श्रम और संघर्ष की उपज हैं लोक कलाएं 

By: डा. विजय विशाल Oct 11th, 2020 8:00 am

लोकसाहित्य की दृष्टि से हिमाचल कितना संपन्न है, यह हमारी इस नई शृंखला का विषय है। यह शृांखला हिमाचली लोकसाहित्य के विविध आयामों से परिचित करवाती है। पेश है इसकी दूसरी किस्त…

डा. विजय विशाल

मो.-9418123571

आज हम एक रुग्ण और खंडित समाज में जी रहे हैं, जिसके प्रगति की ओर बढ़ते कदम अवरुद्ध हैं। हमारी सोच को विकृत करने की गहरी साजिश राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय, दोनों ही स्तरों पर बड़ी बारीकी से बुनी जा रही है। सपनों का एक ऐसा संसार हमारे सामने रचा जा रहा है, जो न हमारी संस्कृति से मेल खाता है, न हमारी वास्तविकताओं से जुड़ा है। परिणामस्वरूप हमारा पूरा समाज अपनी स्वस्थ लोक कलाओं तथा लोक परंपराओं से कटता जा रहा है। हमारी लोक कलाएं विलुप्त होने के कगार पर हैं। लोक परंपराओं में व्याप्त सहभागिता की भावनाएं, सौहार्दपूर्ण धार्मिक समन्वय की परंपरा, सामाजिक मूल्यों से परिपूर्ण लोक कलाएं क्रमशः सांप्रदायिक तनाव व मूल्य रहित फूहड़ कलाओं में परिवर्तित होती जा रही हैं। ऐसे नाजुक समय में संस्कृति संरक्षण के सघन प्रयास न हुए तो देश की आत्मा नहीं बचने वाली। तेज बाजारीकरण, खगोलीकरण, उपभोक्तावाद और संचार माध्यमों का बढ़ता दखल, इन्होंने हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को अपनी चपेट में ले लिया है। बचाव का रास्ता अपनी लोक-संस्कृति के संरक्षण में ही है। कुछ लोग लोक-संस्कृति को सीमित अर्थ में लेते हैं।

लोक-संस्कृति में केवल लोकगीत, लोक गाथाएं, लोक कथाएं आदि ही नहीं आते, बल्कि चित्रकला, संगीतकला, नृत्यकला, नाट्यकला व हस्तकौशल भी आते हैं। इसी तरह जब हम ‘लोक-संस्कृति’ कहते हैं तो कुछ लोग इसे तथाकथित सभ्य व शिक्षित समाज की संस्कृति से भिन्न असभ्य, अशिक्षित, शारीरिक श्रम करने वालों अथवा पिछड़े हुए गंवार लोगों की संस्कृति मानते हैं। इसलिए वे लोक संस्कृति का परिचय करवाने के लिए गांव के लोगों का नाच-गाना दिखाने का प्रबंध करते हैं। उनकी दृष्टि में लोक-संस्कृति ग्राम जीवन की पिछड़ी हुई संस्कृति होती है। उनके लिए लोक-संस्कृति की रक्षा करने का मतलब होता है पिछड़ी हुई ग्राम्य संस्कृति की रक्षा करना। दूसरी ओर लोक-संस्कृति की रक्षा की बात परंपरा की सुरक्षा के नाम पर भी की जाती है। ऐसा कहने वाले परंपरा को जीवंत, गतिशील और विकासमान नहीं मानते। उनके लिए जैसे लोक पिछड़ा हुआ होता है, वैसे ही परंपरा भी पिछड़ी हुई चीज होती है। जबकि परंपरा का अर्थ है एक के बाद दूसरा अर्थात् एक के बाद दूसरे का होते रहना।

परंपरा का अभिन्न संबंध मनुष्य और उसके समाज से है। समाज की गतिशीलता परंपरा के बदलने का कारण भी है। इसलिए लोक-संस्कृति का बचाव परंपरा के स्थिर या अतीतोन्मुखी रूप के आधार पर नहीं किया जा सकता। परंतु लोक नृत्य अक्सर पुरानी पोशाक पहन कर किया जाता है जिससे बहुतों की दृष्टि में लोक-संस्कृति का अर्थ स्थिर, पिछड़ी या निम्नतर संस्कृति है। एक ऐसी संस्कृति जिसमें रूढि़यां भरी हों तथा गति न बची हो। दूसरी ओर लोक-संस्कृति की जो तस्वीर प्रचारतंत्र प्रस्तुत करता है, उससे वह दूरदराज के किसी समाज की अद्भुत गतिविधियों की शृंखला प्रतीत होती है। वे इसे मात्र मनोरंजन के लिए ही सामने लाते हैं। वस्तुतः क्या ऐसा ही है? हालांकि लोक-संस्कृति आज भी इस देश की बहुसंख्यक समाज की किसी न किसी रूप में जीवंत संस्कृति है। मगर विशिष्ट वर्ग के हितों की सेवा में अपना जीवन खपा देने वाला ‘लोक’ खुद अपनी संस्कृति से उदासीन एवं अलग-थलग पड़ता जा रहा है। संस्कृतियों की निधियों को आत्मसात् करने की उसकी ताकत निरंतर क्षीण होती जा रही है। फलस्वरूप हृसशील शहरी संस्कृति गांव के भीतर पहुंच रही है और विचित्रताओं के नाम पर लोक संस्कृति शहर पहुंच रही है।

चूंकि लोक संस्कृति किसी देश की सबसे महान विरासत है, उसके कला-रूप, मेहनतकश देशवासियों की बौद्धिक क्षमता के प्रतीक हैं। इसलिए यह परखना जरूरी हो जाता है कि लोक संस्कृति का सही रूप क्या है? इसका असली वाहक कौन है? इससे हमारे सरोकार का सही अर्थ क्या है? वास्तव में किसी भी देश की संस्कृति का उद्गम वहां का लोक जीवन ही है। लोक जीवन का रस ही समाज की जड़ों को सींचता है। अतः कहा जा सकता है कि मनुष्य की सामूहिक ऊर्जा का स्रोत लोक संस्कृति ही होती है। काल और परिस्थितियों के अनुरूप समाज में होने वाले परिवर्तनों से सांस्कृतिक मूल्य भी परिवर्तित होते रहते हैं।

संस्कृति के अंतर्गत समाज की आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक व राजनीतिक व्यवस्था का सम्मिलित प्रवाह निरंतर गतिमान रहता है। संस्कृति वस्तुतः व्यक्ति और समाज के मानसिक विकास की परिचायक है तथा लोक संस्कृति जन-जन के श्रम से सिंचित होकर प्रकृति की गोद में पलती-पनपती रही है। बहुसंख्यक शोषित वर्ग व निम्न समुदाय की सहज अभिव्यक्ति लोक-संस्कृति में होती रही है। अतः उनकी अविकसित चेतना की सीमाएं भी इसमें प्रतिबिंबित होती हैं। इसीलिए कहीं वह बहुत स्पष्ट है तो कहीं उलझावों और तंत्रों में फंसी हुई। कहीं उसमें स्वछंदता और माधुर्य है तो कहीं वह अश्लील भी लग सकती है। उसमें स्थानीयता का गहरा रंग है तो जटिलता और अनगढ़पन भी। किंतु विरोध का स्वर लोक संस्कृति की प्रमुख ऐतिहासिक विशेषता है। शोषक वर्ग के विरुद्ध प्रतिरोध और संघर्ष कहीं धीमा तो कहीं प्रखर, लोक संस्कृति का जीवंत पक्ष है। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि लोक संस्कृति व उसमें समाहित लोक कलाएं श्रम और संघर्ष की उपज हैं। उनकी महता लोक-संस्कृति के रूढ़ तथा प्रतिबाधित रूप के संरक्षण-प्रदर्शन में नहीं है, जैसा हम आधुनिक कला भवनों और मंचों पर देखते हैं। उसकी महता नए विज्ञान और बौद्धिकता की रोशनी में विभिन्न कलाओं समेत उसके बुनियादी गुणों के परिष्कार और विकास में है। लोक संस्कृति उभरेगी तो लोक की बौद्धिक व भौतिक ताकत में भी उभार आएगा। लोक-संस्कृति मजबूत होगी तो लोक मजबूत होगा। लोक मजबूत होगा तो निश्चय ही लोक संस्कृति भी मजबूत होगी।

विमर्श के बिंदु

मो.- 9418130860

अतिथि संपादक ः डा. गौतम शर्मा व्यथित

हिमाचली लोक साहित्य एवं सांस्कृतिक विवेचन -2

-लोक साहित्य की हिमाचली परंपरा

-साहित्य से दूर होता हिमाचली लोक

-हिमाचली लोक साहित्य का स्वरूप

-हिमाचली बोलियों के बंद दरवाजे

-हिमाचली बोलियों में साहित्यिक उर्वरता

-हिमाचली बोलियों में सामाजिक-सांस्कृतिक नेतृत्व

-सांस्कृतिक विरासत के लेखकीय सरोकार

-हिमाचली इतिहास से लोक परंपराओं का ताल्लुक

-लोक कलाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य

-हिमाचल के जनपदीय साहित्य का अवलोकन

-लोक गायन में प्रतिबिंबित साहित्य

-हिमाचली लोक साहित्य का विधा होना

-लोक साहित्य में शोध व नए प्रयोग

-लोक परंपराओं के सेतु पर हिमाचली भाषा का आंदोलन

पड़दादी की भाषा बानी पहाड़ी

सुदर्शन वशिष्ठ

मो.-9418085595

जहां तक बोलियों का संबंध है, हिमाचल या भारत ही नहीं, पूरे विश्व भर में बोलियों पर संकट छाया हुआ है। विश्व में छह हजार से ऊपर भाषाएं हैं तो भारत में छह सौ के लगभग भाषाएं गिनाई गई हैं। भाषा से अभिप्रायः भाषा और बोली, दोनों से है। भाषा विज्ञानियों के अनुसार किसी भी भाषा के लिए यह आवश्यक नहीं है कि उसका कोई साहित्य हो। जो भाषा अपने भाव व्यक्त करने में सक्षम है, संप्रेषणीय है, वह एक पूर्ण भाषा है, बोली नहीं। आज पूरे विश्व में बहुत सी भाषाएं लुप्त होने के कगार पर हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार ग्लोबलाइजेशन के कारण जिंदा रहने वाली भाषाओं में चीनी, अंग्रेजी, स्पेनिश, रूसी और हिंदी; ये पांच भाषाएं हैं। यह हर्ष की बात है कि हिंदी भी जिंदा भाषाओं में शामिल है।

यूनेस्को के सर्वेक्षण के अनुसार बहुत सी भाषाएं समाप्त हो जाएंगी या समाप्ति के कगार पर हैं, इनकी संख्या भारतवर्ष में अधिक है। पंजाबी भाषा, जो इतने बड़े क्षेत्र की एक समृद्ध भाषा है, भी समाप्ति के खतरे की सूची में है। कुछ भाषाएं तो समाप्त हो ही गई हैं। इन में अंडेमान, असम, मेघालय, केरल तथा मध्यप्रदेश की जनजाति भाषाएं गिनाई गई हैं। इन भाषाओं के लुप्त होने के दो मुख्य कारण हैं। पहला तो यह कि इन्हें बोलने वाले ही समाप्त हो गए। सन् 2007 तक अंडमान में एक भाषा को बोलने वालों की संख्या मात्र दस थी तो असम में एक भाषा के ज्ञाता पचास लोग थे। पिछले दिनों अंडमान में एक बोली का अंतिम व्यक्ति भी मृत्यु को प्राप्त हो गया। दूसरे यह कि कुछ भाषाओं को बड़ी भाषाओं, जैसे हिंदी, अंग्रेजी ने लील लिया। अपनी मातृ भाषाओं से लोग हिंदी या अंग्रेजी की ओर चले गए। जैसे पंजाबी अब अपने बच्चों से पंजाबी में बात नहीं करते।

वे हिंदी में बात भी नहीं करते बल्कि सीधे अंग्रेजी में बात करते हैं। हिमाचली या पहाड़ी को हम प्रायः मातृ भाषा कहते हैं। जबकि अब यह मातृभाषा नहीं है। अब बच्चों की माएं पहाड़ी नहीं बोलतीं। शहरों में तो मां हिंदी भी नहीं बोलतीं। गांव में भी अब बच्चे टाई लगा कर स्कूल जाते हैं और गुड मॉनिंग करते हैं। घर में काम करने वाली बाई आते ही गुड मॉर्निंग करती है। हमारे बच्चे अब सत्तासी-अट्ठासी नहीं जानते। उन्हें ऐटीसेवन और एटीऐट कह कर समझाना पड़ता है। अब दादी भी पहाड़ी नहीं बोलती। अतः अब यह दादी-परदादी भाषा बनती जा रही है। अब यह माता की भाषा नहीं, दादी की भाषा है जिसकी घर में कोई नहीं सुनता। सरकारी स्तर पर बात की जाए तो हिमाचल में भाषायी सरोकारों और साहित्य का उदय सन् 1966 के बाद हुआ। या यूं कहें कि विशाल हिमाचल बनने के बाद यहां भाषायी और साहित्यिक उथल-पुथल इकट्ठा शुरू हुई। सन् सत्तर-अस्सी तक आते-आते यहां कई तरह के साहित्यकार उपस्थित हुए जिन्होंने नए और समसामयिक साहित्यिक सरोकारों को जन्म दिया। उस समय एक लेखक वे थे जो केवल हिंदी में लिखते थे। दूसरे वे जो ‘पहाड़ी आंदोलन’ से जुड़े और केवल पहाड़ी में लिखने वाले हुए।

तीसरे वे थे जो हिंदी-पहाड़ी, दोनों में लिखते रहे। कुछ ऐसे भी थे जो हिंदी, पहाड़ी, संस्कृत और अंग्रेजी; सभी भाषाओं में लिखने का दावा करते थे। इनमें भी कुछ हिंदी लेखक पहाड़ी के धुर विरोधी थे, जो पहाड़ी का मजाक उड़ाते थे। कुछ लिखते तो हिंदी में थे, मगर पहाड़ी की निंदा नहीं करते थे। ऐसे माहौल में साहित्यकारों की बड़ी संख्या सामने आई। 11 जुलाई 1882 को डाडासीबा में जन्मे पहाड़ी गांधी बाबा कांशीराम को पहाड़ी का आदि लेखक माना जाता है। मगर यह सच्चाई है कि पहाड़ी एक जरूरत के रूप में तब उभरी जब पंजाब के पुनर्गठन की लटकती तलवार ने पहाड़ी क्षेत्रों में अपनी भाषा की ओर ध्यान दिलाया।

हिमाचल के कुछ पर्वतीय भागों को हिमाचल में मिलाने के स्थान पर पंजाब में शामिल किए जाने की मुहिम के समय पहाड़ी भाषा व संस्कृति एक जरूरत के रूप में सामने आई। राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा समय-समय पर तरह-तरह की सिफारिशों के समक्ष पुराने हिमाचल और नए हिमाचल; दोनों के नेताओं ने सूझबूझ दिखा कर आपस में मिलने की योजना बनाई और भाषा और संस्कृति के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की बात उठाई गई। जनगणना में ‘पहाड़ी’ को अपनी मातृभाषा लिखाने का अभियान चला। इन सारे प्रयासों के बाद प्रथम नवंबर 1966 का ही वह दिन था जब केंद्र ने कांगड़ा, कुल्लू, लाहुल-स्पीति, ऊना, शिमला, नालागढ़, डलहौजी, बकलोह के पहाड़ी क्षेत्रों को हिमाचल में मिला कर विशाल हिमाचल का गठन किया।

सरकार में भाषा-संस्कृति विभाग बनने से पहले शिक्षा विभाग के अंतर्गत ‘राज्य भाषा संस्थान’, फिर पहाड़ी भाषा के उत्थान के लिए 30 सितंबर 1970 को हिमाचल प्रदेश विधानसभा में एक प्रस्ताव पारित होने के बाद दो अक्तूबर 1972 को ‘हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी’ का गठन और इसी वर्ष ‘भाषा एवं सांस्कृतिक प्रकरण विभाग’ का गठन इस दिशा में महत्त्वपूर्ण घटनाएं थीं। क्योंकि अकादमी के अध्यक्ष और विभाग के निर्माता श्री लालचंद प्रार्थी पहाड़ी भाषा व संस्कृति के उत्थान के प्रति प्रतिबद्ध थे, अतः उस समय पहाड़ी भाषा का एक आंदोलन सा खड़ा हो गया। उस दौर में विभाग तथा अकादमी द्वारा पहाड़ी के उत्थान के लिए जो कार्य किए गए, वे सराहनीय थे। अनेक प्रोत्साहनों ने प्रदेश में पहाड़ी के प्रति एक वातावरण तैयार हुआ। नित नए लेखक और कवि सामने आने लगे। किसी भी भाषा को संविधान की अनुसूची में डालने का कार्यक्षेत्र केंद्र सरकार है, न कि राज्य सरकार का। और यह पूर्णतया राजनीतिक मामला है; लेखक लोग इस बात को नहीं जानते, समझते।

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि तत्कालीन सरकार ने अपने को हिंदी राज्य न कह कर ‘पहाड़ी राज्य’ कहा और हिंदी राज्यों में ग्रंथ अकादमियों को मिलने वाला एक करोड़ रुपया ठुकरा दिया। फलतः हिमाचल प्रदेश में अन्य हिंदी राज्यों की तरह ग्रंथ अकादमी नहीं बन पाई। भाजपा सरकार आई तो कहा गया, हम तो हिंदी राज्य हैं, हमें ग्रंथ अकादमी के लिए एक करोड़ दिया जाए।

तब तक देर हो चुकी थी। केंद्र ने मना कर दिया। प्रारंभ में जो भाषाएं आठवीं अनुसूची में सुगमता से आ गई, सो आ गई। उसी आदि काल में हर हिंदी भाषी राज्य को केंद्र से ग्रंथ अकादमी की स्थापना के लिए एक एक करोड़ मिले, सो मिले। जो चीजें बिन मांगे मिल रहीं थीं, समय निकल जाने पर मांग कर भी नहीं मिल पाईं।

पुस्तक समीक्षा

एकांकियों को समर्पित ‘रचना’ का विशेषांक

साहित्य व सामाजिक संवेदना को समर्पित त्रैमासिक पत्रिका ‘रचना’ का जनवरी-दिसंबर 2020 का अंक एकांकियों के लिए समर्पित है। यह एकांकी विशेषांक – तीन है। इस पत्रिका के संपादक प्रसिद्ध साहित्यकार डा. सुशील कुमार फुल्ल तथा डा. आशु फुल्ल हैं। अपने मुख्य आलेख ‘हिमाचल में हिंदी साहित्य रचना’ में संपादक डा. सुशील कुमार फुल्ल कहते हैं कि हिमाचल का हिंदी साहित्य निरंतर विकासमान रहा है। लेकिन यह भी सच है कि कुछ विधाओं में साहित्यिक श्रीवृद्धि अधिक रही है और कुछ में अपेक्षाकृत कम। जहां तक कविता एवं कहानी की बात है, इन दोनों विधाओं में वरिष्ठ, कनिष्ठ तथा हर उम्र के लेखक बहुत सक्रिय रहे हैं। जहां तक साहित्य की अन्य विधाओं, विशेषकर एकांकी का प्रश्न है, इसका सृजन अपेक्षाकृत कम हुआ है। फिर भी कई ऐसे लेखक हैं जो एकांकी के जरिए विविध परिदृश्यों का सजीव चित्रण करने में सफल रहे हैं।

इस विशेषांक में कुल 10 एकांकी संग्रहित किए गए हैं। सुदर्शन वशिष्ठ की वसुधा की डायरी, कृष्णचंद्र महादेविया की जल ही जीवन है तथा खाली कप, अरविंद ठाकुर की हैंगओवर तथा गले की हड्डी इस विशेषांक की मुख्य एकांकियां हैं। इसके अलावा कल्याण जग्गी की वह जीवित हो उठा, त्रिलोक मेहरा की उल्लू, कल्याण जग्गी की बापू नाराज हो जाएंगे, डा. गंगाराम राजी की नो मम्मी, नो तथा सुशील कुमार फुल्ल की छवि नामक एकांकियां भी पाठकों को जरूर पसंद आएंगी, ऐसा विश्वास है। इस तरह देखें तो हिमाचल में हिंदी एकांकी लेखन पर विराम नहीं लगा है, किंतु उसकी गति अपेक्षाकृत शिथिल है।

इस विशेषांक में दी गई एकांकियों में सबसे पहले पात्रों का परिचय दिया गया है, जिससे एकांकी का पठन आसान हो जाता है। वसुधा की डायरी नामक एकांकी काफी लंबी है, लेकिन अन्य एकांकियां इतना विस्तार लिए हुए नहीं हैं। साहित्य में रुचि रखने वाले पाठकों को यह एकांकी संग्रह अवश्य ही पसंद आएगा। पत्रिका के निरंतर प्रकाशन के लिए संपादक महोदय को बधाई है।

-फीचर डेस्क

संस्कृत साहित्य का हिमाचल दर्पण

संस्कृत के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् डा. ओमप्रकाश शर्मा द्वारा लिखित तथा हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी द्वारा प्रकाशित ‘हिमाचल संस्कृत साहित्य का इतिहास’ पुस्तक के समग्र गंभीर अध्ययन के पश्चात् मुझे इसे संस्कृत साहित्य के हिमाचली संदर्भ में हिमाचल दर्पण कहने में न कोई संकोच है और न ही ऐसा कहना अतिशयोक्ति जान पड़ रहा है। आठ अध्यायों में विभक्त तथा 424 पृष्ठों के विस्तृत फलक पर आस्तीर्ण इस पुस्तक में लेखक ने अपनी लंबी साधना के बाद जिस मेहनत व लगन से प्राचीन एवं अर्वाचीन संस्कृत साहित्य को साकल्येन संकलित कर दिया है, उससे इसे हिमाचल दर्पण कहना अनुचित नहीं लगता। पुस्तक के प्रथम अध्याय ‘हिमाचल के परिवेश में संस्कृत भाषा और साहित्य के सूत्र’ खोजते हुए यह स्वीकार किया है कि हिमाचल का भूभाग ऋषि परंपराओं की स्थापनाओं से ओत-प्रोत है। इन्हीं परंपराओं में हिमाचल संस्कृत साहित्य की पृष्ठभूमि के सूत्र विद्यमान हैं। बड़ी बारीकी से विश्लेषण करते हुए इन सूत्रों को ढूंढ निकाल कर बखूबी प्रस्तुत भी कर दिया है। पुस्तक के द्वितीय अध्याय में लेखक ने जिस गहनता से ‘हिमाचल में विद्यमान प्रशस्ति, राजवंशावली, माहात्म्य एवं पाण्डुलिपि साहित्य’ की खोज की है, वह भी मननीय है और अनेक शिलालेखों के उद्धरण देते हुए लेखक ने माना है कि शिलालेख से स्पष्ट हो जाता है कि सातवीं शताब्दी तक हिमाचल में संस्कृत का प्रयोग निर्बाध होता रहा होगा, क्योंकि जमीन के कागजात आदि सभी संस्कृत में लिखे होते थे।

इस अध्याय में लेखक ने अति प्राचीन ताम्रपत्रों, प्रशस्तियों तथा राजवंशावलियों के मूलपाठ को पाठकों के समक्ष रखकर अपने गहन अनुसंधानपरक अध्ययन-मनन का खूब परिचय दिया है। ‘हिमाचल के संस्कृत साहित्यकार एवं उनकी रचनाएं’ लेकर तैयार किए तृतीय अध्याय में हिमाचल के संस्कृत साहित्यकारों के जीवन दर्शन एवं उनकी रचनाओं के परिचयात्मक उल्लेख के साथ ‘हिमाचल कर्मभूमि के साहित्यकार’ वर्ग से भी परिचित करवाया गया है। ‘हिमाचल का काव्य साहित्य’ नामक चतुर्थ अध्याय में लेखक ने हिमाचली लेखकों के संस्कृत काव्यों, पंचम अध्याय में ‘नीति एवं स्तोत्र साहित्य’, छठे अध्याय में ‘गद्य साहित्य’ तथा सातवें अध्याय में ‘नाट्य साहित्य’ का उद्धरणों के साथ विस्तृत विवेचन किया है जिससे लेखक के गंभीर अध्ययन-चिंतन-मनन का स्वयं पता चल जाता है। यद्यपि इस पुस्तक में टंकण एवं मुद्रण के समय रह गई वर्ण विन्यासात्मक त्रुटियां थोड़ी अखरती हैं, तथापि वे नगण्य सी लगने लगती हैं। इस अति महत्त्वपूर्ण ग्रंथ के लेखन-प्रकाशन के लिए लेखक एवं प्रकाशक वर्ग को कोटिशः बधाई।

-आचार्य ओमप्रकाश ‘राही’

बदलती साहित्यिक दुनिया: कोरोना संकट में साहित्य की मजबूत मचान

कोरोना संकट साहित्यिक गतिविधियों पर लॉक तो नहीं लगा पाया, बल्कि लेखकों को इसने नए-नए रचनात्मक उपाय उपलब्ध करा दिए। कहते हैं कि बहते हुए पानी के रास्ते में यदि अवरोध पैदा कर दिया जाता है तो वह अपनी निरंतरता बरकरार रखने के लिए दूसरा रास्ता ढूंढ लेता है। तभी तो कथा सम्राट प्रेमचंद ने कहा, ‘विपदा थोड़े समय के लिए रुकावट तो पैदा करती है, लेकिन अपने साथ नए रास्ते, नई खोज व नए उपाय भी सामने ले आती है।’ प्रेमचंद का यह कथन कोरोना संकट पर फिट बैठता है। इस संकट के कारण लोग अपने-अपने घरों में तो बंद हुए, लेकिन इसने साहित्यकारों को लेखन, चिंतन-मनन के लिए कई सृजनात्मक उपाय भी सुझा दिए। लेखकों ने संकट की घड़ी में न सिर्फ  लेखन पर स्वयं को और अधिक केंद्रित किया, बल्कि सोशल साइट्स के जरिए अपने पाठकों से सीधा संवाद भी करने लगे। वे घर बैठे वेब के जरिए अलग-अलग स्थानों पर हो रही साहित्यिक गोष्ठियों (जिन्हें वेबिनार कहा जाता है) में भाग लेने लगे। इन वेबिनार की पहुंच आम पाठकों तक होने के कारण देशभर की अकादमियों जैसे कि साहित्य अकादमी नई दिल्ली, केंद्रीय हिंदी संस्थान नई दिल्ली, हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी भी सोशल साइट्स पर वेबिनार आयोजित करने लगी।  हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी विगत चार महीने से  कला संवाद पर अब तक 130 से अधिक वेबिनार आयोजित कर चुकी है।

साहित्य के विविध विषयों पर आई विशेषज्ञों की राय

यदि आप फेसबुक पर नजर दौड़ाएं तो फेसबुक साहित्य पत्रिका, अंतरराष्ट्रीय सरस सृजन, अटूट बंधन, शब्द कलश, गूंज ः अभिव्यक्ति दिल की, मैथिली मचान, इन दिनों मेरी किताब आदि जैसे साहित्यिक ग्रुप पेज लॉकडाउन के दौरान बने। एक पेज तो ‘लॉकडाउन सृजन मंच’ नाम से भी है। ये सभी साहित्यिक ग्रुप पेज वेबिनार के माध्यम से न सिर्फ  नई-पुरानी किताबों पर चर्चा आयोजित करते हैं, बल्कि साहित्य के विविध विषयों पर विशेषज्ञों की राय भी आम पाठकों के सामने रखते हैं। समकालीन कविता और आलोचना, मीरा से वर्तमान काल तक स्त्री कविता का व्याकरण एवं बौद्धिकता, महादेवी वर्मा की कविताओं में प्रकृति और स्त्री, हिंदी गीत-नवगीत परंपरा और कुछ प्रश्न, बाल साहित्य : उद्देश्य, सरोकार और संप्रेषण, प्रोफेशन और साहित्यिक यात्रा आदि जैसे विविध महत्त्वपूर्ण विषय साहित्यिक वेबिनार की बानगी भर पेश करते हैं।

घर-ऑफिस बैठे मिला मंच

साहित्यिक वेबिनार के माध्यम से कवि गोष्ठी और मुशायरा भी खूब आयोजित हो रहे हैं। सबसे अच्छी बात तो यह रही कि इन गोष्ठियों से न सिर्फ  साहित्यकार, बल्कि देश के अलग-अलग स्थानों पर पुलिस और मेडिकल सेवा से जुड़े कोरोना वारियर्स का साहित्य प्रेम भी सामने आया। महाराष्ट्र में पुलिस महानिरीक्षक कैसर खालिद न सिर्फ  अपनी ड्यूटी में मुस्तैद हैं, बल्कि जब भी समय मिलता है, वेबिनार के माध्यम से वे मानवीय जीवन, रिश्ते आदि पर शेरो-शायरी भी कर रहे हैं। वे कहते हैं, ‘इनसान और इनसानियत को लेकर आपके जहन में जब कई सारी बातें आती हैं तो रचना अपने-आप जन्म ले लेती है, जिसे लोगों तक पहुंचाने के लिए अब कहीं जाने की जरूरत नहीं। सोशल साइट घर-ऑफिस बैठे आपको मंच प्रदान कर देता है।’ दूसरी अच्छी बात यह रही कि इन वेबिनारों ने कई युवा लेखक-लेखिकाओं को उनकी रचनात्मक कृतियों के लिए प्रकाशक भी मुहैया करा दिए। रांची के लेखक ओमप्रकाश को अपनी किताब के लिए फेसबुक पर ही प्रकाशक मिल गए। लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन प्लेटफॉर्म किंडल पर प्रकाशित होने वाली किताबों की संख्या में जबरदस्त इजाफा हुआ, जिसमें लेखक स्वयं ही अपनी किताब (सॉफ्ट कॉपी) प्रकाशित कर सकता है।

रस्किन बॉन्ड का नायाब आइडिया

लॉकडाउन में बच्चों के चहेते लेखक रस्किन बॉन्ड ने पाठकों से जुड़ने का एक नायाब आइडिया निकाला। उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो पर बच्चों को कहानियां सुनाना शुरू कर दिया। इस बारे में वे जानकारी देते हैं, ‘ऑल इंडिया रेडियो की तरफ  से मुझे कहानियां सुनाने का प्रस्ताव आया। फोन पर ही अपनी कुल पंद्रह कहानियों को मैंने आवाज दी। मेरे एक हाथ में फोन का रिसीवर रहता, तो दूसरे हाथ में किताब। मेरी आवाज को ऑल इंडिया रेडियो वालों ने दिल्ली में अपने घर पर रिकॉर्ड किया और उसे फिर स्टूडियो में ट्रांसफर कर दिया। आपको यह जानकर काफी अच्छा लगेगा कि कहानियों पर बच्चों और पैरेंट्स से काफी अच्छा रेस्पॉन्स आया।’ वैसे रस्किन पहले भी अपने कुछ नॉवेल को ऑडियो बुक्स में रूपांतरित करा चुके हैं।

फेसबुक लाइव का बढ़ा क्रेज

हिमाचल के सुप्रसिद्ध कहानीकार एसआर हरनोट कहते हैं, ‘वर्तमान में जिस तरह की परिस्थितियां पैदा हुई हैं, वेबिनार बढि़या विकल्प बनकर सामने आया है। इन वेबिनारों का लाभ दूना हो जाता है, जब इनसे ज्यादा से ज्यादा साहित्यिक रुचि के लोग जुड़ते हैं। बस इनकी गुणवत्ता बढि़या होनी चाहिए।’ इन दिनों लेखकों के बीच फेसबुक लाइव का भी क्रेज बढ़ गया है। युवाओं के साथ-साथ वरिष्ठ लेखक भी बढ़-चढ़ कर इसमें हिस्सा ले रहे हैं। दर्जनों वरिष्ठ लेखकों ने सिर्फ  लाइव कार्यक्रम से जुड़ने के लिए फेसबुक पर अपने-अपने अकाउंट खोल लिए। भारत के साथ-साथ विदेश के हिंदी लेखक भी फेसबुक लाइव से जुड़े। प्रसिद्ध कथाकार ममता कालिया ने भी युवा पाठकों से जुड़ने के लिए फेसबुक लाइव को अपनाया। वे बताती हैं कि सोशल साइट्स पर लोगों के व्यक्तित्व के अलग-अलग शेड्स देखने को मिलते हैं। आपकी किताबों, बातों के लिए कुछ की राय सकारात्मक होती है तो कुछ की नकारात्मक।

-स्मिता सिंह


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