दूध-घी की नदियां: अजय पाराशर, लेखक, धर्मशाला से हैं

By: अजय पाराशर, लेखक, धर्मशाला से हैं Nov 17th, 2020 12:06 am

झूठ की तरह इतिहास कभी नहीं मरता। यह बात दीगर है कि झूठ की तरह इतिहास को भी चाहे जैसे मरज़ी तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है। इतिहास बताता है कि कभी सोने की चिडिय़ा कहलाने वाले भारतवर्ष में दूध-घी की नदियां बहती थीं। वैसे उस व़क्त दूध-घी की जो नदियां बहती होंगी, वह चौबीस कैरेट सोने की तरह ़खालिस रही होंगी। वजह, भारत और चीन की आज की जनसंख्या की तरह उस काल में गऊ धन प्रचुरता में था। दान में भी गऊएं देने का ही रिवाज़ था। बतोले बाबा की तरह कहने का भाव है कि उस व़क्त जो दूध-घी होता होगा वह गउओं और अन्य दुधारुओं का ही रहा होगा। आज भले ही सडक़ों पर गऊ माता कचरे के अलावा डंडे और गालियां खाती दिखाई दे, लेकिन हमारी नैतिकता, ईमानदारी और राष्ट्र प्रेम की तरह दूध-घी पूरी तरह शुद्ध और पवित्र ही मिलता है। समय के साथ हम इतने वैज्ञानिक तो हो ही गए हैं कि जुगाड़ से ही दूध-घी बना लेते हैं।

एक दूधाधारी बाबा की कंपनी देश में जितना देसी घी बेचती है, उतने दुधारू तो देश में हैं भी नहीं। ऐसे में प्रश्र उठता है कि क्या बाबा इतने चमत्कारी हैं जो देश में बढ़ती डिमांड के हिसाब से हर दिन गंगा मैया से देसी घी मांग लेते हैं। लेकिन साथ ही यह प्रश्र भी उठता है कि अगर बाबा सचमुच गंगा मैया से देसी घी मांगते हैं तो क्या गंगा मैया उनको ़खालिस घी नहीं देतीं? न जाने बाबा का देसी घी गर्म करने पर सुनहरी से स़फेद क्यों पड़ जाता है? ऐसे में जब मैंने पंडित जॉन अली से पूछा कि वह हिल मिल्क फैडरेशन की नौकरी छोडक़र क्यों भागे थे तो उन्होंने जवाब दिया कि वह तो आज से तीन दशक पहले ही पूरी ईमानदारी के साथ वनस्पति से देसी घी बनाया करते थे। यह बात अलग है कि उस समय भी वनस्पति घी में मिलावट शुरू हो चुकी थी। लेकिन वह पूरी ईमानदारी से देसी घी बनाते थे। फार्मूला बड़ा आसान था। चाहे देसी घी बनाने के लिए आज हर रोज़ नई तऱकीबें सामने आ रही हैं। लेकिन उनका फार्मूला आज भी उतना ही कारगर है। वनस्पति घी को एक निश्चित तापमान पर गर्म करने के बाद उसमें देसी घी का सार मिलाया जाता है। देखते ही देखते शुद्ध दानेदार देसी घी तैयार हो जाता है।

मैंने उनसे पूछा कि क्या उनकी फैडरेशन में सचमुच देसी भी बनता था तो वह बोले, क्यों नहीं? जो घी दूध से तैयार होता था, वह अधिकारियों और उनके रिश्तेदारों के घरों में सप्लाई होता था। लेकिन पब्लिक के लिए तो एगमार्क घी ही सप्लाई किया जाता था।  इसके बाद पंडित जी कहीं गहरे खोते हुए पॉम ऑयल से रिफाइंड तेल और जानवरों की हड्डियों से देसी घी बनाने की विधियां बताने लगे। पॉम ऑयल को गर्म करने के बाद उसमें मनवांछित सार डालने के बाद सरसों, मूंगफली, सोया, सूरजमुखी आदि मनचाहा रिफाइंड तेल बनाया जा सकता है। देसी घी बनाने के लिए तो पॉम ऑयल की भी ज़रूरत नहीं पड़ती। जानवरों की हड्डियों को उबालने के बाद उसमें मिलावटी खोया, वनस्पति घी, कैमिकल्स और सार मिला कर मनचाहा देसी घी बनाया जा सकता है। जैसे खोपड़ी पर ़िकश्ती टोपी लगाने से वह ईमानदार हो जाती है, उसी तरह डिब्बे पर देसी घी का ठप्पा लगाने से नकली घी भी देसी होकर आसानी से छह सौ रुपए किलो तक बिक जाता है।


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