बोली culture और लोक साहित्य का कुसमय

By: डा. हेमराज कौशिक, रामऋषि भारद्वाज Sep 27th, 2020 12:06 am

हिमाचल साहित्य के कितना करीब है, इस विषय की पड़ताल हमने अपनी इस साहित्यिक सीरीज में की है। साहित्य से हिमाचल की नजदीकियां इस सीरीज में देखी जा सकती हैं। पेश है इस विषय पर सीरीज की 17वीं और अंतिम किस्त…

साहित्य के कितना करीब हिमाचल-17

अतिथि संपादकःडा. हेमराज कौशिक

विमर्श के बिंदु

* हिमाचल के भाषायी सरोकार और जनता के बीच लेखक समुदाय

* हिमाचल का साहित्यिक माहौल और उत्प्रेरणा, साहित्यिक संस्थाएं, संगठन और आयोजन

* साहित्यिक अवलोकन से मूल्यांकन तक, मुख्यधारा में हिमाचली साहित्यकारों की उपस्थिति

* हिमाचल में पुस्तक मेलों से लिट फेस्ट तक भाषा विभाग या निजी प्रयास के बीच रिक्तता

* क्या हिमाचल में साहित्य का उद्देश्य सिकुड़ रहा है?

* हिमाचल में हिंदी, अंग्रेजी और लोक साहित्य में अध्ययन से अध्यापन तक की विरक्तता

* हिमाचल के बौद्धिक विकास से साहित्यिक दूरियां

* साहित्यिक समाज की हिमाचल में घटती प्रासंगिकता तथा मौलिक चिंतन का अभाव

* साहित्य से किनारा करते हिमाचली युवा, कारण-समाधान

* लेखन का हिमाचली अभिप्राय व प्रासंगिकता, पाठ्यक्रम में साहित्य की मात्रा अनुचित/उचित

* साहित्यिक आयोजनों में बदलाव की गुंजाइश, सरकारी प्रकाशनों में हिमाचली साहित्य

रामऋषि भारद्वाज, मो.-9418685745

साधारणतया भाषा, बोली, लिपि, गद्य, पद्य, रीति-रिवाज और संस्कृति के एक साथ समावेश व समन्वय को ही साहित्य समझा जाता है। इस पर विभिन्न दृष्टियों से टीका टिप्पणी करना, तर्क-वितर्क, विचार-विमर्श करना अभ्यस्त आलोचकों व समीक्षकों का काम हो सकता है। ऐसी परिचर्चाओं में कई बार विषय के बिंदु संख्या में ज्यादा होने से जटिल हो जाते हैं और उनके द्वारा दिए तर्क पाठकों की समझ से परे होने लगते हैं। तब बहुधा ऐसे साहित्य संवादों से पाठक अपने को बोझिल और अलग-थलग समझने लगता है और साहित्य की ओर से उचाट होने की स्थिति में आ जाता है। यह सर्वमान्य तथ्य है कि सभी भारतीय भाषाओं और साहित्य के मूल में संस्कृत है। हमारे पुरखों की थाती कला, साहित्य व संस्कृति हमारी धरोहर है। यह भी सर्वमान्य तथ्य है कि हमारे ग्रंथों की मूल भाषा संस्कृत है। उत्तरोत्तर कई भाषाएं जन्मी, विकसित हुईं और काल कलवित भी हो गईं। परिवर्तन और नवीनता प्रकृति का अटल नियम है। हिमाचल के मूल में देव संस्कृति है।

हिमाचल की सभी बोलियों में संस्कृत के अनगिनत शब्द हैं, इन्हें चाहकर भी निकाला नहीं जा सकता है। जैसे पहाड़ी में ‘हउं’ अहं से, ‘पणियां’ पणी से, ‘भैन्सरे’ भिनुसार से, ‘घाई देणा’ घायल करने से बना, कालांतर जनपद में ये शब्द अपभ्रंश हुए। पंजाबी भाषा भी संस्कृत से अछूती नहीं रही है। ऐसे ही गुरुग्रंथ साहिब में अनेक संस्कृत शब्द अक्षुण्ण स्थिति में विद्यमान हैं।

वर्तमान में प्रचलित पंजाबी भाषा में भी संस्कृत के अनेक शब्द ध्यान में आते हैं। पंजाबी भाषा की लिपि गुरमुखी है। इसकी स्थापना द्वितीय गुरु संत अंगद देव जी द्वारा हुई मानी जाती है। गुरु जी के मुख से निकली बोली, गुरमुखी लिपि है। इस लिपि में देवनागरी का प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप में प्रभाव दिखता है।

सर्वविदित है कि स्वामी राजा संसारचंद कला, साहित्य व चित्रकारी का प्रेमी व उसका पालक-   पोषक था। विश्व प्रसिद्ध कांगड़ा कलम के चितेरे, सुजानपुर की होली के जनक, श्रीराधाकृष्ण के परम भक्त राजा संसार चंद को भारत का दूसरा चंद्रगुप्त कहा जा सकता है। उसके समय में लोक कलाओं का प्रदेश में जितना विकास हुआ उतना किसी दूसरे राजा के शासनकाल में नहीं।

इसी तरह पहाड़ी राजाओं में आपसी मेल-जोल का सामंजस्य बैठाने में टीहरा सुजानपुर की बारहदरी गवाह है, जहां कभी लोक कवियों के कवि दरबार सजा करते थे। नई-नई रचनाएं रची जाती थीं। जिस तरह डोगरी, जम्मू की एक अलग भाषा है और संविधान की आठवीं अनुसूचि में दर्ज है, उसी तरह निकट भविष्य में हिमाचल की पहाड़ी भाषा भी  संविधान की आठवीं अनुसूचि में शामिल होगी। यह सत्य है कि आधुनिकता, बढ़ता भौतिकवाद प्रदेश की संस्कृति और लोकसाहित्य को निगलने पर उतारू है।

आज अपनी भाषा और अपनी संस्कृति संवारने का किसी के पास समय ही कहां? उस भाषा और संस्कृति को जो अनादिकाल से हमारे जीवन का उत्स रही हो, कहीं वह समय के साथ तिरोहित न हो जाए।

ऐसे में आज आवश्यकता इस बात कि है कि हम खुले माहौल में खुले मन से अपनी बोलियों, अपनी संस्कृति और अपने साहित्य को फलने-फूलने के पर्याप्त अवसर दें ताकि वर्तमान के साथ ही साथ हमारा अतीत भी हमारे भविष्य का कुशल मार्गदर्शन कर सके।  यह सर्वमान्य सत्य है कि सही मायने में किसी भी भाषा, बोली की जननी वहां की मिट्टी होती है। उसमें जो जीवन का कटु-मधुर समावेश होता है, वह वहां की भौगोलिक विभिन्नता के कारण ही होता है। किसी क्षेत्र की भाषा, बोली वहां की मिट्टी, पानी के बिना विकसित ही नहीं हो सकती। हर क्षेत्र की बोली व उसमें रचा लोकसाहित्य यमुना और सरस्वती जैसी दिव्य नदियों के प्रवाह से बिछी सारस्वत धरा की मिट्टी व पानी ही होता है, उसका मन से स्पर्श किया जाए तो।

प्रदेश की बोलियों ने जितना लोकसाहित्यिक खजाना हिमाचल प्रदेश के साहित्य को दिया है, उसका अध्ययन किया जाए तो प्रदेश की संस्कृति के साथ ही साथ हमें उसमें और भी बहुत कुछ वरण करने योग्य मिल सकता है जो हमारे डगमगाते भविष्य को प्रकाशमान करने में पूरी तरह सक्षम होगा। बहरहाल, हिमाचली भाषा में रामायण, महाभारत, दैवी शक्ति व महादेव के संदर्भों में अनेक ग्रंथ कथाएं, नाटक, स्वांग, रास, भजन जन मानस द्वारा रचित हैं जिनका किसी न किसी रूप में लोकमंचों पर आज भी कुशल मंचन हो रहा है किसी न किसी बहाने।

इसी के बूते हिमाचल का लोक साहित्य आज सिर्फ  एक भाषा बोली में नहीं, अपितु एक दर्जन से ऊपर बोलियों में हर विधा में देश के लोक साहित्य के बराबर अपने को प्रतिष्ठित किए हुए है। अब आवश्यकता बस, इस बात की है कि प्रदेश की बोलियों और उन बोलियों में रचे लोकसाहित्य का सही मूल्यांकन करने में, उसके संवर्धन और विकास हेतु प्रोत्साहन अथवा मान सम्मान हेतु ठोस और बेलौंस कोशिशें की जाएं तो प्रदेश की बोलियों और लोक साहित्य के साथ ही साथ हमारा अस्तित्व भी बचा रहे। क्योंकि हमारी बोली होगी तो हम होंगे, हमारी संस्कृति होगी तो हम होंगे, हमारा लोक साहित्य होगा तो हम होंगे। बिन बोली, भाषा, संस्कृति, लोक साहित्य के किसी भी लोक की कल्पना करना समय की बरबादी ही होगी।


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