के बच्चों के साथ-साथ वह अपने खुद के बच्चों को भी पढ़ाए। …जो गैर-जरूरी इमारतें वह अपनी मौज के लिए रखता है, उनका उपयोग अस्पताल, स्कूल या ऐसी ही बातों के लिए करे।’

यह लिखा था गांधी जी ने आज से लगभग कई दशक पहले, लेकिन यदि आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और रहन-सहन के मामले में दलितों, आदिवासियों और किसानों के एक बड़े हिस्से की तुलना देश के अन्य वर्गों के साथ की जाए तो स्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं हुआ है। बल्कि कई मामलों में तो यह खाई चौड़ी ही होती जा रही है। इस समय देश के किसानों के कल्याण हेतु तुच्छ स्वार्थों से ऊपर उठ कर काम करने की जरूरत है। इस गांधी जयंती पर राष्ट्रपिता को याद करने का इससे बेहतर तरीका और क्या होगा। सरकार को किसानों की मांगों को अविलंब मान लेना चाहिए। किसान एक ऐसा वर्ग है, जो विपन्नता की स्थिति में जीता है। उसकी आय को दोगुना करने का सपना तभी सार्थक होगा, जब हम एमएसपी तथा अन्य मांगों के संबंध में त्वरित फैसला लेंगे।

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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