स्वामी जी की वाणी

By: स्वामी विवेकानंद Oct 24th, 2020 12:20 am

गतांक से आगे…

हमारे जैसी दानशील जाति संसार में नहीं है। इस देश में यदि भिखारी के पास भी मुट्ठी भर अन्न होगा तो वह उसमें से आधा दान कर देगा। यह दृश्य केवल भारतवर्ष में ही देखने को मिलेगा। हम यथेष्ट अन्न दान कर चुके, अब अन्य दो प्रकार के दान देने आगे बढ़ना है धर्म और विद्या का दान। यदि देह मन शुद्ध न हो, तो मंदिर में जाकर महादेव की पूजा करना व्यर्थ है। जिसकी देह और मन दोनों पवित्र हैं, महादेव जी उनकी प्रार्थना सुनते हैं। जो अशुद्ध स्वभाव होने पर भी दूसरों को धर्म सिखाने का दावा करते हैं, उनकी बुरी गति होती है। ब्रह्म पूजा तो मानस पूजा और चित्त शुद्धि ही असल चीज है। यदि यह न हो तो बाहरी पूजा करने से कुछ लाभ नहीं। चित्त का शुद्ध होना और दूसरों के भले के लिए उद्योग करना ही सभी प्रकार की उपासनाओं का सार है। शिव की यथार्थ पूजा वे ही लोग करते हैं, जो दरिद्र, दुर्बल और रोगी में शिव का दर्शन करते हैं और जो सिर्फ मूर्ति में ही शिव की पूजा करता है, वह निराप्रर्वतक है। मंदिर में जाकर नित्य नियम से दर्शन करने वाले भक्त पर भी महादेव जी उतने प्रसन्न नहीं होते जितने उस व्यक्ति पर, जो जाति और धर्म की लिहाज छोड़कर एक ही दरिद्र व्यक्ति को शिव समझकर सेवा करता है। अनुभव करना ही धर्म का प्राण है। कुछ आचार नियमों को मानकर सभी चल सकते हैं।

 कुछ बातों को मानकर और कुछ परहेज रखकर सभी लोग व्यवहार कर सकते हैं, किंतु अनुभूति के लिए कितने आदमी व्याकुल होते हैं? व्याकुलता, ईश्वर प्राप्ति अथवा आत्मज्ञान के लिए उन्माद होना ही सच्ची धर्मपरायणता है। पराई सेवा पवित्र काम है। इस सत्कर्म के बल से चित्त शुद्ध होता है और सब के भीतर जो प्रभु निवास करते हैं, वे प्रकट हो जाते हैं। वे तो सभी के हृदय में विराजमान हैं। यदि शीशे के ऊपर धूल पड़ गई है या मैल जम गया है, तो उसमें हम अपना स्पष्ट प्रतिबिंब नहीं देख सकते। हमारे दर्पण पर भी उसी तरह अज्ञान और पाप का मैल जम गया है। सब से बढ़कर मैल है, स्वार्थपरायणता पहले अपनी फिक्र करना। जो पिता की सेवा करना चाहे, उन्हें उनकी संतान की सेवा पहले करनी पड़ेगी। पहले जगत के प्राणियों की सेवा करनी होगी। शास्त्रों में लिखा है, जो लोग भगवान के दासों की सेवा करते हैं, वही भगवान के श्रेष्ठ दास हैं। असल बात अनुभूति की है। हजारों वर्ष तक गंगा स्नान करते रहो, हजारों वर्ष तक निरामिष भोजन करते रहो, उसके द्वारा यदि आत्म विकास में सहायता न मिले तो समझ लेना चाहिए कि यह सब अकारथ गया और आचारहीन होने पर सैकड़ों आचार न्यौछावर हैं, वह अनाचार ही श्रेष्ठ है। हां, आत्म साक्षात्कार हो जाने पर भी लोक संग्रह के लिए आचारों को कुछ मानना ठीक है।


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