कृपया बंद करें ये शाब्दिक बलात्कार: डा. चंद्र त्रिखा, वरिष्ठ साहित्यकार-पत्रकार

By: डा. चंद्र त्रिखा, वरिष्ठ साहित्यकार-पत्रकार Oct 15th, 2020 12:06 am

डा. चंद्र त्रिखा

वरिष्ठ साहित्यकार-पत्रकार

हाथरस की पीडि़ता से बलात्कार हुआ या नहीं, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक चैनल उस मासूम के साथ हुए हादसे की आबरू को तार-तार कर चुके हैं। इसे आप ‘शाब्दिक बलात्कार’ भी कह सकते हैं। यह अलग बात है कि शाब्दिक बलात्कार पर आईपीसी की धाराएं खामोश रहती हैं। बहस-मुबाहिसों का शोर इतना मचलता है कि पीडि़ता की चीखें उस शोर में दबकर रह जाती हैं। शोर मचाने वाले एंकर तब तक चीखते चले जाते हैं जब तक कोई नई ब्रेकिंग न्यूज जन्म नहीं लेती…

कटघरे में सिर्फ रिपब्लिक-टीवी के अर्नब गोस्वामी या कुछ अन्य मार्केटिंग एजेंसियां ही नहीं हैं, मीडिया की विश्वसनीयता भी संकट में है। अगर यह प्रमाणित होता है कि अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए फर्जीवाड़ा चलाया जा रहा है तो जांच के स्कैनर से बहुत से चैनलों को गुजरना पड़ सकता है। सामान्य लोगों, दर्शकों व पाठकों के लिए टीआरपी, बीएआरसी, पीपुल्स मीटर यानी बैरोमीटर आदि के गोरखधंधे आसानी से समझ में नहीं आ पाएंगे। आम आदमी के लिए यह सारा मामला एक फर्जीवाड़े का है जिसमें मीडिया के कुछ दिग्गज व कुछ विज्ञापन एजेंसियां फंसी हैं। थोड़ा टीआरपी को जान लें। यह एक ऐसा उपकरण है जिसके माध्यम से यह जाना जा सकता है कि किस चैनल के कौन से कार्यक्रम को ज्यादा पसंद किया जाता है। यह जानने के लिए कुछ हजार घरों में ‘डिवाइस’ लगाई जाती है जो कुछेक विशिष्ट टीवी कार्यक्रमों की लोकप्रियता को रिकार्ड करती है। इस ‘डिवाइस’ को पीपल्स मीटर भी कहा जाता है। सामान्यतः उन स्थानों को गुप्त रखा जाता है, जहां ये पीपल्स मीटर लगाए जाते हैं। पूरे काम की देखरेख बीएआरसी नामक एक संगठन करता है।

विज्ञापन एजेंसियां या बड़े-बड़े उद्योग इसी टीआरपी के आधार पर विज्ञापन जारी करते हैं। संकट सिर्फ टीआरपी के फर्जीवाड़े का नहीं है। संकट समग्र रूप से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की घटती हुई विश्वसनीयता का है। पहले भी फेक न्यूज के ठप्पे लगते रहे हैं। अब स्थिति यह है कि जो एंकर ज्यादा चीख सके या पैनलिस्टों को ज्यादा चीखने पर उकसा सके, उसे बढि़या बताया जा रहा है। अगर खबर समीक्षा या विश्लेषण को ठोक बजाकर दिया जाना है तो उसके लिए सभ्य भाषा या सभ्य आवाज या सभ्य बॉडी लैंग्वेज का कोई अकाल नहीं पड़ा है। अब टीवी चैनलों एवं कुछेक एंकरों को यह तथ्य कौन समझाए कि चीखने-चिल्लाने वाले बहस-मुबाहसों को दर्शकों का एक बड़ा वर्ग पसंद नहीं करता। एक चर्चा सामान्य रूप से होने लगी है कि एक-दूसरे पर ‘गोदी-मीडिया’ या ‘मोदी-मीडिया’ या ‘बिकाऊ मीडिया’ का आरोप लगाने वाले मीडिया-कर्मी सामान्य जनता में पूरे मीडिया की छवि को तार-तार कर रहे हैं। सुशांत राजपूत, रिया, कंगना रणौत, सिने जगत का नशा व्यापार आदि को जितना खींचा गया, उससे निकले निष्कर्ष मोहभंग करने वाले थे। उन दिनों यानी इन विषयों को लंबा खींचने वाले दिनों में अधिकांश चैनलों को कोरोना भी भूल गया और अन्य कई महत्त्वपूर्ण समाचार भी याद नहीं रहे थे। मकसद सिर्फ  टीआरपी बढ़ाने और विज्ञापन जुटाने का ही रह गया था। वस्तुस्थिति यह है कि इस शोरोगुल में इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया में व्यापक स्तर पर छंटनी भी हुई और बहुत से ‘आईकोनिक’ यानी बहुचर्चित एंकर व न्यूज रीडर कहां सरक गए या सरका दिए गए, पता ही नहीं चला। अब स्थिति यह है कि मीडिया की विश्वसनीयता पर गंभीर संकट उमड़ रहा है। मगर मीडिया के सूत्रधार अभी भी इस गंभीर संकट को तैयार नहीं हैं। उनकी अपनी ही गढ़ी हुई कसौटियां हैं, अपने ही सांचे हैं जिनमें जो ढल जाए सिर्फ वही सच है।

इस समय बहुचर्चित एंकरों व समाचार वाचकों व विश्लेषकों में रवीश कुमार, आशुतोष, सुधीर चौधरी, रजत शर्मा, मीमांसा मलिक, अंजना ओम कश्यप और अर्नब गोस्वामी आदि हैं। कभी इस फेहरिस्त में पुण्य प्रसून वाजपेयी थे, दीपक चौरसिया थे, कमाल खान थे। अब धीरे-धीरे ये नाम कमोबेश हाशिए पर हैं। कमेंटेटर के रूप में पुराने नाम अब लगभग गायब हो चुके हैं। मनोरंजन-कार्यक्रमों में अभी भी अमिताभ बच्चन के ‘केबीसी’ की प्रतीक्षा रहती है। शेष सब पिछड़ जाते हैं। मगर बात खबरों के सूत्रधारों की है। मोदी चाहे कोई भी सकारात्मक काम कर दिखाएं, एनडीटीवी उन्हें सकारात्मक कवरेज नहीं देगा। जीटीवी, आजतक और इंडिया टीवी के अपने-अपने बैरोमीटर हैं। ये घमासान कभी-कभी बेहद तीखा हो जाता है। हाथरस की पीडि़ता से बलात्कार हुआ या नहीं, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक चैनल उस मासूम के साथ हुए हादसे की आबरू को तार-तार कर चुके हैं। इसे आप ‘शाब्दिक बलात्कार’ भी कह सकते हैं। यह अलग बात है कि शाब्दिक बलात्कार पर आईपीसी की धाराएं खामोश रहती हैं। बहस-मुबाहिसों का शोर इतना मचलता है कि पीडि़ता की चीखें उस शोर में दबकर रह जाती हैं। शोर मचाने वाले एंकर तब तक चीखते चले जाते हैं जब तक कोई नई ब्रेकिंग न्यूज जन्म नहीं लेती।

उन्हें किसी सुशांत के बाद कोई रिया या कोई कंगना रणौत की दरकार है। हर राजनीतिक दल के अपने-अपने वार-रूम हैं। हर चैनल के लिए अलग-अलग प्रवक्ता हैं। प्रवक्ताओं के लिए भी ‘ब्रीफ’ विशेष रूप से तैयार किए जाते हैं। उन्हें दलीलों व आंकड़ों का खेल खेलने के लिए पूरे सूत्र थमाए जाते हैं यानी तथ्य और सत्य को सभी दलों के वार रूम पहले अपनी-अपनी नीतियों के अनुसार गढ़ते हैं और फिर उन गढ़े हुए तथ्यों व सत्य को दर्शकों-श्रोताओं के समक्ष परोस दिया जाता है। सबके अपने-अपने अर्द्धसत्य होते हैं। वर्तमान संदर्भ में मंटो याद आ रहा है। उसने कहा था, ‘एक बिका हुआ पत्रकार, एक कोठे वाली तवायफ-सा होता है। मगर जब इज्जत की बात आती है तो तवायफ की इज्जत होती है।’ फिल्मी दुनिया में ‘खबरों के फर्जीवाड़े’ पर अनेक फिल्में बनी थीं। कुछ वर्ष पूर्व तत्कालीन राष्ट्रपति के निधन की खबर भी ‘भूलवश’ या जानबूझकर प्रसारित हो गई थी। जेपी की मृत्यु की भी झूठी खबर और फिर शोक की लहरों का उमड़ना आदि का प्रसारण भी हुआ था। ये सिलसिला पुराना भी है, पेचीदा भी और व्यावसायिक अनैतिकता से भी जुड़ा है। बार्क यानी ब्राडकास्ट ऑडिएंस रिसर्च काउंसिल द्वारा इस समय 40 हजार पीपल्स मीटर लगाए हुए हैं। कुल लगभग 16 करोड़ टीवी सेट देश में लगे हैं। बार्क ने एक रिसर्च एजेंसी ‘हंसा’ की सेवाएं ली हैं। इस समय हंसा, बार्क आदि सभी संदेहों के घेरे में हैं।


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