हिमाचली बोलियों के संरक्षण की चुनौती : प्रो. सुरेश शर्मा, लेखक नगरोटा बगवां से हैं

By: प्रो. सुरेश शर्मा, लेखक नगरोटा बगवां से हैं Nov 5th, 2020 12:07 am

प्रो. सुरेश शर्मा

लेखक नगरोटा बगवां से हैं

पहाड़ी बोली में बोलना असभ्य होना ही माना जाता है। युवा माता-पिता अपने घर पर पहाड़ी बोलने पर पूरा परहेज करते हैं तथा बच्चों पर भी प्रतिबंध लगा देते हैं। पहाड़ी मां तथा हिंदी मां की तबीयत ठीक नहीं है। अब ‘पहाड़ी बोली बचाओ सप्ताह’ मनाए जा रहे हैं तथा पाठशालाओं में नियमित रूप से पहाड़ी में कार्यक्रम करने के सुझाव दिए जा रहे हैं। पहाड़ी बोलियों का संरक्षण होना ही चाहिए…

भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि यहां पर धरती को मां, भाषा को मां तथा गाय को भी मां कह कर संबोधित किया जाता है क्योंकि भारतीय चिंतन एवं दार्शनिक दृष्टि के अनुसार ये तीनों मां की तरह हमारा पोषण करती हैं। देश में प्रत्येक दिन भारत माता की जय घोषों से अंबर गूंजता है। भारतवर्ष अनेक भाषा-भाषी भूखंड है। क्षेत्रीय एवं स्थानीय भाषाओं की तो गिनती करना असंभव है। एक कहावत के अनुसार लगभग तीन किलोमीटर पर पानी का स्वाद तथा बारह किलोमीटर पर बोली बदल जाती है। इतनी दूरी पर शब्दों के कहने का ढंग, ध्वनि तथा कभी-कभी अर्थ भी बदल जाते हैं। कोई भी मातृभाषा या बोली उस स्थान, क्षेत्र तथा देश के व्यक्तियों की अभिव्यक्ति की संवाहक होती है। यह मातृभाषा हमें अपनों से भावनात्मक रूप से जोड़ने का कार्य करती है। विद्वान मानते हैं कि पहली मातृभाषा वही होती है। जिस वातावरण में बच्चा पलता-बढ़ता है तथा किसी स्थानीय बोली या भाषा को सुनकर तथा समझ कर उसी बोली या भाषा में प्रतिक्रिया देने के लिए संवाद करता है। दुनिया में पच्चीस प्रतिशत भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें एक हजार से भी कम लोग बोलना जानते हैं। भारत में लगभग 1365 भाषाएं बोली जाती हैं जिनका अलग-अलग क्षेत्रीय आधार है। दुनिया भर में लगभग 2500 भाषाएं हैं जो समाप्त होने के कगार पर हैं। भारत में आज बड़ी विचित्र स्थिति है कि व्यक्ति हिंदी बोलने में शर्म करता है, अंग्रेजी बोलने नहीं आती तथा अपनी स्थानीय बोली में बोलना असभ्य समझा जाता है। भाषाएं और बोलियां तो विचारों के संप्रेषण का माध्यम हैं। यह सत्य है कि व्यक्ति अपनी स्थानीय बोली में बहुत ही सहज एवं सरल महसूस करता है। भाषाएं भावनात्मक तथा विचारात्मक तरीके से लोगों को जोड़ती हैं। भारत में भाषाओं और बोलियों की विविधता में ही सांस्कृतिक एकता दृष्टिगोचर होती है। हिमाचल प्रदेश एक पहाड़ी प्रदेश है। हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं में कश्मीर से नेपाल तक अनेकों पहाड़ी भाषाएं तथा बोलियां बोली जाती हैं। पहाड़ी बोलियों में शब्द समूह तथा ध्वन्यात्मकता में बड़ी विविधता है। हिमाचल प्रदेश के सीमावर्ती जिलों में उत्तरांचल, पंजाब, हरियाणा तथा जम्मू प्रांतों के शब्दों तथा ध्वनयात्मकता का प्रभाव है। इसके अतिरिक्त चम्बयाल़ी, कांगड़ी, मण्डयाल़ी, लाहुली, कुल्लवी, किन्नौरी, कहलूरी, महासुवी, सोलन तथा सिरमौर आदि विभिन्न जिलों की अपनी-अपनी बोलियां हैं। यही नहीं, प्रत्येक जनपद में अनेकों बोलियां बोली जाती हैं जिनके शब्द, ध्वनि तथा शब्द स्थान अपनी-अपनी विशेषता तथा विविधता आत्मसात किए हुए हैं। हिमाचल के अस्तित्व में आने के समय से ही पहाड़ी को भाषा का रूप देने की बहुत कोशिश हुई। प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री डा. यशवंत सिंह परमार, पूर्व शिक्षा मंत्रियों स्वर्गीय लाल चंद प्रार्थी तथा स्वर्गीय नारायण चंद पराशर ने इस दिशा में काफी प्रयास किए। स्वर्गीय पराशर के कार्यकाल में तो सरकारी आयोजनों के निमंत्रण पत्र भी पहाड़ी में छपने शुरू हो गए थे। हमारी मजबूरी यह है कि पहाड़ी को हम कैसे भाषा को स्वीकार करें?

दूसरी ओर जिस भाषा का व्याकरण नहीं होता उसे भाषा के रूप में स्वीकार किया ही नहीं जा सकता। आज तक पहाड़ी को भाषा का स्थान दिलाने की मात्र कोरी कल्पना ही बनकर रह गई है। संस्कृति की यह विशेषता है कि यह निरंतर, बिना रुके, अविरल धारा की तरह प्रवाहित होती रहती है। भाषा या बोली संस्कृति का एक मुख्य तत्त्व होता है। प्रदेश में कविताएं, ग़ज़लें, कहानियां तथा बहुत सा साहित्य पहाड़ी भाषा में छप रहा है। बहुत से लेखक पहाड़ी लेखन में प्रयासरत हैं। पहाड़ी कवियों और लेखकों ने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से पहाड़ी साहित्य का सिंचन किया है। समाचार पत्रों ने भी इस दिशा में सराहनीय कार्य किया है। लेकिन प्रश्न वही कि कौन सी तथा किस जनपद की पहाड़ी बोली को वरीयता एवं अधिमान दें। वर्तमान में हिमाचल प्रदेश में कई स्थानीय बोलियां विलुप्त होने के कगार पर हैं। बोलियों के बोलने, सुनने तथा समझने वाले कम हो गए हैं। बहुत से पहाड़ी शब्द लुप्त हो रहे हैं। भाषाओं के जानकारों को चिंता हो रही है। प्रदेश भाषा, कला एवं संस्कृति विभाग बोलियों के संरक्षण के लिए हाथ-पांव मार रहा है। ग्रामीण परिवेश में तो ठीक, शहरों में पहाड़ी बोलियां बोलने में युवाओं की रुचि कम हो रही है। वे पहाड़ी में बात करना अपनी शान के विरुद्ध समझते हैं। पढ़ने वाले बच्चों को घर में अभिभावक तथा पाठशाला में अध्यापक पहाड़ी बोलने पर डांटते हैं। पहाड़ी तो छोडि़ए, स्वतंत्र भारत की पाठशालाओं में हिंदी बोलने पर भी जुर्माना किया जाता है।

पहाड़ी बोली में बोलना असभ्य होना ही माना जाता है। युवा माता-पिता अपने घर पर पहाड़ी बोलने पर पूरा परहेज करते हैं तथा बच्चों पर भी प्रतिबंध लगा देते हैं। पहाड़ी मां तथा हिंदी मां की तबीयत ठीक नहीं है। अब ‘पहाड़ी बोली बचाओ सप्ताह’ मनाए जा रहे हैं तथा पाठशालाओं में नियमित रूप से पहाड़ी में कार्यक्रम करने के सुझाव दिए जा रहे हैं। शिमला, हमीरपुर तथा धर्मशाला आकाशवाणी केंद्रों पर स्थानीय बोलियों में कार्यक्रम प्रसारित होते हैं, परंतु पहाड़ी भौतिकवादी नागरिक भी कार्यक्रम सुनते ही रेडियो का गला दबा देते हैं। नई शिक्षा नीति-2020 में प्रारंभिक शिक्षा में स्थानीय बोलियों में शिक्षण देने की बात की गई है, परंतु हिमाचल में किस बोली में शिक्षण कार्य होगा? परिणामस्वरूप क्षेत्रीय भाषाओं तथा हिंदी में ही कार्य होगा? पहाड़ी बोली को बचाने तथा इनके संरक्षण के लिए शिक्षा, भाषा, कला तथा संस्कृति विभाग को प्रदेश तथा जिला भाषा एवं संस्कृति अधिकारियों के माध्यम से गंभीरता से पहल करनी होगी। विश्वविद्यालयों में भाषाओं, बोलियों, लोक शैलियों, लोक नृत्यों और लोकगीतों, लोक व्यवहार पर शोध कार्य होने चाहिएं। पुस्तकालयों की अलमारियों में बंद पड़े शोध कार्यों का फिर से अध्ययन एवं अवलोकन होकर जनमानस के उपयोग तथा व्यवहार में लाया जाना चाहिए। प्रदेश के युवा क्यों अपनी बोलियों को बोलने में शर्म महसूस करते हैं? इन सब कारणों पर अध्ययन होना चाहिए। प्रचलित बोलियां हमारी संस्कृति की जड़े हैं, इन्हें संरक्षित करना होगा अन्यथा भविष्य की पीढि़यों के लिए सांस्कृतिक विरासत का पतन होना संभावित है।


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