पूर्ण सतगुरु की कृपा

By: बाबा हरदेव Oct 3rd, 2020 12:20 am

पूर्ण सतगुरु की कृपा द्वारा जब प्रभु प्राप्ति हो जाए, तो फिर न मिलने को कुछ बचता है, न पाने को कुछ बचता है। क्योंकि जिसने प्रभु को उपलब्ध करने का लाभ पा लिया, इसे परम लाभ मिल गया और ऐसे परम लाभ को प्राप्त करने वाला व्यक्ति महान से महान दुख के समय भी अविचलित रहता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि वास्तव में हम दुख से विचलित ही इसलिए होते हैं कि हमें आनंद का कोई अनुभव नहीं है, यदि  आनंद का अनुभव हो, तो दुख से हम विचलित होंगे ही नहीं। वास्तविकता यह भी है कि प्रभु प्राप्ति के बिना जैसे हम जी रहे हैं इस प्रकार हम दुख में ही जीते चले आ रहे हैं।

नानक दुखिया सब संसार।

सो सुखिया जिस नाम आधार।।

 (आदि ग्रंथ)

अतः जो व्यक्ति पूर्ण सतगुरु की कृपा से आनंद को उपलब्ध हो जाता है, उसे फिर बड़े से बड़ा दुख भी विचलित नहीं कर पाता, क्योंकि फिर गहरे में यह आनंद में जीता है। दुख बाहर ही आते हैं, दुख बाहर ही घूमते हैं और चले जाते हैं। यदि हमारे भीतर निरंतर आनंद की वर्षा हो रही हो, तो बाहर कितना ही बड़ा दुख क्यों न आ जाए, तो वह बाहर ही रहता है, भीतर प्रवेश नहीं कर पाता। संपूर्ण अवतार बाणी में भी कहा है।

जो कुछ भी रब कर देंदा ए इसनूं मिट्ठा लगदा ए।

जिसदे दिल बिच चौबीस घंटे नाम दा दीवा जगदा ए।।

अब यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि दुख भीतर तभी प्रवेश करता है जब भीतर दुख मौजूद हो क्योंकि समान को समान आकर्षित करता है अर्थात यदि भीतर दुख मौजूद हो, तो बाहर से दुख को खींचता है। अगर हमारे मन में आनंद मौजूद हो, तो वह बाहर के दुख को वापस लौटा देता है, इसे निमंत्रण नहीं देता।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि जिसने परम लाभ प्राप्त किया, जिसने प्रभु को अनुभव किया फिर बड़े से बड़ा दुख उसे विचलित नहीं कर सकता है क्योंकि फिर विचलित होने का कोई कारण ही नहीं रह जाता फिर अवस्था कुछ ऐसी हो जाती है जैसे किसी को पता चल जाए कि उसके पास अनंत खजाना मौजूद है और यदि उस खजाने में से एक कौड़ी गिर जाए तो फिर उसे क्या दुख होगा अथवा उसे क्या कमी आ जाएगी? ऐसे ही जिसे इस बात का पता चल जाए कि इसके पास जो है यह कभी नहीं मरता तो इस अवस्था में छोटी-मोटी बीमारी की बात तो अलग रही मौत स्वयं भी उसके द्वार पर आकर खड़ी हो जाए, तो भी उसे विचलित होने का कारण नहीं रह जाता।

क्योंकि यदि अमृत का अनुभव है, तो मौत स्पर्श भी नहीं कर पाती, मौत बाहर ही रहती है भीतर प्रवेश नहीं कर सकती। महात्मा ठीक ही फरमाते हैं कि जीवन का यह बहुत बड़ा नियम है कि हमारे भीतर वही प्रवेश करता है, जो हमारे भीतर मौजूद होता है अन्यथा हमारे भीतर प्रवेश नहीं कर सकता।


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