अतिथि देवो भव: पूरन सरमा, स्वतंत्र लेखक

By: पूरन सरमा, स्वतंत्र लेखक Nov 20th, 2020 12:06 am

‘अतिथि देवो भव’- इस उक्ति को जिस किसी व्यक्ति ने रचा है, अवश्य ही उसने किसी के यहां अत्यंत मात्रा में अतिथि-सुख प्राप्त किया होगा। संभव है जिन लोगों को आतिथ्य भोगने की लत है, उनसे वह व्यक्ति रिश्वत खा गया हो। आजकल रिश्वत से सब कुछ हो जाता है। इस महंगाई के युग में अतिथि को रिश्वत देने में क्या दिक्कत हो सकती है! इसलिए अवश्य ही अतिथि ने यह उक्ति अपने पक्ष में बनवाकर समाज में मान-सम्मान का उच्च दर्जा प्राप्त किया है। आतिथ्य देने वाले व्यक्ति ने अपने को भूखा रखकर अतिथि के पेट की भूख शांत की है। आतिथ्य देने वाले ने अपने धर्म का निर्वाह कर संतोष प्राप्त किया है तथा अतिथि ने मेवे-मिष्ठान और पकवान अपने उदर के सुपुर्द कर जबान का स्वाद ठीक किया है। कोई भी व्यक्ति जब किसी के यहां जाता है, उसी समय उसके मन में अतिथि बनने की भावना बलवती हो जाती है और गंतव्य तक पहुंचते-पहुंचते वह व्यक्ति पूर्ण रूप से अतिथि का रूप ले लेता है और जाते ही वह व्यक्ति उस स्थान पर बैठ जाता है जो कुछ विशिष्ट होता है।

अतिथि चाहता है-उसके स्वागत-सत्कार का प्रारंभ मौसम के अनुसार प्रयोग में लाए जाने वाले पेय पदार्थों से हो। इस दृष्टि से अतिथियों को दो वर्गों में बांटा जा सकता है। पहले वर्ग में वे अतिथि आते हैं, जिन्होंने अपने को समय के अनुसार ढ़ाल लिया है। इस श्रेणी में आने वाला अतिथि कुछ घंटों का होता है, वह चाय-पान-सिगरेट तथा हल्के नाश्ते में विश्वास रखता है। अब यह बात अलग है कि आतिथ्य करने वाला स्वयं भोजन करता हुआ मिल जाए तो ऐसे में अतिथि का भी भाग्य खुल जाता है और उसे भरपेट भोजन मिल जाता है। इस प्रकार के अतिथियों ने यह विधि अपनाई है कि वे थोड़ी-थोड़ी देर में दो-तीन जगह एक ही दिन में जाकर पूर्ण अतिथि-सुख प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं। इससे सामने वाले को ज्यादा क्षति नहीं होती और न ही उसे ज्यादा समय देना पड़ता है।

आतिथ्य करने वाला व्यक्ति सदैव अपनी औपचारिकताएं पूरी करके यथाशीघ्र अतिथि-पीड़ा से मुक्त होना चाहता है। इस प्रकार की श्रेणी में आने वाले अतिथि कई बार छोटे-छोटे ग्रुप बनाकर भी सामूहिक हमला करते हैं। ऐसे ग्रुपों में अनेक परिवार त्रस्त होते हैं। इनके आने की भनक मिलते ही घर का मुखिया छिपता फिरता है। लेकिन यह ग्रुप मुखिया से कोई ताल्लुक नहीं रखता। वह तो घर में जो भी उपलब्ध है, उसे ही ‘अतिथि देवो भव’ का बोध कराकर अतिथि-अधिकार प्राप्त करके ही पिंड छोड़ता है। ऐसी स्थिति में सामने वाला भी जल्दी-जल्दी उनको मनपसंद चीज की तैयारी में जुटकर उन्हें विदा करता है। आतिथ्य करने वाला व्यक्ति तभी राहत पाता है, जब अतिथि घर से चला जाता है। अतिथि के रहते उसे कोई राहत मिलना संभव नहीं है। इसलिए अतिथि का जल्द घर से चले जाना ही श्रेयस्कर होता है।


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