हिमाचली लोकगाथाओं में इतिहास बोध

By: अमरदेव आंगिरस Oct 25th, 2020 12:08 am

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस नई शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। प्रस्तुत है इसकी चौथी किस्त…

मो.-9418165573

लोकगाथा का अभिप्राय है जनसाधारण में परंपरा से चले आ रहे प्रबंधात्मक गीत। प्राचीन काल में लेखन की सुविधा न होने के कारण श्रुतियों द्वारा अपने नायकों, देवताओं और सम्राटों की प्रशस्तियां गाने की परंपरा चली। रामायण, महाभारत काव्यों के नायकों की गाथाओं से समस्त भारत के शिष्ट तथा लोक साहित्य में देवगाथाएं उपलब्ध होती हैं। बौद्ध काल तथा अपभ्रंश साहित्य में लोकगाथाओं के उल्लेख मिलते हैं। अनेक प्रकार के गायक सूत, मागध, कुशीलन, चारण, भाट, जोगी आदि गाथा-गायकों के रूप में जाने जाते हैं। प्राचीन काल से ही राज दरबारों में लोकगाथाएं प्रस्तुत की जाती थीं जो पौराणिक आधार लिए धार्मिक होती थी, जिनमें नायकों की वीरता, नैतिकता, मानवता, त्याग, चमत्कार आदि दिव्य गुणों का समावेश होता था। लोकगाथाएं सांस्कृतिक इतिहास होती हैं, जिनमें कल्पना, अतिरंजना, अनुश्रुतियों के समावेश से वे मानवीय धरातल से ऊपर लगती हैं तथा जनसाधारण के हृदय में अद्भुत के लिए आस्था जगाती हैं। इनमें मिथकों, अनुश्रुतियों का इतना आवरण होता है कि मूल कथा के तत्त्व ढूंढने कई बार असंभव नहीं, तो दुरूह लगते हैं। यद्यपि गाथाएं सत्य के मूल्यों पर निर्मित होती हैं। गाथाओं में ऐतिहासिक तत्त्वों के लुप्त होने का कारण भारत की सैकड़ों वर्षों की गुलामी रहा है। भारतीय मनीषियों, विचारकों, कवियों ने परतंत्रता-काल में भी अपने वैदिक, पौराणिक, मध्यकालीन इतिहास को गुप्त रूप से तथा स्वतंत्र रूप से अपने राष्ट्रीय नायकों की प्रशस्तियों से सांस्कृतिक इतिहास को जीवित रखा है।

ईसा पूर्व दूसरी शती से ईसा की सातवीं-आठवीं शती तक ब्राह्मण विद्वानों ने पौराणिक साहित्य, आयुर्वेद, ज्योतिष तथा काव्य की महान रचनाएं गाथाओं को आधार बनाकर ही दी हैं। हिमाचल में पौराणिक नायकों (ईस्वी पूर्व 200 से नवीं-दसवीं शती) के इतिहासपूर्ण वृत्तांत तो मिलते ही हैं, बौद्ध धर्म नायकों की गाथाएं पाली-प्राकृत भाषाओं में रचित महाजनपद काल के साहित्य को भी प्रभावित करती हैं। साधारण जनमानस इतिहास बोध न होने के कारण तथा लुप्त लिखित इतिहास न होने के कारण मध्ययुग के वीर नायकों की गाथाओं को सतयुग, पांडवकाल आदि से जोड़ देता है। प्रदेश में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण काल एवं गाथाएं आठवीं-नवीं शती से 11-12वीं शती तक के संतों, योद्धाओं आदि से संबंधित पाई जाती हैं। इनमें विक्रमादित्य, भोज, भर्तृहरि, राजा रसालू, पूर्णभक्त, गोरखनाथ, जालंधरनाथ (नवीं शती) आदि के आख्यानों पर आधारित मिलती हैं। राजा भोज (1015-1065 ईस्वी) से संबंधित गाथाएं प्रदेशभर में प्रचलित हैं। गोरखनाथ के शिष्यों से संबंधित राजाओं के वृत्तांत कांगड़ा, कुल्लू, चंबा, मंडी आदि क्षेत्रों में आज भी प्रचलित हैं। भर्तृहरि, चरपटनाथ, गोपीचंद, पूर्णभक्त, वीरूनाथ, शीलनाथ आदि उल्लेखनीय हैं। गोरखनाथ इतने लोकप्रिय हुए कि संत कबीर (1398 ईस्वी) तथा अन्य संतों को भी समकालीन मान लिया गया। मध्यकाल 13वीं शती के राजपूत वीरों जगदेव परमार (11वीं शती), नारसिंह वजीर, गूग्गा जाहरपीर सभी समकालीन थे, जो आज भी गाथाओं के आधार बने हैं।

वीरसेन (11वीं शती), जिसे बाड़ादेव के नाम से मंडी, सोलन, शिमला क्षेत्रों में पूजा जाता है, ऐतिहासिक योद्धाओं के स्मृतिचिन्ह हैं। प्राचीन महासू के छोटे-छोटे सामंतों, रजवाड़ों के वृत्तांत, उनकी हार-जीत, मृत्यु आदि से संबंधित ‘हारें-वारें’ के रूप में जीवंत हैं। ये युद्धवीर या राणा-ठाकुर 13वीं शती से 15-16वीं शती तक अपने छोटे-छोटे क्षेत्रों में राज करते रहे। बीजट, बीजूदेव, शिरगुल आदि इसी प्रकार गाथाओं के मूल में हैं। सिरमौर क्षेत्र में अधिकांश युद्धवीरों की गाथाएं, देशा री हार, धर्मप्रकाशो री हार तथा कामना, हौकू, मदना, छीछा, सामा और दौलतू आदि वीरगाथाएं लोकप्रिय हैं। ये सभी मुगल काल (13वीं से 17वीं शती) के वीर पुरुष हैं।

समस्त प्रदेश में इसी काल से प्रचलित लोकनाट्यों के नायक, करयाल़ा, बांठड़ा, बरलाज, स्वांग, भगत आदि के नायक लोकगाथाओं के आधार बने हैं। दरबारों में गाथाएं प्रचलित थीं, तो खुले आसमान के नीचे रांझू-फुल्मू, पूर्णभक्त, ध्रुव भक्त, कुंजू चंचलो, रसालू आदि की गाथाएं गाई जाती रही। हिमाचल में प्राचीन समय से शरद की रातों को लोकगाथाएं व लोककथाओं के गाने-सुनाने की परंपरा रही है। आज भी इनके रूप कहीं-कहीं उपलब्ध हो जाते हैं। लोकगाथाएं हमारे इतिहास व समृद्ध संस्कृति की विरासत हैं। हिमाचली बोलियों में ये आज भी संरक्षित हैं, अतः हिमाचली भाषा के स्तरीय एवं मानक स्वरूप की आवश्यकता है। लोकगाथाओं के संकलन-प्रकाशन का कार्य हिमाचल कला भाषा संस्कृति अकादमी ने विशेष विशेषांक निकालकर किया है तथा कुछ लोकगाथाओं पर शोध कार्य भी किया है, जिस पर गंभीरता से विचार होना चाहिए क्योंकि ये गाथाएं इतिहास लेखन परंपरा में सहायक हैं।

विमर्श के बिंदु

मो.- 9418130860

अतिथि संपादक ः डा. गौतम शर्मा व्यथित

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -4

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

लोकसंगीत की संस्कृति और लोकभाषा के संरक्षण में भूमिका

डा. सूरत ठाकुर

मो.-9816399807

लोक कलाओं में लोक संगीत लोक संस्कृति का मुख्य घटक है। लोक संगीत किसी देश या जाति की आत्मा है। इससे उन सब संस्कारों का बोध होता है, जिनके सहारे वह अपने सामूहिक या सामाजिक जीवन के आदर्शों का निर्माण करता है। हमारे लोक में व्याप्त लोक संगीत लोक संस्कृति का सबसे सशक्त वाहक एवं संरक्षणकर्ता है। विभिन्न आंचलों, समूहों ने नृत्य संगीत द्वारा लोक संस्कृति को सबसे अधिक जीवित रखा है। लोक संगीत समाज को जोड़ने में सबसे महती भूमिका निभाता रहा है। हमारी समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा को लोक संगीत ने एक नई पहचान दी है। भारत ही नहीं, अपितु विश्व का कोई भी जन समूह या देश संगीत के बिना सांस्कृतिक परंपराओं का निर्वहन नहीं कर सकता है। संगीत विश्वव्यापी है। चाहे एक समाज दूसरे समाज की भाषा-बोली नहीं समझता हो, परंतु संगीत के सात स्वर पूरे विश्व में एक ही रूप में सभी को कर्णप्रिय लगते हैं।

हिमाचल प्रदेश के लोकगीतों की परंपरा व्यापक है। कोई भी अवसर ऐसा नहीं है, जिसमें लोकगीत न गाए जाते हों। विभिन्न संस्कारों में गायन, वादन व नृत्य की परंपरा ने संस्कारों के आनंद में चार चांद लगाए हैं। बहुत से समूहों में मृतक संस्कार में भी संगीत वाद्यों के वादन का समावेष रहता है। इसी तरह मेले-उत्सवों में संस्कृति के विभिन्न आयामों को सुंदर-आकर्षक बना कर लोक गायन व लोकनृत्य की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। ऐसा कोई घर नहीं, जिनमें मनोरथों को मन में संजोए हुए कभी न कभी किसी नववधू ने प्रवेश न किया हो, जिसमें मंगल गीत न गाए गए हों। मंगलमय अवसरों पर नारियां मंगल गीत गाती हैं। बरसात में झूलों पर झूलती-झुलाती सखियों के मधुर कंठ से बारहमासे गूंजते हैं। यदि दूर पार कुछ नारियां गा रही हों, बेशक उनके गाने के शब्द हमें समझ नहीं आते, परंतु उनके मधुर स्वर हमें अवश्य आह्लादित करते हैं। लोकगीतों में लामण, झूरी, नैणी, बाहमणू, वोर, घुरे, सुगली, गंगी, ढोलरू आदि गीत प्रेम को तो अभिव्यक्त करते ही हैं, अपितु दार्शनिकता को दर्शाते हुए अच्छा जीवन जीने की प्रेरणा भी देते हैं।

लोकगीतों की रचना प्रायः शहनाई वादकों ने, चरागाहों में भेड़-बकरी और गाय-बैल चराते हुए पुहालों एवं ग्वालों ने, खेतों में निराई करती और घासनियों में घास काटती महिलाओं ने, मेले में नृत्य करते लोकनर्तकों एवं वादकों ने की है। कोई भी खुशी का अवसर चाहे विवाह-शादी हो, बच्चे का नामकरण हो, मेला त्यौहार हो, कोई घटना या दुर्घटना घटी हो या किसी व्यक्ति विशेष ने असामान्य भूमिका निभाई हो, या कोई प्रेम प्रसंग चर्चित हुआ हो, इन सब विषयों पर लोक कवियों ने गीतों को रचा है और गायकों-वादकों ने उन्हें स्वरों में पिरोकर अमर कर दिया। कई बार तो कुछ शौकीनों ने लोक कवियों और लोक संगीतज्ञों को बिठाकर उनसे अपने जीवन पर गीत रचने का आग्रह भी किया है। शायद प्रदेश के कुछ राजाओं जिनमें चंबा, मंडी, कांगड़ा, कुल्लू, बिलासपुर के राजाओं ने संगीत कलाकारों को अपने दरबार में नियुक्त किया होगा। इसीलिए इन क्षेत्रों के कुछ गीतों की रचना में शिष्ट साहित्य के निकट दिखाई देती है।

चंबा के कुंजड़ी-मल्हार गीत, बसोया गीत, घुरेही गीत तथा होली गीतों की रचना विशिष्ट कलाकारों द्वारा की हुई प्रतीत होती है। इसी तरह मंडी की झिंझोटी, छिंज, बारहमासा, भ्यागड़ा आदि गीत भी साहित्य और संगीत की जानकारी रखने वाले वाग्गेयकारों ने रचे हैं। बिलासपुर में भी कुछ गीत राजाओं के संरक्षण में बने प्रतीत होते हैं। कुल्लू में तो भगवान रघुनाथ के साथ आए हुए होली गाने वाले वैरागी आज भी बसंत पंचमी से लेकर होली तक चालीस दिनों में होली गीतों को गाते हैं। कोई भी गीत रचयिता अपना गीत समाज को सौंपता है। समाज उस गीत को आगे बढ़ाता है। नया गायक उसमें अपने भी कुछ भाव जोड़ता है, परंतु उसकी मूल आत्मा को तिरोहित नहीं होने देता। इसी कारण जो गीत जनमानस में जितना लोकप्रिय होता है, उसकी आयु लंबी होती है। घुरे, झेड़े, हारुल आदि बहुत सी गाथाओं और संस्कारों ने तो पुराने गीतों के शब्दों को जस का तस सुरक्षित रखा है। जब ये गीत रचे गए होंगे, तो रचनाकारों को कितना चिंतन करना पड़ा होगा।

उस समय के बोल इन गीतों में आज भी उसी तरह विद्यमान हैं। बच्चे के नामकरण एवं विवाह से लेकर अंतिम यात्रा में भी गीत वैसे के वैसे ही विद्यमान हैं, जैसे उस समय रचे गए होंगे। लोक कवि अपनी धरती से जुड़ा रहता है। यहां कवि हृदय में लोक हृदय बोलता है। भाषा को सहेजने और इसके प्रचार-प्रसार में भी लोकगीतों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। तभी तो एक आंचल का लोकगीत दूसरे आंचल में भी जनमानस द्वारा पसंद किया जाता है। किसी क्षेत्र की भाषा और बोली का संप्रेषण जिस तरह लोकगीतों ने किया है, भाषा-बोली के प्रसार में उस तरह का दूसरा माध्यम उतना सशक्त नहीं हो पाया है। इसीलिए चंबा के लोग कुल्लू के लोकगीत को, कांगड़ा के लोग सिरमौर के लोकगीत को समझते हैं और पसंद भी करते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि लोकसंगीत ने, विशेषकर लोकगीतों ने लोक संस्कृति और भाषा-बोली को पहचान दिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

लोक संस्कृति के प्रतीक महासुवी विवाह संस्कार गीत

उमा ठाकुर

मो.-9459483571

लोकसाहित्य सामूहिक भावनाओं, संवेदनाओं तथा ऐतिहासिक, सामाजिक एवं मानवीय अनुभूतियों का प्रतीक है। लोक परंपराएं पीढ़ी दर पीढ़ी स्वतः प्रचालित रहती हैं। अनेक ऐतिहासिक संदर्भ, सामाजिक उथल-पुथल, घटनाएं, जन आस्थाएं व धार्मिक परंपराएं लोक गीतों के माध्यम से जनमानस तक पहुंचती हैं। हिमाचल प्रदेश की परंपराओं और रीति-रिवाजों का मुख्य आकर्षण इसकी  दृढ़ता और स्थिरता है। लोक संस्कृति एक अथाह सागर है। ढोल की थाप और लोक गीतों की स्वरलहरियां जीवन में उमंग भर देती हैं। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हमारे हिमाचल में बारह कोस के बाद बोली बदल जाती है, लेकिन जो हमारे रीति-रिवाज, लोक परंपराएं और लोक संस्कृति है, वह करीब एक-सी ही है।

देव आस्थाओं और प्राचीन परंपराओं का निर्वहन यहां के लोग बखूबी करते हैं, साथ ही धार्मिक और सामाजिक रीति-रिवाजों को निभाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। लोक संस्कृति जन साधारण की वह विधा है जिसका स्रोत मेले, लोक वार्ता, लोक कथा, रीति-रिवाज और लोक गीत हैं। लोक संस्कृति के दर्शन मौखिक साहित्य में मिलते हैं। इस संस्कृति में सीधे-साधे लोकमानस का जीवन झलकता है। पारंपरिक लोक गीत जैसे आंचड़ी, जति, नैणी, गांगी, विवाह संस्कार गीत (लाणे) व लामण आदि में लोक संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। लुप्त होती इन विधाओं का संरक्षण और संवर्द्धन बेहद जरूरी है।

हिमाचल के विभिन्न जिलों के  क्षेत्रों में बोलियों में भिन्नता जरूर है, परंतु विवाह संस्कार गीतों की अगर हम बात करें तो हर क्षेत्र में इन संस्कार गीतों का भाव एक समान होता है। प्राचीन परंपराओं, रीति-रिवाजों में क्षेत्र विशेष के हिसाब से विभिन्नता जरूर देखने को मिलती है, परंतु यह संस्कार गीत मूलतः राम-सीता के संदर्भ में जोड़ कर ही गाए जाते हैं। गायन शैली हर क्षेत्र की अलग-अलग हो सकती है, परंतु इन विवाह गीतों की मिठास शादी के माहौल को खुशनुमा बना देती है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य की अगर हम बात करें तो हमारे रहन-सहन और रीति-रिवाजों में बहुत बदलाव आया है। आधुनिकता की होड़ में हम पाश्चात्य सभ्यता के रंग में कुछ इस कदर खो गए हैं कि मां की लोरी गांव की मीठी बोली यानी पहाड़ी बोली से विमुख होते जा रहे हैं। साथ ही दूर होते जा रहे हैं अपनी समृद्ध लोक संस्कृति से। अभिभावक वर्ग की यह नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है कि वह बचपन से ही अपने बच्चों  को पहाड़ी बोली के महत्त्व को समझाएं। साथ ही उन्हें अपनी लोक संस्कृति और परंपराओं की अनमोल धरोहर के बारे में रूबरू करवाएं ताकि पाश्चात्य सभ्यता का रंग उनके नैतिक मूल्यों की नींव न डगमगा पाए। उन्हें प्राचीन लोक परंपराओं, गाथाओं और लोक संस्कृति से जुड़े सभी पहलुओं के बारे में अवगत करवाएं जिससे उनके बालमन में न केवल लोक संस्कृति, लोक साहित्य व इतिहास के बारे में रुचि पैदा होगी, बल्कि उनका नैतिक और बौद्धिक विकास भी होगा। पहाड़ी बोली के साथ-साथ हिमाचल की धार्मिक और सामाजिक परंपराएं जैसे कि बिशु, भुंडा, आस्था का प्रतीक शांद, मेले और त्योहार यहां की वेशभूषा, देव परंपरा, लोक साहित्य के विविध रूप पारंपरिक पकवान, लोक संस्कृति और संस्कारों का अद्भुत खजाना संजोए है जिसे आने वाली पीढ़ी के लिए सहजकर रखना हम सभी का नैतिक दायित्व है।

महासुवी क्षेत्र में विवाह संस्कार गीत सर्वआरंभ यानी भैयागड़ा गीत से शुरू होकर केल्टी गीत में समाप्त होते हैं। विवाह संस्कार गीतों में तेल शांति, जनेऊ, भैयागड़ा, रामस्नान, बारात प्रस्थान, शगुन टीका, दुल्हन प्रवेश, विवाह समाप्ति तक यह महासुवी गीत बड़ी ही धार्मिक भावना से ओत-प्रोत व मन को छू लेने वाले होते हैं। इन गीतों को महिलाएं जोड़ी में लयबद्ध तरीके से गाती हैं और साथ-साथ विवाह संस्कार भी चलते रहते हैं। कुल पुरोहित (मंडल) यानी चौका लिखते हैं। सर्वआरंभ गीत के साथ देवी-देवताओं की स्थापना की जाती है। उसके पश्चात जनेऊ धारण की रस्म दूल्हा निभाता है। कुल देवता के पारंपरिक वाद्य यंत्रों की पूजा करते हैं जिसे महासुवी बोली में खुमड़ी कहते हैं और विवाह का माहौल बनना शुरू हो जाता है। परंपरा के हिसाब से शादी का पहला निमंत्रण कुल देवता को ही दिया जाता है। देवता के वाद्य यंत्रों के पूजन के साथ-साथ महिलाएं संस्कार गीत गाती हैं और परिवार के सभी सदस्य वाद्य यंत्रों की ताल पर नाचते हैं जिसे महासुवी बोली में भड़ोण्डा बोलते हैं। विवाह की सभी रस्मों के साथ-साथ महिलाएं संस्कार गीत गाने का क्रम जारी रखती हैं। मामा स्वागत हो, मेहंदी बटणा, राम स्नान, मामा भांजा हवन, अन्य मेहमानों का स्वागत गीत, सेहराबंदी, बारात प्रस्थान, वधु पक्ष में बारात स्वागत, सात फेरों की रस्में, कन्यादान रस्म, सिंदूर-मंगलसूत्र की रस्म, गुंठड़ा रस्म, श्रृंगार रस्म, दुल्हन प्रस्थान यानी  मकलाव और सुहाग पांणी यानी केल्टी विसर्जन गीत आदि सभी विवाह की रस्में इन संस्कार गीतों के साथ मंगलाचार के साथ चलती रहती हैं।

गायन शैली क्षेत्र और बोली के बदलाव के साथ-साथ अलग हो सकती है, मगर जो भावना इन संस्कार गीतों में छिपी होती है वह करीब एक जैसी ही है। एक तथ्य जो मैंने स्वयं पांगी घाटी, जिला चंबा के प्रवास के दौरान देखा, वह यह है कि पांगी के क्षेत्रों में विवाह की शुभवेला पर कोई भी मंगल गीत यानी संस्कार गीत नहीं गाए जाते हैं, बल्कि इनके बिना ही रीति-रिवाज के हिसाब से सारी रस्में निभाई जाती हैं। इसी संदर्भ में मेरा छोटा सा प्रयास पहाड़ी बोली पर आधारित मेरी शोधपूर्ण पुस्तक ‘महासुवी लोक संस्कृति’ हाल ही में प्रकाशित हुई है। इसमें मैंने महासुवी बोली में कोटगढ़, कुमारसैन, रोहड़ू, जुब्बल व ठियोग आदि क्षेत्रों की लोक संस्कृति को कलमबद्ध कर पाठकों व शोधार्थियों के लिए तत्थ्पूर्ण सामग्री जुटाने का प्रयास ंिकया है।

ग्रामीण महिलाओं से मौखिक वार्तालाप व गायन विधि द्वारा संस्कार गीतों को कलमबद्ध किया गया है। मगर यह प्रयास काफी नहीं है। लुप्त होते विवाह संस्कार गीत (लाणें) को सहज कर रखना आज के संदर्भ में बहुत जरूरी हो गया है क्योंकि विवाह के उपलक्ष्य में गाए जाने वाले ये पारंपरिक संस्कार गीत धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं और गायन शैली में माहिर महिलाएं उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं। संस्कार गीत मौखिक रूप से ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंच रहे हैं, लिखित रूप से इन गीतों की ज्यादा कहीं सामग्री नहीं मिलती है। लोक संस्कृति की धरोहर इन संस्कार गीतों को यदि गांव की मुंडेर से शादी-व्याह के समारोह में विश्व पटल पर पहचान बनानी है तो बहुत बड़े स्तर पर इसका प्रचार-प्रसार बहुत जरूरी है ताकि आने वाली कई पीढि़यों तक संस्कृति की यह अनमोल धरोहर यथावत संरक्षित रह सके।

पुस्तक समीक्षा : ‘कागज के फूलों में’ कविताओं का गुलदस्ता

कांगड़ा से संबद्ध हिमाचल के साहित्यकार रमेश चंद्र मस्ताना इस बार हिंदी काव्य संकलन ‘कागज के फूलों में’ के जरिए 56 श्रेष्ठ कविताओं का गुलदस्ता लेकर आए हैं। इस संग्रह के प्रथम संस्करण का मूल्य 300 रुपए है। प्रिय प्रकाशन, नेरटी (कांगड़ा) से प्रकाशित यह कविता संग्रह लेखक ने अपनी जीवन-संगिनी निर्दोष मस्ताना को समर्पित किया है। इस कविता संग्रह में अकथ कहानी प्रेम की, हम देखते ही रह गए, मन का प्यार, तुम क्या जानो, तुम्हारी याद, गांव में, मेरे घर के आसपास, ऐ मेरे मौला, बेदर्द, गिले-शिकवे, केवल आपके लिए, आलोकमयी दीप, वफा का अंजाम, अपनी तो यह जिंदगी, सुहाना सफर, जीने की जुस्तजू, प्यार का सोता, बदलते दौर में, कुछ पता नहीं, ऐसी बरसात हो, हमारी हिंदी, सावनी शिंगार, जो उसने कहा था, नारी संसार, दुनिया का दस्तूर, होली है, रात, क्या करें, कागज के फूलों में, मुश्किल हो गया बाबा, बात बिल्कुल सत्य है, सबकी ऐसी होली हो, सुहानी शाम, निकलिए मत, कभी-कभी, ऐ सजन, तुन बिन, बालमन के भाव, आया मौसम प्यार का, अपनी जिंदगी, सुन ले तू ऐ नापाक, रखता योग निरोग, आतंकियों का साया, कोरोना की काली छाया, दरवाजे और खिड़कियां, वह विक्रमादित्य, जिंदगी : एक ढलती शाम, मेरे हिस्से की धूप, हवा लग गई है, आम आदमी बनाम खास आदमी और फिसलती आस्थाएं जैसी कविताओं को संकलित किया गया है। इसके अलावा हाइकू और कुंडलियों का सृजन भी हुआ है।

 विविध विषयों को आधार बनाकर लिखी गई ये कविताएं विभिन्न रसों का आस्वाद कराती हैं। आशा है कि सामाजिक सरोकारों को रूपायित करती ये कविताएं पाठकों को पसंद आएंगी। विभिन्न प्रकार के रूप-स्वरूप एवं आकर्षक शैलियों से सुसज्जित इस काव्य संग्रह में विभिन्न रसों एवं आस्वादों को परोसने का भरपूर प्रयास, सामाजिक सरोकारों पर गहन चिंतन-मनन के साथ रूपायित किया गया है। समाज के मध्य सुधारात्मक प्रवृत्ति और लोक संस्कारों को सहेजने व संरक्षित करने की दिशा में यह कृति निश्चित रूप से ही अद्भुत भी सिद्ध होगी और मील-पत्थर की तरह स्थापित भी होगी। कविता संग्रह के प्रकाशन पर लेखक को बधाई है।

-फीचर डेस्क


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