रौरिक ट्रस्ट को चाहिए आर्थिक संबल: रमेश चंद्रा, क्यूरेटर, रौरिक ट्रस्ट

By: रमेश चंद्रा, क्यूरेटर, रौरिक ट्रस्ट Oct 10th, 2020 12:06 am

रमेश चंद्रा

क्यूरेटर, रौरिक ट्रस्ट

निकोलस रौरिक व अटल बिहारी वाजपेयी को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि धरोहर संस्थान अंतरराष्ट्रीय रौरिक मैमोरियल ट्रस्ट के अस्तित्व को ट्रस्ट के आर्थिक सुदृढ़ीकरण के माध्यम से अखंड रखा जाए। हिमाचल प्रदेश में स्वतंत्र व आत्मनिर्भर हिमाचल पुरातत्त्व विभाग की स्थापना अनिवार्य है, जिसमें हिमाचल प्रदेश के संग्रहालयों (सरकारी व गैरसरकारी) को सम्मिलित किया जाना समय की मांग है। तभी रौरिक पैक्ट की भावना के अनुरूप पूरे हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहरों का उचित संरक्षण हो पाएगा…

रूस के महान कलाकार, पुराविद, जो कुल्लू घाटी की कला, संस्कृति, नैसर्गिक सौंदर्य एवं पुरातात्त्विक क्षमताओं से प्रभावित होकर वर्ष  1928 में रूस के पीटरबर्ग से आकर जिला कुल्लू के नग्गर गांव में अपनी पत्नी हैलेना रौरिक, जिन्होंने अग्नि योग पर लेखन कार्य किए हैं, कलाकार पुत्र स्वेतोस्लाव रौरिक व वैज्ञानिक पुत्र जॉर्ज रौरिक, पुत्रवधू देविका रानी, जो भारतीय सिनेमा जगत की चमकता सितारा थी, के साथ आकर बस गए व 20 वर्षों तक ऐतिहासिक नगरी नग्गर को अपनी कर्मस्थली बनाया। एक महान कलाकार, वैज्ञानिक, पुरातत्वविद, चिंतक एवं रौरिक एस्टेट नग्गर के संस्थापक निकोलस रौरिक वैश्विक संस्कृति की आकाश गंगा का एक विशिष्ट सितारा हैं। नग्गर गांव में बसने के उपरांत उन्होंने उरूस्वती शोध संस्थान व रौरिक आर्ट गैलरी की स्थापना की। उरूस्वती शोध संस्थान की गतिविधियों का मूल सिद्धांत पूर्व के प्राचीन ज्ञान और पश्चिम की आधुनिक वैज्ञानिक खोजों का संयोजन करना था। एक कलाकार के रूप में निकोलस रौरिक ने 7000 पेटिंगों का सृजन किया। एक पुराविद के रूप में यूरोप के कई भागों, रूस, मध्य एशिया और भारत के हिमाचल क्षेत्र में अन्वेषण व उत्खनन कार्य किए। उनका लक्ष्य मानवता के स्रोत एवं कल्चर के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करना था। रौरिक के कुछ चित्रों में ऐतिहासिक स्रोत, फोकलोर, लीजैंड और हिमाच्छादित पहाड़ों की झलक हम पाते हैं।

उनके पुरातत्त्व कार्यों का दायरा पाषाण युग से मध्य काल रहा। रौरिक ने औपनिवेशिक शासन से भारत की आजादी का गर्मजोशी से स्वागत किया था। उन्होंने भारत-रूस मैत्री की नींव रखी। कलाकार ने लिखा है कि जहां संस्कृति है वहां शांति है व अत्यंत जटिल समस्याओं का समाधान है। निकोलस रौरिक हिंदू धर्म से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने ईसाई होते हुए भी इच्छा व्यक्त की थी कि उनका दाह संस्कार हिंदू रीति-रिवाजों के साथ किया जाए। नौ अक्तूबर 1874 को जन्मे निकोलस रौरिक का 13 दिसंबर 1947 को निधन हो गया। नग्गर वासियों ने उनका दाह संस्कार किया, नग्गरवासी निकोलस रौरिक का बहुत सम्मान व प्यार करते थे। रौरिक ने भी कुल्लू घाटी और नग्गरवासियों को बहुत कुछ दिया। एक चट्टान के टुकड़े को दाह संस्थान स्थल पर स्थापित किया जिसमें बैनर ऑफ  पीस के चिन्ह के नीचे हिंदी में वाक्य मुद्रित है ः ‘भारत के महान मित्र महर्षि निकोलस रौरिक के शरीर का अग्नि संस्कार इस स्थल पर 15 दिसंबर 1947 को किया गया।’ निकोलस रौरिक को भारत के मित्र, महर्षि की संज्ञा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने दी थी, जो वर्ष 2003 में रौरिक ट्रस्ट नग्गर में आए थे। हिमालय के भूदृश्यों की उनकी शृंखला असाधारण रुचि उत्पन्न करती है। इंदिरा गांधी ने निकोलस रौरिक की पेंटिंग को देखते हुए कहा था कि इन चित्रों में हिमालय और भारत की आत्मा को देखा जा सकता है।

रौरिक को पुरातत्त्व विकास के पुरोधा के रूप में हम पाते हैं। निकोलस रौरिक के पुरातात्त्विक अभियानों-अन्वेषणों से प्राप्त पुरातात्त्विक सामग्री के परिणामस्वरूप रौरिक एस्टेट नग्गर में चार संग्रहालयों में पुरातत्त्व भारत-रूस की सांस्कृतिक धरोहरें प्रदर्शन पर हैं जिनमें रौरिक आर्ट गैलरी, स्वेतोस्लाव देविका रानी गैलरी, हिमालयन फोक आर्ट व उरूस्वती म्यूजियम सम्मिलित हैं। रौरिक ट्रस्ट सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण एवं संवर्द्धन, पर्यटन, कलात्मक, साहित्यिक, शैक्षणिक गतिविधियों का संस्थान है। रौरिक ट्रस्ट नग्गर में पहुंचकर देवताओं की उपस्थिति अनुभव की जा सकती है। रौरिक ट्रस्ट वैश्विक आशाओं व अपेक्षाओं का स्थान है। निकोलस रौरिक के कारण नग्गर को अंतरराष्ट्रीय पहचान मिली। ट्रस्ट कुल्लू घाटी में पर्यटन विकास में सहायक सिद्ध हुआ है। ट्रस्ट को कहीं से भी सहायतानुदान प्राप्त नहीं है। सांस्कृतिक धरोहरों के संरक्षण व संवर्द्धन के इस संस्थान को आर्थिक सुदृढ़ीकरण के लिए सभी के आशीर्वाद की जरूरत है ताकि इसका अस्तित्व बना रहे।

निकोलस रौरिक ने विश्व को रौरिक के अधिनियम, जिसे रौरिक पैक्ट भी कहा जाता है, का विचार दिया जिसके अंतर्गत युद्ध या शांति का समय हो, कला, विज्ञान, ऐतिहासिक स्मारकों को कोई भी राष्ट्र क्षति नहीं पहुंचाएगा। वैश्विक स्तर पर रौरिक पैक्ट को मान्यता मिली जिसमें भारत भी सम्मिलित था। 15 अगस्त 1935 को व्हाइट हाउस वाशिंगटन में राष्ट्रपति रुजवेल्ट की उपस्थिति में सदस्य राष्ट्रों द्वारा इस पर हस्ताक्षर किए गए। 21वीं शताब्दी में भी सांस्कृतिक विरासत की क्षति का मुद्दा उतना ही प्रासंगिक है। रौरिक अधिनियम या रौरिक पैक्ट के झंडे को बैनर ऑफ पीस की संज्ञा दी गई। झंडे के बीच के भाग में एक बड़े घेरे में तीन छोटे गोले शांति चिन्ह भूत, वर्तमान व भविष्य की अनंत एकता के प्रतीक हैं एवं कला, विज्ञान और धर्म के भी परिचायक हैं। प्राचीन स्मारकों में यह चिन्ह अक्षर दृष्टिगोचर होते हैं। बैनर ऑफ  पीस को चिंतामणि की संज्ञा भी दी गई है जो वैश्विक प्रसन्नता का प्राचीन विचार है।

निकोलस रौरिक की उपलधियां व कार्य हिमाचल पुरातत्त्व के लिए एक लाइट हाउस की तरह हैं जो उपेक्षित व सुप्त अवस्था में हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2003 में रौरिक ट्रस्ट में पधारने पर इच्छा जाहिर की थी कि रौरिक ट्रस्ट नग्गर की भारत-रूस की सांस्कृतिक धरोहरों को उचित संरक्षण प्रदान किया जाए व ट्रस्ट के आर्थिक सुदृढ़ीकरण के लिए संबंधित सरकारें अपना योगदान दें। निकोलस रौरिक व अटल बिहारी वाजपेयी को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि धरोहर संस्थान अंतरराष्ट्रीय रौरिक मैमोरियल ट्रस्ट के अस्तित्व को ट्रस्ट के आर्थिक सुदृढ़ीकरण के माध्यम से अखंड रखा जाए। हिमाचल प्रदेश में स्वतंत्र व आत्मनिर्भर हिमाचल पुरातत्त्व विभाग की स्थापना अनिवार्य है, जिसमें हिमाचल प्रदेश के संग्रहालयों (सरकारी व गैरसरकारी) को सम्मिलित किया जाना समय की मांग है। तभी रौरिक पैक्ट की भावना के अनुरूप पूरे हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहरों का उचित संरक्षण हो पाएगा।


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