भूजल के प्रति बेपरवाही चिंताजनक: कुलभूषण उपमन्यु, अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

By: कुलभूषण उपमन्यु, अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान Oct 14th, 2020 12:07 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

इस लापरवाही का ही परिणाम है कि आज हिमाचल के कई क्षेत्र भूजल दोहन के मामले में अर्द्ध नाजुक स्तर पर पहुंच गए हैं। ऊना जिले में पिछले 10 वर्षों में भूजल दो मीटर नीचे चला गया है। सोलन के नालागढ़ क्षेत्र में छह मीटर नीचे चला गया है। काला अंब और कांगड़ा, हमीरपुर क्षेत्र भी खतरे की ओर बढ़ रहे हैं। यानी एक ओर तो खतरा है भूजल के स्तर में गिरावट का और दूसरा खतरा है सतही जल का सूखते जाना…

जब से हमारे देश में कुओं-बांवडि़यों का प्रचलन हुआ है, तभी से भूजल के महत्त्व को समझा जाने लगा है। पर्शियन व्हील (रेहट) के आगमन से भूजल का प्रयोग आसान हो गया और सिंचाई के लिए भी भूजल का प्रयोग होने लगा। फिर हैंड पंप और ट्यूबवेल का जमाना आ गया। भूजल दोहन में भारी तेजी आ गई। सरकारी ट्यूबवेल के अलावा निजी ट्यूबवेल भी लगने लगे। अनियंत्रित दोहन के चलते भूजल स्तर में गिरावट भी आने लगी। भूजल एक सामुदायिक संसाधन है, किंतु निजी ट्यूबवेल प्रचलन से इस संसाधन का अनायास ही निजीकरण होता गया। निजी ट्यूबवेल कृषि और उद्योगों के लिए लगाए गए, वहीं पेयजल आपूर्ति के लिए हैंड पंप का प्रचलन बढ़ता गया। भूजल स्तर में अति दोहन के कारण आई गिरावट को रोकने और नियंत्रित दोहन के लिए कानूनी प्रावधान भी किए जाने लगे। 2005 में नया भूजल प्रबंधन अधिनियम और 2006 में नियम बनाए गए, जिसके अनुसार भूजल प्रबंधन को व्यवस्थित करने के प्रयास हो रहे हैं। सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड के अनुसार देश के चंडीगढ़, पंजाब, पुड्डूचेरी, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, दादरा-नगर हवेली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, केरल और मेघालय में भूजल के ज्यादा दोहन से भूजल स्तर कम होता जा रहा है।

2016-17 के मुकाबले 2017-18 में भूजल में औसत 9 मीटर की गिरावट आ गई। देश में 253 ब्लॉक अति दोहन के कारण नाजुक स्थिति में, 681 ब्लॉक अर्ध नाजुक स्थिति में और 4520 ब्लॉक सुरक्षित स्थिति में हैं। अति दोहन ग्रस्त ब्लॉकों की संख्या में हिमाचल प्रदेश भी कर्नाटक, दिल्ली, राजस्थान, पंजाब आदि राज्यों की श्रेणी में आ गया है। हिमाचल प्रदेश में 2005 में भूजल अधिनियम और 2006 में नियम बनाए जाने के बाद भूजल प्राधिकरण का गठन हुआ। प्राधिकरण की जिम्मेदारी है कि वह यह ध्यान रखे कि भूजल का दोहन प्राकृतिक तौर पर भूजल पुनर्भरण की क्षमता से ज्यादा न हो और इस तरह पैदा असंतुलन का प्रबंधन और नियंत्रण करे। भूजल का डाटा बनाया जाए और उसका लगातार नवीकरण किया जाए, भूजल दोहन के लिए परमिट देना, भूजल प्रयोग करने वालों की सूची रखना, रिग मालिकों की सूची रखना, भूजल पुनर्भरण स्थलों की पहचान और वर्षा जल-संग्रहण से भूजल भरण को बढ़ाने के प्रयास करना आदि प्राधिकरण की जिम्मेदारी है। हिमाचल प्रदेश में 1990 में हैंड पंप लगाने का क्रम शुरू हुआ, जिसके लिए तकनीकी सहयोग देने के लिए भूगर्भ शास्त्री की दैनिक वेतनभोगी के आधार पर नियुक्ति की गई। धीरे-धीरे हैंड पंप और ट्यूबवेल कार्यक्रम लोगों में काफी लोकप्रिय हो गया। इसलिए इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ता गया। उस दौर में हमारे क्षेत्र में भी हैंड पंप के लिए सर्वेक्षण हुआ। सर्वेक्षण कार्य पर आए भूगर्भ शास्त्री एक दिन मेरे पास रुके।

जाहिर है कि मैंने भी अपने गांव में हैंड पंप लगाने की प्रार्थना की। उन्होंने मुझे समझाया कि यहां भूजल उपलब्ध नहीं हो सकता क्योंकि भूगर्भीय चट्टानों और मिट्टी की संरचना ऐसी है जिसमें भूजल संचय की क्षमता नहीं है। यदि मैं निशान दे दूंगा तो पंप तो लग जाएगा, किंतु उसमें पानी नहीं आएगा। शुरू में यदि आ भी गया तो सतही पानी होगा जो दस-बीस दिन में सूख जाएगा। मैं चुप हो गया। बाद में दो-तीन वर्षों में कुछ लोगों ने दो-तीन जगह हैंड पंप लगवाए जो राजनीतिक निर्णय से लग तो गए, किंतु पानी नहीं दे पाए। यह खेल सारे प्रदेश में हुआ। अभी भी चल ही रहा है क्योंकि इसके पीछे कई तरह के स्वार्थ भी जुड़ गए हैं। अभी फिलहाल हैंड पंप लगाने पर प्रतिबंध लग गया है, किंतु ट्यूबवेल तो लग ही रहे हैं। प्रदेश में अब तक 40000 हैंड पंप और 8000 से अधिक ट्यूबवेल सरकारी क्षेत्र में लगाए जा चुके हैं और निजी क्षेत्र में कितने लगे हैं, उसकी कोई जानकारी नहीं है। यदि सफल हैंड पंपों का सर्वे किया जाए तो बहुत से सूखे पड़े हैंड पंप दिख जाएंगे। बहुत से पंप ऐसे स्थलों पर भी लगाए गए हैं जहां सतही जल उपलब्ध है। उससे कूहलें निकाल कर और पुरानी कूहलों की व्यवस्था को सुधार कर बिना भूजल को छेड़े सिंचाई हेतु जल आपूर्ति की जा सकती है या नल द्वारा पेयजल दिया जा सकता है। औद्योगिक क्षेत्रों में भी उद्योगों की जरूरतों की पूर्ति हेतु भूजल का भारी दोहन हो रहा है। इसके अलावा कई उद्योगों द्वारा उद्योगों का गंदा प्रदूषित पानी भूजल में इंजेक्शन द्वारा डाल दिया जाता है। इससे दोहरा नुकसान होता है। एक तो भूजल स्तर नीचे गिर रहा है, दूसरे जो बचा हुआ भूजल है वह प्रदूषित हो जाता है। इस लापरवाही का ही परिणाम है कि आज हिमाचल के कई क्षेत्र भूजल दोहन के मामले में अर्ध नाजुक स्तर पर पहुंच गए हैं। ऊना जिले में पिछले 10 वर्षों में भूजल दो मीटर नीचे चला गया है।

सोलन के नालागढ़ क्षेत्र में 6 मीटर नीचे चला गया है। काला अंब और कांगड़ा, हमीरपुर क्षेत्र भी खतरे की ओर बढ़ रहे हैं। यानी एक ओर तो खतरा है भूजल के स्तर में गिरावट और दूसरा खतरा है सतही जल का सूखते जाना। आखिर सतही जल स्रोत भी भूजल से ही निकलते हैं। भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण बहुत से जल स्रोत भी सूख गए हैं। छोटे नदी-नालों का पानी भी कई जगह सूख कर कम हो रहा है। इसलिए भूजल को गंभीरता से लेना होगा। भूजल प्राधिकरण को भी ज्यादा सक्रियता दिखानी होगी। हाइड्रोलॉजी विज्ञान के जानकारों की भूमिका मुख्य होनी चाहिए। भूजल दोहन के सभी फैसले वैज्ञानिक आधार पर लिए जाने चाहिए, राजनीतिक और वोट राजनीति के आधार पर नहीं। भूजल पुनर्भरण के प्रयासों को गति देनी होगी। वर्षा जल संग्रहण और रिचार्जिंग वेल उन क्षेत्रों में जरूरी होने चाहिए जहां भूजल स्तर में गिरावट दर्ज की जा रही है। अनावश्यक रूप से हर कहीं ट्यूबवेल की स्वीकृति देना भी ठीक नहीं। उन्हीं स्थलों पर स्वीकृति दी जाए जहां भूजल स्तर में दोहन और पुनर्भरण में संतुलन साधना संभव है। भूजल स्तर का डाटा सर्वेक्षण एक लगातार प्रक्रिया होनी चाहिए जिससे पता रहे कि कहां क्या सावधानी बरतने की जरूरत है।


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