पंचायतों का पुनर्गठन जल्दबाजी वाला फैसला: सुखदेव सिंह, लेखक नूरपुर से हैं

By: सुखदेव सिंह, लेखक नूरपुर से हैं Sep 2nd, 2020 12:06 am

पंचायत प्रधान जनता की बजाय राजनीतिक दलों के ब्रांड एंबेसेडर बन जाते हैं जिसका खामियाजा गरीब जनता को भुगतना पड़ता है। ठीक इसी वजह से प्रधान की हमेशा यही कोशिश रहती है कि वह अन्य सदस्यों को भी अपनी टीम में शामिल करे। मगर कई बार वास्तव में ऐसा नहीं हो पाता और पंचायतें गुटबाजी का अखाड़ा बन जाती हैं। गरीबी किसी अभिशाप से कम नहीं होती और अक्सर ऐसे लोग अपने राजनीतिक अधिकार का गलत उपयोग करके अयोग्य लोगों का चयन करते हैं…

पंचायतों की कार्यप्रणाली में पारदर्शिता बरतने की बजाय अब और नई 310 पंचायतें बनाए जाने को तरजीह देना फिलहाल जल्दबाजी है। नए जिले बनाए जाने की मांग उठती रही है, मगर सरकार ने नई पंचायतों का गठन किए जाने का फैसला लिया, जो विरोधाभास को बढ़ा रहा है। नगर निकायों, पंचायत चुनावों में आरक्षण को पहल दिया जाना सही नहीं है। एक तरफ  आरक्षण खत्म किए जाने को लेकर बहस छिड़ चुकी है, वहीं अब चुनावों में भी आरक्षण को बढ़ावा दिया जाना समाज में जातिवाद को बढ़ाने के समान है। नाम के आगे जाति लिखना भी अब बंद करना चाहिए। इससे भी जातिवाद को बढ़ावा मिलता है। जातिवाद जब तक खत्म नहीं होगा, आरक्षण के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है। जाति के नाम से चलने वाली सभाओं को भी बंद करने की जरूरत है। इससे भी समाज में कभी एकता नहीं आ सकती है। पंचायतों में क्या पहले ही भ्रष्टाचार कम था, जो और नई पंचायतें बनाई जा रही हैं।

 कोरोना वायरस के समय नई पंचायतों का गठन किया जाना क्या जनता की मांग रही है? पंचायत चुनावों का बिगुल बजते ही नेतागण विधानसभा चुनावों का प्रचार किए जाने में जुट चुके हैं। कोरोना वायरस को फैलाने में राजनीतिक दल एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराकर राजनीतिक माहौल बना रहे हैं। गांव स्तर पर लोगों की समस्याएं सुनकर उन्हें बरगलाने का दौर शुरू हो चुका है। शक्ति प्रदर्शन करके एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने का श्रीगणेश नेता कर चुके हैं। इन चुनावों में अपनी किस्मत आजमाने को लोग सोशल मीडिया में जनता की नब्ज टटोल रहे हैं। पंचायत चुनावों के साथ ही ब्लाक समिति और जिला परिषद चुनावों का बिगुल भी बज जाता है। प्रत्येक राजनीतिक दल की हमेशा यही कोशिश रहती है कि वह अपने उम्मीदवार अधिक से अधिक इस दंगल में उतारे। हिमाचल प्रदेश में कोरोना वायरस संक्रमित लोगों का आए दिन बढ़ता आंकड़ा देख सरकार लोगों को सतर्कता बरतने की एडवाजरी जारी कर रही है। अगर इस बीच चुनावी दंगल भी सज जाता है तो संक्रामक रोग और अधिक फैल सकता है। पंचायत, ब्लाक समिति और जिला परिषद चुनावों के सहारे राजनीतिक दल आगामी विधानसभा चुनावों के लिए अपनी बिसात बिछाना शुरू कर देते हैं। पंचायतें लोकतंत्र की परिचायक होती हैं, इसलिए उनकी कुशल कार्यप्रणाली से ही सरकारों की साख बनती है। अधिकांश पंचायत प्रतिनिधियों को मौलिक अधिकारों और कर्त्तव्यों का पता नहीं होता जिसकी वजह से लोकतंत्र को सफल बनाने में बाधाएं आती हैं। पंचायत प्रतिनिधियों के चयन की प्रक्रिया में बदलाव किया जाए, यह बहस बहुत समय पहले से छिड़ चुकी है। पंचायत प्रधान जनता की बजाय राजनीतिक दलों के ब्रांड एंबेसेडर बन जाते हैं जिसका खामियाजा गरीब जनता को भुगतना पड़ता है।

ठीक इसी वजह से प्रधान की हमेशा यही कोशिश रहती है कि वह अन्य सदस्यों को भी अपनी टीम में शामिल करे। मगर कई बार वास्तव में ऐसा नहीं हो पाता और पंचायतें गुटबाजी का अखाड़ा बन जाती हैं। गरीबी किसी अभिशाप से कम नहीं होती और अक्सर ऐसे लोग अपने राजनीतिक अधिकार का गलत उपयोग करके अयोग्य लोगों का चयन करते हैं। आज के दौर में वार्ड पंच का चुनाव जीतना भी कोई आसान काम नहीं रह गया है। शराब और पैसे के दम पर ही वोट की खरीददारी का इन चुनावों में अधिक जोर रहता है। ब्लाक समिति सदस्यों का चुनाव भी किसी बड़े अखाड़े से कम नहीं रहता है। आज इस बात का जिक्र करना भी जरूरी हो चुका है कि आखिर एक ब्लाक समिति सदस्य के हिस्से साल में कितना बजट आता है? ब्लाक समिति में कम से कम चार पंचायतें शामिल रहती हैं और उसे मिलने वाला बजट ऊंट के मुंह में जीरा डालने वाली बात होती है। यही वजह है कि ब्लाक समिति का चुनाव दोबारा लड़ने के बहुत कम लोग इच्छुक रहते हैं। ऐसे ब्लाक समिति सदस्य जनता की नजरों में विकास कार्य करवाने में सफल नहीं रहते और नकार दिए जाते हैं। विकास कार्य करवाने के लिए सबसे ज्यादा बजट सिर्फ पंचायतों के माध्यम से खर्च किया जाता है। ऐसे में ब्लाक समिति सदस्य का चयन सिर्फ  मजाक बनकर रह जाता है। ब्लाक समिति सदस्यों के चुनाव का लाभ केवल मात्र राजनीतिक दल उठाते आ रहे हैं। ब्लाक समिति सदस्य ही मिलकर विकास खंड का चेयरमैन चुनते हैं। राजनीतिक दलों की हमेशा यही कोशिश रहती है कि इस पद पर अपना प्रत्याशी मनोनीत किया जाए।

 ब्लाक समिति सदस्य के चुनाव पर लाखों रुपए खर्च करने वालों को इन बातों के बारे में समय रहते सोचकर ही इस दंगल में कूदना चाहिए। एक जिला परिषद क्षेत्र में करीब बारह पंचायतें रहती हैं और बजट सिर्फ  नाममात्र का ही मिलता है। ऐसे में जिला परिषद सदस्य यही तय नहीं कर पाते कि आखिर इसे किस पंचायत में खर्च किया जाए। एक तो बजट नाममात्र का मिलता है, ऊपर से जिला परिषद सदस्यों की शक्तियां कभी उन्हें दी जाती हैं तो कभी उनसे वापस लेकर अजीब सा खेल खेला जाता है। जिला परिषद सदस्य ही जिला अध्यक्ष का चयन करते हैं जिसके लिए राजनीतिक दल दिन-रात एक कर देते हैं। राजनीतिक दलों का यही प्रयास रहता है कि वे जिला अध्यक्ष पद पर काबिज होकर जनता को बताएं कि उनकी पार्टी का जनाधार है। जिला परिषद सदस्यों के मानदेय में बढ़ोतरी करके वर्तमान सरकार ने सराहनीय फैसला लिया था। जिला परिषद सदस्य अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद विधायक चुनावों में अपनी किस्मत आजमाने के लिए निकल पड़ते हैं। राजनीति में पैठ बन जाने की वजह से कुछेक ठेकेदारी में अपना भविष्य तलाश करना शुरू कर देते हैं। चुनाव लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है, मगर जिस तरह बीमारी का दौर चल रहा है, उसे देखते हुए इन्हें फिलहाल टालने में ही जनता की भलाई है। चुनावी दौर में नेता और जनता, कोई भी नियमों की परवाह नहीं करते, यह सभी जानते हैं।


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