पहाड़ को चीरतीं खड्डें

By: सूत्रधार - शकील कुरैशी, मोहिंद्र नेगी, नरेन कुमार, अजय ठाकुर, मोहर सिंह पुजारी, सुरेंद्र ममटा Sep 9th, 2020 1:15 pm

बरसात आती नहीं कि हिमाचल की नींद हराम हो जाती है। हो भी क्यों न…देवभूमि की खड्डें-नाले जब उफान पर आते हैं, तो कोई कसर नहीं छोड़ते। अब तक न जाने कितनी ही ज़िदगियां लील चुकी यें डरावनी खड्डें करोड़ों भी बहा ले गई हैं। हर  हिमाचली का सुख-चैन छीनने वाली बरसात में किस तरह मचाती हैं कहर…अब तक दे चुकी हैं कितने जख्म….कहां तक पहुंची इनकी चैनेलाइजेशन…इन सवालों के साथ पेश है इस बार का दखल…

कुल्लू के लिए तो पागल नाला ही काफी

जिला कुल्लू में खड्ड, नदी-नालें बरसात में रौद्र रूप में बहते हैं। ग्रामीण जान जोखिम में डालकर नदी-नाले आर-पार करते आ रहे हैं। सरकार, प्रशासन, पंचायतें, नेता सब खामोश हैं। हैरानी की बात यह है कि अभी तक सितंबर, 2018 में आई बाढ़ के जख्म भी नहीं भर पाए हैं।  सितंबर, 2018 में घराटनाला-खनौडनाला में आई भयंकर बाढ़ की भेंट पुंथल पंचायत के गांवों को जोड़ने वाले दो पुल चढ़ गए हैं।   लकड़ी के तीन पीस लगाकर खड्ड के ऊपर आने-जाने के लिए एक अस्थायी इंतजाम किया गया है, जो कभी भी खतरनाक हो सकता है। सैंज घाटी की 14 पंचायतों के लोगों को पागल नाले ने 1990 के दशक से लेकर अब तक परेशान किया है। अब तो यहां और खतरा उत्पन्न हो गया है। जैसे ही थोड़ी सी बारिश भी होती है, तो पागल नाले में भारी मलबा आने से घाटी का संपर्क काफी देर तक कट जाता है। मार्ग पर भारी मलबा आ जाता है। यहां की गंभीर समस्या से सरकार, नेता, प्रशासन और एनएचपीसी अवगत हैं, लेकिन इसके बावजूद अभी तक कोई हल नहीं ढूंढा गया है। सितंबर, 2018 में मानगढ़ पंचायत के तहत आने वाली खड्ड में आई भयंकर बाढ़ में स्थायी पुल बह गया है। अब वहां अस्थायी पुल लगाया गया है। यहां लोग जान जोखिम में डालकर पुल    पार कर रहे हैं।

ब्यास का तटीकरण हवा हवाई

कुल्लू के बंजार की ग्राम पंचायत कंडीधार के बाड़ीरोपा नामक स्थान पर तीर्थन नदी का पानी बरसात में रौद्र रूप धारण करता है। यहां एक झूले के सहारे लोग नदी आर-पार करते हैं। हैरानी की बात यह है कि यहां स्थायी पुल का निर्माण अधर में लटका हुआ है। यहां बीते दिनों एक महिला अपनी जान नदी में गिरने से गंवा चुकी है। इससे पहले एक बच्चा नदी में समा गया है। जिला कुल्लू में ब्यास नदी के तटीकरण की योजना भी एक-डेढ़ दशक से हवा-हवाई साबित हुई है। तटीकरण को लेकर सरकारें घोषणाएं ही करती आई हैं। धरातल पर हालात कुछ और ही बयां कर रहे हैं।

जब उफान पर आती हैं …कांगड़ा की खड्डें….

कांगड़ा घाटी की अधिकतर खड्डें व नाले गहरे हैं। बरसात के दिनों में इन नालों का लोगों में खौफ रहता है। भारी बरसात के दौरान जब यह अपना रौद्र रूप दिखाते हैं, तो आसपास बसे लोगों के लिए मुसीबत बन जाती हैं। जिला की प्रत्येक खड्डें व नाले दर्जनों गांवों से होकर गुजरते हैं। मांझी, मनूणी, चरान, बनेर, छौंछ खड्ड, गज्ज, न्यूगल, बिनबा, खौली, ईक्कू, चंबी, कोटला सहित दर्जनों खड्डें ऐसी हैं, जो बरसात में जब अपना रौद्र रूप दिखाती हैं। जिला कांगड़ा के विभिन्न उपमंडलों के तहत भी बरसात में अचानक रौद्र रूप धरकर नुकसान पहुंचाने वाले खड्ड-नालों की सूची भी लंबी है। नूरपुर क्षेत्र में चक्की खड्ड का नाम भी इसी सूची में शामिल है। अवैध खनन के चलते चक्की खड्ड अब नुकसान पहुंचाने को भी अमादा हो चुकी है। वहीं, देहरा में आठ से 11 खड्डें-नाले ऐसे हैं, जो हर बरसात में नुकसान पहुंचाते हैं। इस क्षेत्र में नकेड़ खड्ड, ढलियारा खड्ड, नक्की खड्ड तथा खप्पर नाला प्रमुख हैं। अचानक से इनमें आने वाले पानी के तेज बहाव के चलते जानमाल का भी नुकसान होता है। इसी तरह पालमपुर की न्यूगल खड्ड पिछले साल से अपने रौद्र रुप में आने के बाद करोड़ों रुपए की राशि को नुकसान पहुंचा चुकी है। इस खड्ड के पास बना सौरभ वन विहार इस खड्ड के रौद्र रूप की भेंट चढ़ चुका है। इसी तरह क्षेत्र में मौल खड्ड भी कई बार अपनी सीमा से बाहर निकलकर लोगों को डराती है। जिला के जयसिंहपुर क्षेत्र में मुख्य रूप से ब्यास नदी बरसात में अपने तटों के पास बने रिहायशी क्षेत्रों को दहशत में डाल देती है। इसके अलावा इस क्षेत्र में सकाड़ खड्ड, मंद खड्ड तथा हड़ोटी खड्ड भी बरसात के दिनों में लोगों को डराती है। नूरपुर की जब्बर खड्ड भी खूब कहर बरपाती है।

यहां होते हैं कई हादसे

धर्मशाला के घेरा-करेरी रोड में बरसाती नाला हर वर्ष तबाही मचा रहा है। यहां घेरा नाले में मुख्य सड़क मार्ग में कॉज-वे बनाया गया है, जिसमें बरसात के दिनों में कई हादसे होते रहते हैं। इसमें चार वर्ष पहले नाले में गाड़ी के बह जाने से भी व्यक्ति को जिंदगी से हाथ धोने पड़े थे। इसके साथ ही हर बरसात में यहां के हज़ारों लोग अपना जीवन खतरे में डालकर ही जीवन बसर करने को मजबूर हैं।

तटीकरण की फिलहाल योजना नहीं

जिला कांगड़ा में खड्डों व नालों का तटीकरण किए जाने की योजनाएं सुचारू रूप से अब तक बन ही नहीं पाई हैं। दुर्भाग्य की बात है कि खतरनाक होने वाली इन खड्डों व नालों के तटीकरण को कोई भी नेता व विभाग ज़मीनी स्तर पर कार्य कर योजना नहीं बनाई गई है। हालांकि मात्र छौंछ खड्ड के तटीकरण को लेकर योजना बनाई गई है और इस पर कार्य चल रहा है। इसके अलावा जिला कांगड़ा में जयसिंहपुर व देहरा क्षेत्र में ब्यास नदी बहती है, इस पर भी अभी तक कोई तटीकरण की योजना नहीं है। वहीं जिला कांगड़ा में ही पौंग बांध है, जिसमें भी अधिक पानी भरने पर लोगों को खतरा बना रहता है।

सोलन की खतरनाक बरसात

सोलन जिला में बरसात का मौसम लोगों के लिए आफत लेकर आता है। विशेषकर उन लोगों के लिए जो या तो नदी या खड्ड के किनारे रहते हैं या फिर जिनकी जमीन बहती नदियों व खड्ड के किनारों पर है। यूं भी कहा जा सकता है कि ये नदियां और खड्डें बरसात में ही सबसे ज्यादा खतरनाक हो जाती हैं। सर्वप्रथम परवाणू के पास जोहड़जी से निकलने वाली कौशल्या खड्ड की बात करें, तो यह हर वर्ष कहर बरपाती है।

खड्ड का उद्गम स्थल कसौली विधानसभा के क्षेत्र जोहड़जी से माना जाता है। खड्ड भोजनगर, जाबली, चम्मो, बनासर टकसाल पंचायत को छूती हुई कई किलोमीटर बहकर अंत में हरियाणा में प्रवेश कर जाती है। वर्ष भर सूखी रहने वाली यह खड्ड वर्षा ऋतु होते ही साथ लगते पंचायत क्षेत्र की कई खड्डों के बरसाती पानी को बहाकर खड्ड को लबालब भर देती है, जिससे ग्रामीण इसके किनारे धान सहित नकदी फसलें लगाते हैं और लोगों को अपने घर और कार्यस्थल पर आने-जाने के लिए इसे पार कर अपने गंतव्य तक पहुंचते हैं। 2007 में दत्यार गांव के साथ लगते ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले स्कूली बच्चों को स्कूल जाते समय बरसात के पानी से भरे खड्ड को पार करते हुए हाथ छूटने से बह जाने से अपनी जान भी गंवानी पड़ी थी।

वहीं, कई बार इसमें अत्यधिक बहकर आने वाला बरसाती पानी साथ लगती कृषि योग्य भूमि को नुकसान पहुंचाती है। दूसरी तरफ दाड़लाघाट में कई ऐसे नाले हैं, जो बरसात के दिनों में पूरे उफान के साथ बहते हैं और दुकानों व घरों में घुसकर लोगों की संपत्ति को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। इन नालों में बड्ढर नामक नाला जो बाड़ी की धार से सरयांज होता हुआ बरसात में लोगों की जमीन से फसलें व कई बार तो खेतों को भी बहाकर ले जाता है। स्केड नामक नाला जो धुंदन पंचायत के ऐर से प्रारंभ होकर नीचे बड्ढर में ही समा जाता है।

कटरालू नाला और अश्वनी खड्ड मचाते हैं जब कहर

दाड़लाघाट पंचायत में कटरालू नाला, जो कोटला गांव से शुरू होता है। दाड़ला बाजार से गुजरता हुआ ग्याणा वाली नदी में समा जाता है। यह नाला बरसात के दिनों में इसके साथ वाली दुकानों के अंदर घुसकर कुछ सालों से लगातार दुकानदारों का काफी नुकसान करता है। इसके अतिरिक्त अश्वनी खड्ड भी बरसात में पूरे यौवन पर होती है। इस खड्ड किनारे फसलों एवं खेतों को नुकसान पहुंचाते हुए कल-कल करती हुई आगे बहती रहती है।

स्वांः रीवर ऑफ सॉरो नहीं, रीवर ऑफ वैल्थ

जिला ऊना में रीवर ऑफ सॉरो के नाम से विख्यात स्वां नदी को अब अगर रीवर ऑफ वैल्थ के नाम से जाना जाने लगा है, तो इसका श्रेय कहीं न कहीं जलशक्ति विभाग के मुख्य अभियंता एनएम सैनी को जाता है। उन्होंने न सिर्फ अधिशाषी अभियंता रहते हुए इस नदी के तटीकरण के लिए दिल्ली में जाकर मैनेजमेंट करने में अहम रोल अदा किया, बल्कि अपने हाथों से इस नदी के तटीकरण का काम भी करवाया। इस नदी की सहायक खड्डों के लिए 922 करोड़ रुपए की परियोजना को स्वीकृति दिलाने में भी उनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता। यही वजह है कि उन्हें अब फ्लड मैन की संज्ञा दी जाती है।

किन्नौर में नाम की बारिश

जनजातीय जिला किन्नौर में अधिकांश भाग में बरसात नाममात्र रहती है। बीते कुछ सालों से यहां यह देखा जा रहा है कि गर्मियों के दिनों में ऊंची पहाडि़यों पर तेजी से बर्फ पिघलने से नदी-नालों का जलस्तर बढ़ने से तटवर्तीय क्षेत्रों में भारी भूमि कटाव हो रहा है। जिला में मुख्य रूप से रकछम गांव के निकट खोरोगला नाला, सांगला गांव में टोगटोंचे नाला, रिब्बा में रालढंग नाला, रिस्पा होलडो नाला, रुनंग व मीरु गांव के बीच राजालो, मीरु व युल्ला गांव के बीच युल्ला खड्ड, टापरी के पास दुलिंग खड्ड, ब्रुआ गांव के साथ बहने वाले नाले में भी कई बार बाढ़ आने से तटवर्तीय क्षेत्रों में भारी भूमि कटाव के साथ ग्रामीणों के खेत खलियानों को खासा नुकसान होता है। इन क्षेत्रों में भूमि कटाव को रोकने के लिए संबंधित विभागों द्वारा किए गए अब तक के प्रयासों को नाकाफी माना जा रहा है।

खोरोगला नाला करता है बड़ा नुकसान

किन्नौर की दो प्रमुख नदियां हैं… सतलुज और बास्पा। सतलुज नदी तिब्बत से होते हुए किन्नौर जिला के खाब नामक स्थान पर प्रवेश कर चोरा के पास शिमला व कुल्लू जिला में प्रवेश करती है। इस बीच किन्नौर जिला के सभी छोटे नदी-नाले सतलुज नदी में समा जाते हैं। यहां तक कि किन्नौर जिला के छितकुल की पहाडि़यों से निकलने वाली बास्पा नदी भी किन्नौर जिला के रकछम, बटसेरी, सांगला, चांसु, शोंगे व ब्रुआ होते हुए करछम नामक स्थान पर सतलुज नदी में विलय हो जाती है। बास्पा नदी के अंतर्गत आने वाले खोरोगला नाला सहित टोगटोंचे नाला में भी आने वाला बाढ़ भी इसी बास्पा नदी में विलय हो जाता है। बीते कुछ वर्षों से देखा जा रहा है कि खोरोगला नाला में हर वर्ष बाढ़ आने से बटसेरी गांव के पास ग्रामीणों के सेब के बागीचों को भारी नुकसान हो रहा है।

1988 में बरपा था कहर अब बाढ़ के खतरे से बाहर है ऊना शहर

जीवन के 70 सावन देख चुके विधानसभा क्षेत्र गगरेट की ग्राम पंचायत कलोह के बेली मोहल्ले के मंगतराम अब भी वर्ष 1988 के बरसात के मौसम को याद करते हुए सिहर उठते हैं। कंपकंपाते होठों से बताते हैं कि किस तरह उस समय लगातार चार दिन अंबर से बरसाती पानी कहर बनकर टूटा और गगरेट खड्ड ने अपना रुख बेली मोहल्ले की ओर कर लिया। उफनती स्वां नदी व इसकी सहायक खड्डें जिधर से भी गुजरी, तो अपने पीछे तबाही के निशान छोड़ती चली गईं।

कई लोग बेघर हो गए, तो सैकड़ों कनाल उपजाऊ भूमि खड्ड में तबदील हो गई। उन दिनों जिन लोगों की मौत हुई, उनकी अस्थियां तक एकत्रित करने का मौका नहीं मिला। लगता यही था कि तबाही मचाने वाली स्वां नदी व इसकी सहायक खड्डें यूं ही गहरे जख्म देती रहेंगी, लेकिन अब जिला ऊना प्रदेश का ही नहीं, बल्कि देश का ऐसा जिला बनने जा रहा है, जो बाढ़ के खतरे से पूर्णतयः महफूज होगा। जिले को दो हिस्सों में बांटने वाली स्वां नदी को कभी रिवर ऑफ सोरो के नाम से भी जाना जाता था। अमूमन शांत दिखने वाली स्वां नदी व इसकी सहायक खड्डें बरसात का मौसम आते ही ऐसा रौद्र रूप दिखाती हैं कि कई लोग इसकी आगोश में समा गए। विकास के स्थापित किए गए कई निशान बर्बादी के निशान बन गए।

स्वां नदी के किनारे स्थित उपजाऊ भूमि हर साल होने वाले भूमि कटाव के चलते बंजर भूमि में तबदील हो गई और तब इसके तटीकरण की जरूरत महसूस होने लगी। हालांकि कोई सोच भी नहीं सकता था कि करीब-करीब 72 किलोमीटर के क्षेत्र में जिला ऊना में फैली इस नदी के नथुने कभी कसे जा सकेंगे, लेकिन जब वर्ष 2000 में इसके प्रथम चरण का शुभारंभ हुआ, तो एक नई कल्पना ने जन्म लिया।

स्वां में 65 किलोमीटर तक चैनेलाइजेशन

नदी के करीब 65 किलोमीटर लंबे क्षेत्र का तटीकरण किया जा चुका है, जो कि सतलुज नदी में जाकर समाहित होता है। इसकी 55 सहायक खड्डों के तटीकरण का कार्य भी पूरा किया जा चुका है। ऊना में स्वां नदी व इसकी सहायक खड्डों के तटीकरण पर अब तक करीब 1200 रुपए खर्च किए जा चुके हैं और करीब साढ़े पंद्रह हजार बंजर भूमि को री-क्लेम कर फिर हरा-भरा बनाया जा सका है। हालांकि अभी भी ब्यास नदी में समाहित होने वाली इस नदी के करीब साढ़े सात किलोमीटर लंबे हिस्से का तटीकरण करने के साथ इसकी सहायक ग्यारह खड्डों के तटीकरण का कार्य होना बाकी है, जिसकी करीब 276 करोड़ रुपए की विस्तृत परियोजना रिपोर्ट स्वीकृति के लिए केंद्र सरकार को भेजी जा चुकी है। स्वां नदी व इसकी सहायक 55 खड्डों के तटीकरण के बाद करीब साढ़े पंद्रह हजार हेक्टेयर भूमि को री-क्लेम किया जा सका है।

प्रदेश में 400 खनिज पट्टे लीज पर

हिमाचल प्रदेश की खड्डों में अथाह खनिज विद्यमान है, जिसका लगतार दोहन किया जा रहा है, मगर यह दोहन अवैध रूप से ज्यादा और वैद्य रूप से कम हो रहा है। हालांकि कुछ सालों से प्रदेश में परिस्थितियां बदली हैं और सरकार ने खनिजों के दोहन को कानूनी दायरे में लाया है, जिसका असर भी देखने को मिल रहा है, परंतु अभी भी अवैध खनन रुक नहीं सका है।

प्रदेश सरकार के उद्योग विभाग के खनन विंग ने राज्य में अब तक 400 खनिज पट्टे लीज पर दे रखे हैं, जिनसे सरकार को आमदनी हो रही है। वहीं, 200 ऐसे खनिज पट्टे हैं, जिनकी नीलामी की गई है, लेकिन इन पर काम शुरू नहीं हो सका है। ये मामले या तो केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के पास फंसे हुए हैं या फिर स्थानीय स्तर पर पंचायतों की अनुमति नहीं मिल पा रही है। 140 नए खनन पट्टे अभी डिमार्केशन के इंतजार में हैं, जो कि नए सिरे से दिए जाने हैं। इनकी राजस्व विभाग डिमार्केशन नहीं करवा सका है।

बता दें कि हिमाचल प्रदेश में फोरेस्ट कंजरवेशन एक्ट लगभग पूरे प्रदेश में खनन पट्टों को प्रभावित करता है। खासकर  सिरमौर, सोलन, बिलासपुर व शिमला जिला में  फोरेस्ट कंजरवेशन एक्ट प्रभावी होने से कई खड्डों की नीलामी नहीं हो पा रही है। ऊना व हमीरपुर में भी कुछ एरिया में यह प्रभावी होता है, परंतु वहां ऐसे खनन पट्टे दिए गए हैं। फोरेस्ट की मंजूरी लीज धारक को स्वयं लेनी पड़ती है और ऐसे अनगिनत मामले फंस चुके हैं। राज्य सरकार को खनिज से पिछले साल 250 करोड़ रुपए की आमदनी होने का अनुमान है। वैसे 400 करोड़ का आकलन रखा गया था लेकिन यह आंकड़ा नहीं छुआ जा सका। वित्त वर्ष के अंत में कोविड के कारण कई खड्डों की नीलामी नहीं हो सकी, जिससे नुकसान हुआ है।

हमीरपुर-कांगड़ा में अभी नीलाम होनी हैं खड्डें

अभी भी हमीरपुर व कांगड़ा जिला में खड्डों की नीलामी का काम किया जाना है। बता दें कि खड्डों में अवैध खनन सबसे अधिक सीमाई क्षेत्रों में है, जहां दूसरे राज्यों से लोग आकर हिमाचल से रेत व बजरी ले जाते हैं। एक बड़ा माफिया इसे लेकर  सक्रिय है, जिसे रोकने के लिए सरकार ने कानूनी रूप से नीलामी करने की योजना चला रखी है। इसके साथ 39 अधिकारियों को शक्तियां दी गई हैं, जो चालान कर सकते हैं।

सरकार ने ऊना से की चैकपोस्ट की शुरुआत

वर्तमान सरकार ने ऊना जिला से चैकपोस्ट स्थापित करने की शुरुआत की है। इसके लिए कैबिनेट ने निर्णय लिया है और वहां दस चैकपोस्ट स्थापित करने को लेकर जमीन की तलाश की जा रही है। यहां अगले कुछ महीने में चैकपोस्ट स्थापित होंगे और इसके बाद दूसरे सीमाई क्षेत्रों में ऐसे चैकपोस्ट बनाए जाएंगे। पहली दफा इस तरह का प्रयास किया जा रहा है, ताकि अवैध रूप से प्रदेश से खनन सामग्री बाहर न जा सके।


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