सात्विक दान

By: श्रीराम शर्मा Oct 3rd, 2020 12:20 am

सात्विक प्रवृत्ति वाला आत्मज्ञ सात्विक दान को जीवन में उपयुक्त स्थान देता है। यदि सच कहा जाए तो अखिल विश्व की समस्त गतिविधि दान के सतोगुण नियम के आधार पर चल रही हैं। परमेश्वर ने कुछ ऐसा क्रम रखा है कि पहले बोओ तब काटो। जो कोई भी तत्त्व अपने दान की प्रक्रिया बंद कर देता है, वही नष्ट हो जाता है, विकृत एवं कुरूप हो जीवन युद्ध में धराशायी हो जाता है। संसार की किसी भी जड़ चेतन यहां तक कि मंद बुद्धि पशु जाति तक देखिए। सर्वत्र दान का अखंड नियम कार्य कर रहा है। यदि कुएं जल दान देना बंद कर दें, खेत अन्न देना रोक दें, पेड़ फल, पत्तियां, छाल देना बंद कर दें, हवा, जल, धूप, गाय, भैंस इत्यादि पशु अपनी सेवाएं रोक दें, तो समस्त सृष्टि का संचालन बंद समझिए। माता-पिता बालक का ठीक पालन करना बंद कर दें, तो चेतन जीवों का बीज ही मिट जाएगा और सबसे बड़ा दानी परमेश्वर तो हर पल, हर घड़ी हमें कुछ न कुछ प्रदान करता रहता है। उसकी रचना में दान तत्त्व प्रमुख है। दान का अभिप्राय क्या है?

यह है संकीर्णता से छुटकारा आत्म संयम का अभ्यास एवं दूसरों की सहायता भावना की उत्तेजना। दान करते समय हमारे मन में यश प्राप्ति की इच्छा, फल की आशा या अहंकार की भावना नहीं होनी चाहिए। दान तो प्रसन्नता, सुख और संतोष का दाता है। दान करना स्वयं में एक आनंद है। देते समय जो संतोष की उच्च सात्विक दृष्टि अंतःकरण में उठती है, वह इतनी महान है कि कोई भी भौतिक सुख उसकी तुलना नहीं कर सकता। पैसा, धन तथा वस्तुएं सबके काम में आनी चाहिए। यदि आपके पास व्यर्थ पड़ा है, तो उन्हें मुक्त कंठ से दूसरे को दीजिए। पैसे की, रुपए की बुरी तरह चौकीदारी करने वाला कंजूस दान के स्वर्गीय आत्म सुख का रसास्वादन करने से वंचित रहता है।

जो मुक्त हृदय से देता है, वह वास्तविक आत्मवादी है। जो दान करता है, वह मानव के हृदय में रहने वाले एक सात्विक प्रवाह की रक्षा करता है, स्वार्थों को मारता है और तुच्छ संकीर्णता से ऊपर उठता है।  यदि आप दूसरों को देंगे, तो परमात्मा आपको और देगा। किंतु यदि आप कंजूसी करेंगे, तो आपको मिलना बंद हो जाएगा। जो उदार है, दानी है, सत्कर्मों में अपनी सामर्थ्य भर देता है वास्तव में वही बुद्धिमान है तथा बुद्धिमानों के ही पास दैवी संपदाएं रहती हैं। देश, काल, पात्र का विचार करके केवल कर्त्तव्य बुद्धि से द्रव्य अथवा आवश्यक वस्तु का दान करना श्रेयस्कर है। मनुष्य एकत्रित किए हुए धन की सदुपयोग करने का अच्छे से अच्छा समय तथा मार्ग यही है कि वह अपने जीवन काल में ही प्रतिदिन उसका परोपकार (दान) में सदुपयोग करे। ऐसा करने से उसका जीवन अधिक उन्नत और विकसित होगा।

एक समय ऐसा आएगा, जब धन का ढेर छोड़कर मरने वाले की पीछे से निंदा होगी। आशय यह है कि परोपकार का पुण्यकार्य भविष्य की पीढि़यों तथा दृष्टियों को सौंप जाने की अपेक्षा जीते जी अपने हाथ से कर जाने में ही धन का अधिक सदुपयोग होता है। सात्विक दान ही परमगति को देने वाला मुक्ति स्वरूप साधन है।


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