सबसे गरीब और वंचित हैं विमुक्त जातियां: कुलभूषण उपमन्यु, अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

By: कुलभूषण उपमन्यु, अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान Sep 28th, 2020 6:06 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

कुछ घुमंतु जातियां अनुसूचित जनजाति संरक्षण पाकर अपने हालात सुधरने में सफल भी रही हैं। किंतु बहुत से समुदाय अभी असमंजस में बदहाली भुगत रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में भी ऐसे कई समुदाय हैं जिन्हें दूसरे राज्यों में विमुक्त जातीय दर्जा दिया गया है, किंतु हिमाचल में उन्हें घुमंतु जातीय दर्जा ही मिला है। इनमें मुख्य समुदाय सांसी, बंगाली या बंगाले, बागडि़या, बैरागी, बंजारा, मिरासी, मलाह, नट और बाजीगर आदि हैं। इनमें से अधिकांश भूमिहीन हैं और कइयों के पास तो घर के लायक भी जमीन नहीं है…

2011 की जनगणना के आधार पर विमुक्त घुमंतु जनजातियों की जनसंख्या 15 करोड़ के लगभग है। ये ऐसे घुमंतु कबीले थे जो भारत भर में ऊंट, गधे और बैलगाडि़यों की सहायता से परिवहन व्यवस्था चलाते थे और छोटा-मोटा व्यापार घूम-घूम कर करते थे। इसके साथ विभिन्न वस्तुएं बनाना, जड़ी-बूटियों से पारंपरिक इलाज, झाड़-फूंक से इलाज, दस्तकारी का काम, अस्त्र-शस्त्र बनाना, मनोरंजन व्यवसाय, सांप पकड़ने और कृषि औजार बनाने आदि का कार्य करते थे और घूमते रहते थे। ये भृत-सैनिक का कार्य भी करते थे और विभिन्न रजवाड़ों में सेवाएं देते थे। इनकी निर्भरता जिन व्यवसायों पर थी, उसके लिए वन और खनिज संसाधन जरूरी थे। अंग्रेजी राज्य में वनों और खनिज संपदा पर पूर्ण सरकारी नियंत्रण हो गया। ये लोग उस नियंत्रण को नहीं मानते थे और मनमाना उपयोग पूर्ववत करते रहते थे।

घुमंतु होने के कारण सरकार को इनका नियंत्रण करना कठिन होता जा रहा था। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भी इन्होंने अनेक रजवाड़ों के साथ सहयोग करके बड़े पैमाने पर सैनिक भूमिका निभाई थी। इसलिए ये अंग्रेजों की आंख की किरकिरी बन गए थे। अंग्रेजी राज्य का आधार व्यापार था। उसी को बढ़ाने के लिए उन्होंने रेल चलाई। अपनी व्यवस्था को मजबूती देने के लिए स्वतंत्र परिवहन व्यवस्था और घुमंतु व्यापार को रोकना अंग्रेजों के लिए जरूरी था। इसीलिए 1871 में अंग्रेज सरकार ने अपराधी-कबीले कानून बना कर इनके पारंपरिक व्यवसायों को खत्म कर दिया। इनकी स्वतंत्र घुम्मकड़ी पर भी रोक लगा दी। इनको थाने में लगातार हाजिरी लगवानी पड़ती थी। ऐसे 191 समुदाय थे जिन्हें इस कानून के अंतर्गत अपराधी कबीले घोषित कर दिया गया। आखिर 31 अगस्त 1952 में भारत सरकार ने अपराधी कबीले कानून को निरस्त करके इन लोगों को स्वतंत्रता प्रदान की, किंतु लंबे समय तक अंग्रेजी अत्याचारों ने इनकी कमर तोड़ दी थी और ये आत्म-विस्मृति के दौर में फंस गए थे। ये भूल गए थे कि हम कौन हैं। इसलिए इनको विशेष सरकारी सहयोग की जरूरत थी। अनुसूचित जन जातियों और अनुसूचित जातियों को तो संविधान में संरक्षण दिया गया, किंतु ये लोग छूट गए। कई राज्यों में इनमें से कुछ समुदायों को अनुसूचित जातियों या जन जातियों में शामिल तो कर लिया, किंतु इनकी विशेष परिस्थितियों को उचित समाधान आज तक नहीं मिला है और इन्हें मुख्य धारा का भाग बनाने में देश एक सीमा तक असफल रहा है। कुछ अच्छी पहलें हुई हैं किंतु अभी लंबा रास्ता तय करना बाकी  है। सभी राज्यों में इन कबीलों का सूचीकरण तो हो गया है, किंतु आगे कैसे  बढ़ना है, इस पर कार्य होना है।

कुछ घुमंतु जातियां अनुसूचित जनजाति संरक्षण पाकर अपने हालात सुधरने में सफल भी रही हैं। किंतु बहुत से समुदाय अभी असमंजस में बदहाली भुगत रहे हैं। हिमाचल प्रदेश में भी ऐसे कई समुदाय हैं जिन्हें दूसरे राज्यों में विमुक्त जातीय दर्जा दिया गया है, किंतु हिमाचल में उन्हें घुमंतु जातीय दर्जा ही मिला है। इनमें मुख्य समुदाय सांसी, बंगाली या बंगाले, बागडि़या, बैरागी, बंजारा, मिरासी, मलाह, नट और बाजीगर आदि हैं। इनमें से अधिकांश भूमिहीन हैं और कइयों के पास तो घर के लायक भी जमीन नहीं है। ऐसी बदहाली के चलते ये लोग कई बार असामाजिक तत्त्वों का शिकार बन कर गलत रास्ते पर भी चलने की संभावना से ग्रस्त हो जाते हैं। पढ़ाई-लिखाई में भी अत्यंत पिछड़े यही लोग हैं। गत वर्षों में भीकू राम इदाते की अध्यक्षता में एक आयोग बनाया गया था जिसकी रिपोर्ट 8 जनवरी 2018 को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय को सौंपी जा चुकी है। इसकी प्रमुख सिफारिशें निम्न हैं ः स्थायी आयोग का गठन जिसका अध्यक्ष इसी समाज का प्रभावी नेता हो और सचिव सेवानिवृत्त भारतीय प्रशासनिक सेवा का अधिकारी हो।

प्रत्येक राज्य में विभाग व निदेशालय का गठन हो। किसी राज्य में इनको अनुसूचित जाति, किसी में जनजाति और किसी में कहीं भी संरक्षण नहीं मिला है। अतः एथनो ग्राफिक अध्ययन के आधार पर एक समान श्रेणी में डाल कर विसंगति को दूर किया जाए। राज्यसभा और लोकसभा में कम से कम एक प्रतिनिधि मनोनीत किया जाए। जातिवार जनगणना के आंकड़े प्रकाशित करके उसके अनुसार इनकी विकास योजना बने। विमुक्त-घुमंतु-अर्ध घुमंतु की अलग श्रेणी घोषित करके इन्हें प्रोटेक्शन फ्रॉम अट्रोसिटी एक्ट के दायरे में लाया जाए। आरक्षित वर्गों में इनको अलग उप-कोटा प्रदान करके संरक्षण दिया जाए। कलंकी करण व उत्पीड़न से मुक्ति के लिए इन्हें हैबिचुअल ओफैंडर एक्ट से मुक्ति दी जाए। आम समाज इनकी मुश्किलों को नहीं समझता, इसलिए आम जागरूकता का कार्य हो। इनके अंदर जागरूकता, शिक्षा का प्रसार, मुख्य धारा में लाने के लिए नीतिगत उपाय, विशेष अनुदान सहायता, स्वास्थ्य सुधार, भूमि-आवास प्रदान करना, वन अधिकार देना, कौशल विकास और महिला सशक्तिकरण करने की सिफारिशें की गई हैं। नीति आयोग ने इदेट आयोग की सिफारिशों से सहमति व्यक्त की है। इनके लिए समर्पित वित्त-विकास निगम बनाने के सुझाव का भी समर्थन किया है। अब यह देखना है कि सरकार इस आयोग की सिफारिशों को किस रूप में लागू करती है। यदि ये सिफारिशें लागू होती हैं तो निःसंदेह हालात में सुधार आएगा। राज्य सरकारों को भी आगे आकर इस विषय पर चिंतन करके कारगर पहल करनी चाहिए।


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