जल विद्युत कितनी हरित: कुलभूषण उपमन्यु, अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

By: कुलभूषण उपमन्यु, अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान Oct 8th, 2020 12:06 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

इस प्रक्रिया से मीथेन गैस पैदा होती है जो कार्बन डाईआक्साइड से भी कई गुना ज्यादा ग्लोबल वार्मिंग कारक होती है। भारत में बांध की झीलों से प्रति वर्ष अनुमानतः 33.5 मिलियन टन मीथेन गैस पैदा होकर वातावरण में चली जाती है। इसके अतिरिक्त कुछ कार्बन डाईआक्साइड आदि अन्य ग्रीन हाउस गैसें भी पैदा होती हैं। दुनिया भर से  बांधों से होने वाले मीथेन उत्सर्जन का 27.86 फीसदी भारत से होता है और 18.13 फीसदी ब्राजील से होता है। खेद है कि जलवायु परिवर्तन नीति निर्माता इस तथ्य की हमेशा अनदेखी करते रहे हैं…

जबसे ग्लोबल वार्मिंग का खतरा सामने आया है और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने और कम करने के प्रयास शुरू हुए हैं, तबसे जल विद्युत को अक्षय ऊर्जा और हरित ऊर्जा के तौर पर प्रचारित करने और प्रोत्साहित करने के प्रयास बल पकड़ते जा रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय वित्त पोषण संस्थाओं द्वारा सीडीएम की व्यवस्था करके जल विद्युत को हरित सबसिडी देकर प्रोत्साहित किया जा रहा है, किंतु यह देखना जरूरी हो जाता है कि जल विद्युत सच में कितनी हरित है और जल  विद्युत के लिए परियोजना निर्माण के समय वनों का कितना नुकसान हो जाता  है जिसके कारण भी ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ जाता है। हाल ही में जिला किन्नौर, हिमाचल प्रदेश के संबंध में एक अध्ययन 2012 से 2016 तक के आंकड़ों के आधार पर हिमधरा द्वारा किया गया, प्रकाशित हुआ है, जिसमें किन्नौर में  लगी जल विद्युत परियोजनाओं द्वारा क्षतिपूर्ति वनीकरण और कैचमेंट एरिया  ट्रीटमेंट के तहत हुए वनीकरण की स्थिति का अध्ययन मौके पर जाकर किया गया है। जिला किन्नौर में 53 जल विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। यदि ये सब परियोजनाएं बन जाती हैं तो 22 फीसदी  सतलुज नदी बांधों में और 72 फीसदी सुरंगों में होगी।

इस समय यहां 3041 मेगावाट क्षमता की 15 योजनाएं चालू हैं। इनमें से चार को सीडीएम सबसिडी दी गई है। जिला में विकास कार्यों के लिए हस्तांतरित वन भूमि में से 90 फीसदी जल विद्युत परियोजनाओं के लिए हस्तांतरित की गई है। वन संरक्षण अधिनियम  के तहत हस्तांतरित वन भूमि से दुगने क्षेत्र में क्षतिपूर्ति वनीकरण करना जरूरी होता है। 2014 तक किन्नौर में विकास परियोजनाओं के लिए कुल 984 हेक्टेयर भूमि हस्तांतरित की गई जिसमें से 867 हैक्टेयर भूमि केवल जल  विद्युत परियोजनाओं के लिए हस्तांतरित की गई। हस्तांतरित भूमि के अलावा भी परियोजना निर्माण के समय वन विनाश होता है, किंतु उसे रोकने की व्यवस्थाएं दुरुस्त नहीं हैं। जितना वन विनाश परियोजना निर्माण में होता है, उससे ज्यादा ट्रांसमिशन लाइनों के कारण होता है। कड़छम वांगतू परियोजना के लिए जहां 1287 पेड़ कटे, वहां इस परियोजना की ट्रांसमिशन लाइन के लिए 3924 पेड़ काटे गए। वन विनाश के आकलन करते समय इमारती लकड़ी देने वाले या अन्य प्रमुख प्रजातियों के पेड़ ही गिने जाते हैं, कीमती जैव विविधता का कोई आकलन नहीं किया जाता। चरागाहों के विनाश का भी कोई आकलन नहीं होता, हालांकि इससे पशुधन के द्वारा प्राप्त आजीविका नष्ट होती है। बहुत सी ऐसी प्रजातियों का नाश हो जाता है जिनका  दोबारा पनपना असंभव होता है। जैसे किन्नौर में पाए जाने वाले चिलगोजा के वृक्ष  और अनेक जड़ी-बूटियां भी दोबारा तैयार करना असंभव होती हैं। किन्नौर जैसी शीत मरुस्थलीय भूमि में वनस्पति रोपण वैसे भी आसान नहीं है। किन्नौर  में चिलगोजा के 2743 पेड़ कटे।

चिलगोजा महंगा मेवा है और स्थानीय समुदायों को हर साल इससे अच्छी-खासी आय हो जाती है। अब क्षतिपूर्ति वनीकरण का हाल जांचते हैं। किन्नौर में 1980 से 2013 तक 1930 हेक्टेयर वन भूमि में  वन रोपण हेतु 111.50 मिलियन रुपए प्राप्त हुए। इसके अलावा कैट प्लान के तहत 1628.20 मिलियन रुपए प्राप्त हुए, जिसमें से 2014 तक केवल 36 फीसदी ही राशि खर्च की गई। इसी से इस कार्य के प्रति गंभीरता का अंदाजा हो जाता है। इन क्षतिपूर्ति वनीकरण स्थलों पर 10 फीसदी रोपण ही सफल हुआ। 22 में से तीन स्थलों पर तो एक भी पौधा नहीं पाया गया। वनों में विदेशी प्रजातियों के रोपण से भी  स्थानीय परिस्थिति तंत्र पर दुष्प्रभाव पड़ता है। इस बात का भी ध्यान न रखते हुए विदेशी प्रजातियों का भी रोपण किया गया। पौध रोपण के नतीजों और  उनके कारणों के विश्लेषण की कोई व्यवस्था न होने के कारण एक के बाद एक असफलता होती रहती है, बिना कोई समाधान ढूंढे। 2008 के आसपास अभय शुक्ल  कमेटी का गठन हिमाचल उच्च न्यायालय की पहल पर हुआ था। इस समिति ने जल विद्युत परियोजनाओं के दुष्प्रभावों को कम करने के लिए कुछ सुझाव दिए थे। लगता नहीं कि उनका भी पालन करने की ओर किसी का ध्यान है। मुख्य सुझाव  थे कि 7000 फुट की ऊंचाई से अधिक वाले स्थानों पर परियोजनाओं को मंजूरी न दी जाए क्योंकि ये स्थल अत्यधिक संवेदनशील होते हैं। हिमालय बहुत ही नाजुक पर्वत शृंखला है। एक परियोजना के अंतिम छोर से नई परियोजना का प्रारंभ स्थल कम से कम पांच किलोमीटर दूर होना चाहिए, ताकि नदी का प्राकृतिक स्वरूप कुछ हद तक बचाया जा सके। इस तरह वन विनाश के कारण जल विद्युत हरित विकल्प तो नहीं ठहरता। इसके अलावा बांध में ठहरे जल की झील में दबे जैविक पदार्थ, वनस्पति आदि  उसमें आक्सीजन रहित सड़न प्रक्रिया द्वारा अपघटित होते हैं।

इस प्रक्रिया से मीथेन गैस पैदा होती है जो कार्बन डाईआक्साइड से भी कई गुना ज्यादा ग्लोबल वार्मिंग कारक होती है। भारत में बांध की झीलों से प्रति वर्ष अनुमानतः 33.5 मिलियन टन मीथेन गैस पैदा होकर वातावरण में चली जाती है। इसके अतिरिक्त कुछ कार्बन डाईआक्साइड आदि अन्य ग्रीन हाउस गैसें भी पैदा होती हैं। दुनिया भर से  बांधों से होने वाले मीथेन उत्सर्जन का 27.86 फीसदी भारत से होता है और 18.13 फीसदी ब्राजील से होता है। यह बात ब्राजील के इवान लिमा के द्वारा किए गए अध्ययन से सामने आई है। खेद है कि जलवायु परिवर्तन नीति निर्माता इस तथ्य की हमेशा अनदेखी करते रहे हैं। बांध प्रभाव के विशेषज्ञ हेमांशु ठक्कर के निम्न सुझाव ध्यान देने योग्य हैं, कि इन दुष्प्रभावों से बचने के लिए बांधों के वैश्विक स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग पर पड़ने वाले प्रभाव का स्वतंत्र वैज्ञानिक अध्ययन होना चाहिए। बांधों से उत्सर्जित मीथेन को  लाभकारी प्रयोग के लिए कैसे इकट्ठा किया जा सकता है और पर्यावरण प्रभाव आकलन में मीथेन उत्सर्जन के दुष्प्रभाव को शामिल किया जाना चाहिए।


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