सियासत युवाओं को चुने, मनोनीत न करे: प्रवीण कुमार शर्मा, सतत विकास चिंतक

By: प्रवीण कुमार शर्मा, सतत विकास चिंतक Sep 1st, 2020 12:06 am

प्रवीण कुमार शर्मा

सतत विकास चिंतक

दोनों प्रक्रियाओं के अपने-अपने गुण-दोष हैं। मनोनयन से पार्टी के प्रति निष्ठा व अनुशासन को बढ़ावा मिलता है। पार्टी विस्तार के दौरान यह प्रक्रिया बहुत लाभदायक सिद्ध हुई। सत्ता काल में इस प्रक्रिया में सबसे बड़ा दोष यह है कि योग्यता को अपने लिए खतरा मानते हुए स्थापित नेतृत्व इन युवाओं को दरकिनार करने के लिए भरपूर कोशिश करते हैं। कई उदाहरण हैं जब संगठन के प्रति समर्पित युवाओं के बजाय व्यक्तिपूजक युवाओं को इस मनोनयन में तरजीह मिलती रही है…

बांध के लिए जो महत्त्व नदी का है, वही महत्त्व एक राजनीतिक दल के लिए उसके यूथ विंग का होता है। नदी समान ये युवा अपने निरंतर प्रवाह से बांधरूपी राजनीतिक दल को कभी खाली नहीं होने देते हैं। समय के साथ पुराना जल आगे निकलता रहता है और उसका स्थान  नया जल ले लेता है। नदी में बाढ़ आने पर  बांध टूट न जाए, इसके लिए पुराने जल का निष्कासन तेजी से किया जाता है। कमोबेश यही सिद्धांत राजनीति में भी लागू होता है। जब कभी इस प्रवाह की निरंतरता में क्षय होता है तो  बांध के समान उस राजनीतिक दल का कमजोर होना स्वाभाविक है। ऊर्जा और उत्साह से भरपूर ये युवा एक तरफ  तो पार्टी का विस्तार करते हैं, दूसरे, उसे सत्ता तक पहुंचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। क्षेत्रीय दलों को छोड़ दिया जाए तो इस समय  देश में दो प्रमुख राजनीतिक दल  भाजपा  के पास ‘भाजयुमो’ और कांग्रेस  के पास  ‘यूथ कांग्रेस’ के नाम से सशक्त युवा संगठन हैं। इनसे निकले कई युवाओं ने देश, प्रदेश की राजनीति में  पहचान बनाई है। हिमाचल के लिए यह गर्व की बात है कि प्रदेश के तीन युवाओं, आनंद शर्मा (1985-87) ने यूथ कांग्रेस, जगत प्रकाश नड्डा (1990-94) और अनुराग ठाकुर (2010-2016) ने भाजयुमो के  राष्ट्रीय अध्यक्ष  पद की न केवल कमान संभाली, बल्कि देश भर में एक सशक्त पहचान भी बनाई।    आमजन के लिए इन युवा संगठनों में प्रवेश व कार्यप्रणाली हमेशा से कौतूहल का विषय रहा है। विशेषकर पिछले कुछ दिनों से दोनों दलों के युवा संगठन  अपने  पुनर्गठन की प्रक्रिया के चलते सुर्खियों में हैं जिससे यह जिज्ञासा और भी बढ़ गई है।

प्रदेश के परिपे्रक्ष्य में देखें तो छात्र राजनीति राजनीतिक दलों के लिए एक नर्सरी की भांति है। एबीवीपी भाजपा का स्टूडेंट विंग नहीं है, परंतु एक ही विचार परिवार से संबंधित होने के कारण यहां से निकले युवा भाजयुमो में ही शामिल होते हैं। एनएसयूआई कांग्रेस का स्टूडेंट विंग है जो यूथ कांग्रेस के लिए प्रारम्भिक शिक्षण का कार्य करता है। वामपंथियों की भी एसएफआई  के रूप में एक मजबूत शाखा है, पर प्रदेश में मजबूत स्ट्रक्चर न होने के कारण एसएफआई  से निकले पांच फीसदी युवा ही अपने मूल संगठन में कार्य करते हैं। समय बीतने पर अन्य वामपंथी छात्र नेता अंततः कांग्रेस के ही शरणागत हो जाते हैं। छात्र समस्याओं को लेकर संघर्ष,  सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यों के साथ छात्र परिषद के चुनावों  में भागीदारी से छात्रों की नेतृत्व क्षमता सामने आती है और यहीं से उनके आगे बढ़ने के द्वार खुल जाते हैं। कुछ समय पहले तक दोनों दलों के युवा मोर्चे में शामिल होने के लिए ‘मनोनयन’ ही एक मात्र आधार था। मनोनयन की त्रुटियों के  कारण काबिल युवाओं की कमी से जूझती कांग्रेस पार्टी ने वर्ष 2010 में एक बड़ा  बदलाव लाते हुए चुनाव प्रक्रिया को अपनाया जबकि भाजपा अभी भी मनोनयन पर विश्वास जता रही है। भाजयुमो के गठन की प्रक्रिया ऊपर से नीचे  की और है। भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष, संगठन मंत्री कुछ प्रमुख नेताओं से विचार-विमर्श के उपरांत युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष का नाम तय करते हैं। प्रदेश अध्यक्ष चुने जाने के पश्चात  भाजयुमो अध्यक्ष प्रदेश भाजपा की तर्ज पर  अपनी कार्यकारिणी का गठन करता है। उसके पश्चात् जिला भाजपा अध्यक्ष और उस जिले के प्रमुख नेताओं के साथ विचार-विमर्श करके जिला युवा मोर्चा के अध्यक्ष के मनोनयन की घोषणा कर दी जाती है।

 जिला युवा मोर्चा यही कार्य प्रणाली अपनी कार्यकारिणी और मंडल युवा मोर्चा के अध्यक्ष पद के मनोनयन के लिए अपनाता है। अपवाद स्वरूप एक-दो मामलों को छोड़ दिया जाए तो उस मंडल के विधायक या प्रमुख नेता के अनुसार युवा मोर्चा का मंडल अध्यक्ष नियुक्त कर दिया जाता है। यूथ कांग्रेस में  चयन प्रक्रिया नीचे से शुरू होती है। सबसे पहले बूथ स्तर पर मेंबर बनाए जाते हैं। चार मेंबर मिलकर एक डेलीगेट को चुनते हैं। वह डेलीगेट ब्लॉक यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष, जिला अध्यक्ष व प्रदेश अध्यक्ष के लिए एक साथ तीन वोट करता है। ब्लॉक स्तर पर जिस प्रत्याशी को सबसे ज्यादा वोट मिलते हैं, उसे ब्लॉक प्रेजिडेंट, दूसरे स्थान पर रहने वाले को वाइस प्रेजिडेंट व घटते क्रम में अन्य पदाधिकारियों का चयन किया जाता है। इसी तरह जिला स्तर पर भी पदाधिकारियों का चयन होता है। पहले प्रदेश स्तर पर भी इसी प्रक्रिया को अपनाया जाता था। जो सबसे ज्यादा वोट प्राप्त करता था वही यूथ कांग्रेस का स्टेट प्रेजिडेंट होता था। परंतु इस बार चयन प्रक्रिया में  थोड़ा  सा बदलाव किया गया है। प्रदेश स्तर पर पहले पांच स्थान पर रहने वाले प्रत्याशियों का पैनल बनाया जाएगा। राष्ट्रीय हाईकमान द्वारा इंटरव्यू के बाद प्रेजिडेंट व अन्य पदाधिकारियों की नियुक्ति की जाएगी।

दोनों प्रक्रियाओं के अपने-अपने गुण-दोष हैं। मनोनयन से पार्टी के प्रति निष्ठा व अनुशासन को बढ़ावा मिलता है। पार्टी विस्तार के दौरान यह प्रक्रिया बहुत लाभदायक सिद्ध हुई। सत्ता काल में इस प्रक्रिया में सबसे बड़ा दोष यह है कि योग्यता को अपने लिए खतरा मानते हुए स्थापित नेतृत्व  इन युवाओं को  दरकिनार करने के लिए भरपूर कोशिश करते हैं। कई उदाहरण हैं जब संगठन के प्रति समर्पित युवाओं के बजाय व्यक्तिपूजक, चापलूस और हां में हां मिलाने वाले युवाओं को इस मनोनयन में तरजीह मिलती रही है। इससे योग्य युवा धीरे-धीरे पार्टी से मुंह मोड़ लेते हैं। इसके विपरीत चुनावी प्रक्रिया का लाभ यह है कि चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी को नए मेंबर बनाने के लिए धरातल पर मेहनत करनी पड़ती है। पार्टी का विस्तार के साथ-साथ इस संघर्ष में नेतृत्व क्षमता का भी विकास होता है। इसमें एक प्रमुख दोष यह है कि चुनावी प्रक्रिया को अनेकों प्रकार से प्रभावित किया जा सकता है। दूसरा समन्वय न बन पाए तो अनुशासनहीनता की संभावना बनी रहती है। संक्षिप्त में इतना ही कहा जा सकता है कि एक प्रक्रिया ‘कार्यकर्ता’ तो  दूसरी  ‘नेता’ पैदा करती है।


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