सितंबर माह की सर्वाधिक मार्मिक दास्तान

By: -डा. चंद्र त्रिखा Oct 3rd, 2020 12:25 am

आखिर 86 वर्षीया दफिया उर्फ  आयशा बेगम ने 73 वर्ष के बाद यानी भारत-पाक विभाजन के बाद पहली बार अपने भतीजों और पोतों को जब वॉट्सऐप पर देखा, तो वह पागलों की तरह सैलफोन की स्क्रीन को चूमने लगी। वह लगातार रोए जा रही थी। 86 वर्ष की आयशा बेगम पाकिस्तानी पंजाब के बहावलपुर क्षेत्र में एक गांव मैलसी में रहती है। सैलफोन पर दूसरी ओर आयशा बेगम के गांव से लगभग 223 किमी. दूर भारतीय क्षेत्र के बीकानेर के एक कस्बे मोरखाना के दो शख्स खोजूराम और कालूराम चिपके हुए थे। दोनों ही आयशा बेगम के खोए हुए भाई के पोते थे। आयशा अपनी सरायकी बोली में बात कर रही थी। उसका गांव मैलसी, बहावलपुरी क्षेत्र में पड़ता था, जहां पुराने बुजुर्ग सिर्फ सरायकी या बहावलपुरी बोली ही बोल पाते थे। इधर उसके दोनों पोते मारवाड़ी ही बोल पा रहे थे। वे जिस क्षेत्र में पैदा हुए थे, वह अब मारवाड़ का हिस्सा था। बीच में मोरखाना कस्बे का ही एक पंजाबी पृष्ठभूमि वाला शख्स दोनों ओर की बातचीत का अनुवाद करके उन्हें समझा रहा है। दादी, पोते एक ही बोली में बात न कर पाते हुए भी जार-जार रोए जा रहे थे। आंसुओं की भाषा दोनों तरफ बराबर समझ आ रही थी। आयशा रोते-रोते बता रही थी उसने अपने परिवार वालों की तलाश के लिए जाने कितने ही लोगों को घी के पीपे दिए, मुंह मांगे इनाम की पेशकश की, मगर उसके परिवार का कोई अता पता नहीं चला। आयशा सिर्फ  इतना ही बता पाती कि उसके परिवार के लोग उस गांव से थे, जहां मोरों की बहुतायत थी और गांव का नाम भी मोरों से मिलता-जुलता था। इसके अलावा उसे कुछ भी याद नहीं था। पिछले बर्ष अगस्त 2019 में एक पाकिस्तानी यूट्यूबर मुहम्मद आलमगीर ने जब आयशा बेगम की अश्रु भीगी दास्तान सुनी, तो उससे रहा नहीं गया। उसने 85 वर्षीया बुजुर्ग औरत की फोटो व दास्तान यूट्यूबर पर डाल दी। विभाजन के समय उस बुजुर्ग की उम्र लगभग 13 वर्ष थी।

भारत-पाक विभाजन से पूर्व मेघवाल जाति का वह परिवार बीकानेर और वर्तमान पाक पंजाब के कुछ कस्बों, शहरों में आया-जाया करता था। जब विभाजन हुआ और चौतरफा मारकाट का सिलसिला शुरू हुआ, तो पूरा मेघवाल परिवार बीकानेर की ओर चल पड़ा। रास्ते में दफिया उर्फ आयशा का कुछ गुंडों ने अपहरण कर लिया। उसका मजहब बदल दिया गया और एक मुस्लिम युवक से निकाह भी करा दिया गया। वह सात बच्चों की मां बनी। मगर वह हर दिन अपने परिवार व अपने भाइयों को याद करती रही। आयशा के 40 वर्षीय पोते नसीर खान ने बाद में एक भारतीय संवाददाता को फोन पर बताया कि उसके दादी अपने भाई के बच्चों छोटू, बसलू और मीरा को अकसर याद करती थीं वह यह भी बताती कि उसके भाई की शादी मोरों वाले गांव में हुई थी। वह उस शादी के किस्से भी बड़े चाव से सुनाती।

इधर यट्यूबर आलमगीर को अपने एक दोस्त मुनव्वर अली शेख से इस कहानी का पता चला। उससे रहा नहीं गया और उसने पूरी दास्तान व आयशा बेगम का फोटो यूट्यूब पर डाल दिया। इस दास्तान को दिल्ली में रहने वाले 34 वर्षीय जैद मुहम्मद खान ने यूट्यूब पर देखा। उसे वैसे भी भारत-पाक विभाजन की ऐसी दास्तानों में काफी दिलचस्पी थी। उसने आयशा बेगम की सारी दास्तान फेसबुक पर डाली और बीकानेर के कुछ परिचितों से संपर्क भी किया। इससे पहले जब उसने ‘मोरों’ से जुड़े नामों वाले कुछ कस्बों को गूगल पर तलाश किया, तो उसे लगा कि बीकानेर के नजदीक वाला मोरखाना शायद वही गांव हो सकता है जहां अलसू राम, छोटू राम या मीरा बाई या गंगू राम के परिवार रहते होंगे। उसने गूगल पर ही उपलब्ध उस गांव के राजस्व रिकार्ड को खंगाला, तो उसे अधिकांश वही नाम मिल गए। जैद मुहम्मद को अब उम्मीद लगी कि वह शायद आयशा बेगम के पोतों को तलाश कर लेगा। उसने नैट के सहारे ही मोरखाना के 20 वर्षीय दुकानदार भरत सिंह को फोन किया और उसने मोरखाना के किसी ऐसे परिवार का पता लगाने का आग्रह किया जिसके कुछ बुजुर्ग विभाजन के समय पाकिस्तान में छूट गए हों। इसी माह 13 सितंबर को भरत सिंह ने सारी जानकारी एकत्र करके खोजू राम के दरवाजे पर दस्तक दी और उन्हें वॉट्सऐप फोन काल के जरिए पहले जैद मुहम्मद खान से मिलाया फिर उनकी बुआ दादी आयशा बेगम से पाकिस्तान में बात कराई और फिर शुरू हुआ खोए हुए संबंधियों के बीच आंसुओं के सैलाब का सिलसिला। इसी बीच परतें खुलती गई। आयशा बेगम दरअसल अपने सभी तीनों बेटों की किसी न किसी हादसे में मौत से मानसिक दबाव में आ गई थी। वह बार-बार अपने भाइयों को याद करने लगती।

पिछली 14 अगस्त को उसने स्थानीय उर्दू अखबारों में एक विज्ञापन भी छपवाया, अपना फोटो भी छपवाया और अपील की कि अगर उसे उसके खोए हुए परिवार का अता पता तलाश करने में कोई उसकी मदद करेगा, तो वह उसे मुंह मांगा इनाम भी देगी। उसने उस विज्ञापन में अपनी दास्तान भी बयान की थी। उसने बताया था कि वह एक हिंदू लड़की थी और विभाजन के समय भागदौड़ में वह बख्ंिशदा खान नामक एक मुसलमान के हत्थे चढ़ गई थी, जिसने सिर्फ एक बैल लेकर उसे अहमद बख्श पुत्र गुलाम रसूल के हाथ बेच दिया। कुछ समय बाद अहमद बख्श ने उससे निकाह कर लिया और उस शादी से उसके तीन बेटे व चार बेटियां पैदा हुई थी। उसने आगे उसी विज्ञापन में यह भी बयान किया कि हर बार 14 अगस्त के दिन वह अपने भाइयों व परिवार वालों को याद करती है और उनके नाम पर पीर की दरगाह पर जाकर चिराग भी जलाती है। इसी विज्ञापन के अंत में उसने मदद की अपील करते हुए आखिरी ख्वाहिश के रूप में अपने पुराने परिजनों से मिलवाने का मार्मिक आग्रह किया था। अब वह हर जुम्मे की नमाज के वक्त अपने अल्लाह से सिर्फ  यही दुआ मांगती है कि एक बार उसका वीजा लग जाए, तो वह मोरखाना जाकर अपने भतीजों से मिल सके। उसे उम्मीद है कि कोई ‘सखी पीर’ उसकी मदद जरूर करेगा।


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