बरगद काटा, बबूल मिले

By: सुरेश सेठ Nov 26th, 2020 12:02 am

सुरेश सेठ

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सवाल यह नहीं था कि काटना क्या है? जवाब यह तलाश करना था कि उगाना क्या है। काटने का रेला कुछ इस कद्र चला कि नव-निर्माण की योजनाओं के अंदेशे में वर्षो से साया बांटते खड़े दरख्त काट दिए गए। सड़क बनने से पहले वह हरियाली से श्रीविहीन हो गई। पहाड़ों की कल्पना अब आपको ऊंची चोटियों से झूमते हुए वृक्षों से नहीं भरती। अनाथ और रुंडमुंड चोटियों से चौंका देती हैं, जो अब वर्षो अपनी बेनूरी पर रोती रहेंगी। आठवीं पास व्यक्ति से उनहत्तरवें वर्ष के बारे में पूछा तो उसने उसे इकहत्तर बताया क्योंकि अवसर राजनीति के महानायक के उनहत्तरवें जन्मदिन को मनाने का था और यार लोग बता रहे थे कि उन्हें इकहत्तर वर्ष पहले मां नर्मदा ने सपने में आकर कहा था कि तुम्हें हम सब नदियों का उद्धार करना है। इन्हें पुण्य, पवित्र, स्वच्छ सलिला बनाना है। न जाने कितने हज़ार करोड़ रुपए इन नदियों की स्वच्छता की तलाश में बह गए। केवल राम तेरी गंगा ही मैली नहीं हो गई, ये सब नदियां आपका कूड़ा-कचरा समेटते हुए गंदे नालों में तबदील हो गईं।

 बिन बादल बरसात उनकी रौद्रता देख कर मुट्ठी भर संत सींचेवाल और उनके अनुयायियों की परेशानी बढ़ गई कि भाई किस काली बेईं को पुण्य पवित्र बनाएं? यहां इसे स्वच्छ करते हैं तो वहां से मैले का उद्दाम ज्वार आगे बढ़ता है और उसके साथ बढ़ती है प्रदूषण की सौगात सी महामारियां। हर वर्ष फूटती हैं ये। इनकी कृपा से अनाथ, आश्रयविहीन लाशें नामविहीन हो जाती हैं और सेहत के रखवालों के दावे इन लाशों के अंबारों के गिर्द मंडराते रहते हैं कि ‘स्थिति नियंत्रण में है।’ स्थिति के ये नियंत्रक बताते हैं कि इस भयावह जल प्रदूषण से बचना है तो देश की नदियों को एक-दूसरे के साथ जोड़ दो। इससे कई लाभ हो जाएंगे। तुमसे रेल, सड़क और नभ परिवहन तो चला नहीं, अब एक और परिवहन देश की नदियां जोड़ कर जल परिवहन बढ़ाने मिला है। कम से कम इसके असफल और दुर्घटनाग्रस्त होने के बाद कह तो सकेंगे कि भाई जान हमने तो प्रयास किया। अब देश की वरागत तासीर ही ऐसी है कि यहां कोई काम पूरा ही नहीं होता।

 साहित्य, संस्कृति में सभ्यता में नई सड़क निकालने के प्रयास में रास्ते के बरगद तो कटते चले गए। बरगद कटते  गए, सोच की सड़कों के लिए रास्ता सफाचट हो गया, लेकिन कोई नया जनपथ उभरा ही नहीं। इसके एक हिस्से को राजपथ ने वंशवाद के नाम पर लील लिया और बाकी बचा हिस्सा टूट-फूट कर शार्टकट की पगडंडी में तबदील हो गया। यह पगडंडी भी भूल-भलैया से गुजरती हुई जहां आपको ले जाती है, वहां सिफारिश और जेब गर्म करने के महाकुंभ सजे हैं। साधारण आदमी बौराया सा एक कुंभ से दूसरे कुंभ की यात्रा तय करता चला जाता है। रास्ते में बिके हुए नेता, सत्ता के दलाल, किराए पर एकत्र की रैलियां और उधार लिए हुए नारों की अंताक्षरी उसका मार्गदर्शन करती है। चलते-चलते जब वह इस मार्गदर्शक मंडल के मील पत्थरों से छुटकारा पाता है, तो मिलते हैं उसकी मंजि़ल पर स्थापित हो गए राजकुंवर। ये लोग नए खून के नाम पर सत्ता की राजनीति में अपने वंशवाद की क्रांति ले आए हैं। चिल्ला रहे हैं कि जैसे राजा का बेटा राजा होता है, वैसे ही इनके लोकतंत्र में नेता का बेटा भी नेता होता है।


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