लैंगिक समानता और सामाजिक व्यवस्था: किशन बुशैहरी, लेखक नेरचौक से हैं

By: किशन बुशैहरी, लेखक नेरचौक से हैं Nov 12th, 2020 12:06 am

किशन बुशैहरी

लेखक नेरचौक से हैं

कांगड़ा जिला के आलमपुर में एक शिक्षित विवाहित युवती की पारिवारिक सदस्यों द्वारा जघन्य हत्या तथा शिमला जिला के चर्चित गुडि़या बलात्कार एवं हत्याकांड में लगभग चार वर्ष के उपरांत भी प्रदेश पुलिस प्रशासन व केंद्रीय जांच ब्यूरो जैसी देश की प्रतिष्ठित जांच एजेंसी का किसी भी सार्थक परिणाम पर पहुंचने में असफल रहना महिला अधिकारों व उत्पीड़न के प्रति सरकार एवं प्रशासन की उदासीनता का प्रतीक है…

देश-प्रदेश में महिला उत्पीड़न की हालिया घटनाएं भारतीय सामाजिक व्यवस्था में लैंगिक समानता की अवधारणा पर चोट करती हैं। यह वर्ष महिलाओं के सामाजिक एवं आर्थिक उत्थान को समक्ष रखकर  ‘एक समान विश्व, एक सक्षम विश्व’ की परिकल्पना पर आधारित है जो कि भारतवर्ष के वैदिक युग के उस स्वर्णिम कालखंड की पुनः कल्पना है जिस काल में भारतीय महिलाओं की उच्च सामाजिक प्रतिष्ठा व लैंगिक समानता तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था का प्रमुख एवं अभिन्न अंग थी। कालांतर से हमारी सामाजिक व्यवस्था में निरंतर परिवर्तन होते रहे हैं जिसके परिणामस्वरूप समाज का यह सशक्त एवं महत्त्वपूर्ण अंग अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा एवं समानता में निरंतर गिरावट के फलस्वरूप दास बन गया।

दासता की यह व्यथा न जाने कैसी और कितनी थी कि महिला जब अपने अस्तित्व को स्वयं में नहीं पा सकी तो उसे पुरुष के आभास में पाने लगी और शायद यहीं से इसके शारीरिक-मानसिक शोषण, दासता एवं प्रताड़ना के युग का प्रारंभ हुआ होगा। किसी भी सभ्य समाज के सांस्कृतिक मूल्यों की ध्वजवाहक एवं समग्र विकास में नारी की भूमिका हमेशा केंद्रीय पात्र की रही है। नारी विहिन समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है क्योंकि हमारी सामाजिक व्यवस्था के संतुलन का आधार ही नारी है। किसी भी समृद्धशाली परिवार के समग्र विकास का आधार भी नारी है। जिस परिवार में नारी की भूमिका पर्याप्त या संतुलित न हो तो उसकी अधोगति के प्रमाण भी हमारे समक्ष हैं। सामाजिक एवं लैंगिक विसंगतियां प्रायः एक वर्ग को निरंकुशता व अराजकता प्रदान करती हैं, जबकि दूसरे वर्ग या पीडि़त को दास बना देती हैं। हमारे देश व प्रदेश की महिलाएं भी इसी विसंगति की शिकार हैं। वर्गभेद की पराकाष्ठा यह है कि हमारी वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में भाईर्-भाई व पिता-बेटे में संपत्ति या अन्य किसी भी प्रकार का विभाजन मान्य है, लेकिन इसके विपरीत भाई-बहन और पति-पत्नी के मध्य यही विभाजन असामाजिक व अमान्य हो जाता है। यह हमारी सामाजिक व्यवस्था में पुरुष प्रधान मानसिकता एवं श्रेष्ठता का परिचायक है, जिससे यह प्रमाणित होता है कि प्रदेश की महिलाओं के असमानता, उत्पीड़न व शोषण से मुक्त होने के द्वार स्वयं ही बंद हो जाते हैं। विडंबना यह है कि हमारे समाज में महिलाएं अपने रोजगार, शादी-ब्याह व जीवनयापन से जुड़े मसलों का फैसला भी स्वयं नहीं कर पाती हैं। इसमें पुरुषों का हस्तक्षेप अधिक रहता है। प्रत्येक वर्ष विश्व में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का आयोजन धूमधाम से किया जाता है, जिसमें महिला उत्थान व सशक्तिकरण की बहुत सी घोषणाएं वैश्विक व स्थानीय स्तर पर की जाती हैं, परंतु वास्तविक स्थिति में इस दिशा में परिवर्तन नगण्य है।

इसके साक्ष्य हमारे समक्ष हैं कि देश व प्रदेश में महिलाओं के प्रति होने वाले जघन्य अपराधों जैसे बलात्कार, शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न की पुनरावृत्ति हो रही है। कांगड़ा जिला के आलमपुर में एक शिक्षित विवाहित युवती की पारिवारिक सदस्यों द्वारा जघन्य हत्या तथा शिमला जिला के चर्चित गुडि़या बलात्कार एवं हत्याकांड में लगभग चार वर्ष के उपरांत भी प्रदेश पुलिस प्रशासन व केंद्रीय जांच ब्यूरो जैसी देश की प्रतिष्ठित जांच एजेंसी का किसी भी सार्थक परिणाम पर पहुंचने में असफल रहना महिला अधिकारों व उत्पीड़न के प्रति सरकार एवं प्रशासन की उदासीनता का प्रतीक है। इस व्यवस्था में प्रदेश की महिलाएं कैसे न्याय की कल्पना कर सकती हैं? स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत देश में लैंगिक समानता की अवधारणा को समक्ष रखते हुए बाबा साहेब डा. भीमराव अंबेडकर एवं देश के संविधान निर्माताओं ने महिलाओं के सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक अधिकारों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों का प्रावधान किया है, जिसमें अनुच्छेद 14 समानता का अधिकार देता है। अनुच्छेद 15 महिलाओं के प्रति किसी भी प्रकार के भेदभाव को निषेध करता है। अनुच्छेद 16 देश की महिलाओं को सभी संवैधानिक प्रावधानों में समान अवसर का अधिकार प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त महिला सशक्तिकरण को अधिक प्रभावी करने में हिंदू विवाह अधिनियम 1955, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 व हिंदू महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम 1937 अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर रहे हैं, परंतु भारतीय समाज की वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में महिलाओं की स्थिति विरोधाभासी ही है क्योंकि इन संविधान प्रदत्त अधिकारों के क्रियान्वयन के प्रति प्रदेश व देश की महिलाओं में जागरूकता का अभाव है। अशिक्षा, असुरक्षा की भावना, सामाजिक संकीर्णता के कारण अधिकांश महिलाएं नारकीय जीवन जीने के लिए विवश हैं। कुपोषण, स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं, उचित उपचार व स्त्री रोग विशेषज्ञों के अभाव के कारण प्रदेश की अधिकांश महिलाएं शारीरिक-मानसिक उत्पीड़न का शिकार हो रही हैं। सामाजिक उत्थान में महिलाओं की सहभागिता हेतु तत्कालीन सरकार द्वारा 72वां एवं 73वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992 पारित किया गया, जिसमें स्थानीय निकायों एवं पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए एक-तिहाई पदों को आरक्षित करने की व्यवस्था है।

इसके बावजूद वांछित लक्ष्य अभी अर्जित नहीं हो पाए हैं। वर्तमान कालखंड व महाभारत कालीन परिस्थितियों में महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण एवं सामाजिक व्यवहार में बहुत सी समानताएं हैं, जैसा कि वर्तमान सभ्य समाज में भी तथाकथित द्रोण व भीष्म महिलाओं की दयनीय सामाजिक अवस्था को देख कर मूक हैं व द्रोपदी का चीरहरण करने के लिए उसके आसपास लाखों दुःशासन व दुर्योधन विद्यमान हैं। विडंबना यह है कि द्रोपदी की स्त्रीगत अस्मिता व मर्यादा की रक्षा के लिए श्री कृष्ण जैसा चरित्र वर्तमान परिदृश्य में कोसों दूर तक दृष्टिगोचर नहीं होता है। ऐसी स्थिति में इस बात की जरूरत है कि महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए पूरा समाज आगे आए तथा ऐसी व्यवस्था की जाए कि महिलाओं का संपूर्ण विकास संभव हो पाए।


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