नीतीश के लिए इस बार कठिन डगर: डा. अंजनी कुमार झा, शिक्षाविद, बिहार

By: डा. अंजनी कुमार झा, शिक्षाविद, बिहार Nov 14th, 2020 12:07 am

जहां तक स्ट्राइक रेट का सवाल है तो भाजपा का सर्वाधिक 67, आरजेडी  का 52 और जेडी-यू का 37 प्रतिशत रहा। इस बार कुल 3733 उम्मीदवारों में से 1231 करोड़पति हैं। 2015 के चुनाव में 1016 प्रत्याशी आपराधिक पृष्ठभूमि के थे। शराबबंदी और सुशासन के कारण महिलाओं ने नीतीश के  नेतृत्व वाली सरकार पर पुनर्भरोसा जताया।  हां, यह ठीक है कि प्रतिबंध के बावजूद यह धड़ल्ले से बिक रही है…

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कृपा और वायदे के कारण चौथी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार के लिए इस बार कहीं ज्यादा चुनौती है। उनकी पार्टी जद-यू की सीटों में काफी कमी होना उनकी दुर्बल कार्यक्षमता, खोते जनाधार की ओर साफ -साफ  इशारा करता है। किसी तरह बहुमत तक पहुंच कर भले ही अपनी लाज बचा ली, किंतु बड़ी सहयोगी पार्टी के रूप में तो भाजपा थी तो अवसर भी उसे मिलना चाहिए। सरकारी और गैर  सरकारी  सेक्टर  में रोजगार के अवसर न प्रदान करने के कारण नीतीश की खूब  किरकिरी हुई।  कोरोना काल में  प्रवासी  लोगों की घर वापसी में उदासीनता से पूरा देश स्तब्ध रहा। राजद के अत्यंत युवा नेता और लालू यादव के पुत्र तेजस्वी ने चुनाव प्रचार के दौरान  केवल और केवल युवाओं के रोजगार की बात की तो अपार भीड़ जुटी जो मतपेटियों से निकली भी। तभी तो पोस्टर, बैनर, चित्र से गायब कर दिए गए पार्टी के संस्थापक लालू। राजग नेताओं, विशेषकर नरेंद्र मोदी और नीतीश बाबू ने लालटेन युग, अंधेरे काल, जंगल राज पर काफी कुछ कहा, किंतु सब को झकझोरने वाले रोजगार पर आश्वासन से ही वोट प्रतिशत के साथ सीटों में बड़ा अंतर देखने को मिला।  निश्चित रूप से स्थानीय मुद्दों  खासकर रोजगार को लेकर आक्रोश तीव्र था। इसके अतिरिक्त प्रलयंकारी  बाढ़ की विभीषिका से निपटने में सरकार की बेरुखी, सुरसा की भांति बढ़ रहे भ्रष्टाचार को रोकने में कम दिलचस्पी, दम तोड़ती शिक्षा-स्वास्थ्य व्यवस्था, सुस्त पुलिस-प्रशासन तंत्र के कारण सीटों का कम आना आश्चर्यजनक नहीं है। मोदी की नौ रैलियों से जंगलराज की याद फिर आ जाती थी। केंद्र की योजनाओं और भाजपा के मंत्रियों, नेताओं की साफ  छवि के कारण पार्टी को लाभ मिला। यह सही है कि नई पीढ़ी की चिराग वाली लोजपा  के 112 सीटों  पर  केवल नीतीश बाबू की पार्टी के विरुद्ध प्रत्याशियों को उतारने से उन्हें 30 सीटों का सीधा नुकसान हुआ। हम और वीआईपी के राजग के पार्टनर के रूप में समर में उतरने से भाजपा को कोई दाग न लगा। दो खानदानी युवा नेता तेजस्वी और चिराग की जुबान पर नीतीश थे, इसी कारण जद-यू को काफी क्षति हुई। युवराज राहुल की ओर से भाजपा की आलोचना का असर नहीं हुआ।  तमाम विरोधों  के बावजूद कांग्रेस को 19  सीटें  मिलीं। यह शोध का विषय है। स्टार के नाम पर केवल राहुल ही थे। वाम को  29 सीटें प्राप्त होने का अर्थ है कि सूबे में अत्याचार और असमानता बढ़ी है। यह चिंताजनक है।

 राजग के लिए मंथन का समय है। भाजपा में केवल और केवल नरेंद्र मोदी के नाम पर जुटी भीड़ से भाजपा और जद-यू को थोड़ा फायदा मिला। राजद के तीन बड़े मुद्दे रोजगार, प्रवासी और कोरोना पर नीतीश के पास कोई जवाब नहीं था। चार चेहरों मोदी जी, नीतीश, तेजस और राहुल के आसपास ही चुनावी मुद्दे घूमते रहे। चूंकि नीतीश के नेतृत्व में समर लड़ा गया था, इसलिए जद-यू के निराशाजनक प्रदर्शन के बावजूद उनकी ताजपोशी होगी। कुल 57 प्रतिशत वोट पड़े जिसमें सबसे ज्यादा साढ़े 59 प्रतिशत महिलाओं ने मतदान किया। ओवैसी ने 20 सीटों पर महागठबंधन के वोट काटे जिससे भाजपा को 12 सीटों का  लाभ  मिला। नीतीश के अंतिम चरण में आखिरी चुनाव लड़ने की घोषणा का भावनात्मक प्रभाव दिखा जिसमें 47 सीटों पर एनडीए जीत सका। उनका अंत भला सो सब भला कारगर साबित हुआ। उत्तर बिहार, कोशी, सीमांचल में महिला वोटरों का प्रतिशत कहीं ज्यादा था। तीस फीसदी मुस्लिम  आबादी  वाली 32 सीटों में एनडीए ने 18 पर विजय हासिल की, जिसमें भाजपा की झोली में 12 सीटें गईं। बीस प्रतिशत यादव आबादी वाली कुल 41 सीटों में जद-यू को 11, जबकि भाजपा को नौ मिलीं। 38 आरक्षित सीटों में राजद  और  भाजपा 9-9 जबकि जद-यू को 8 मिलीं । ओवैसी की पार्टी को केवल पांच से ही संतोष करना पड़ा। जहां तक स्ट्राइक रेट का सवाल है तो भाजपा का सर्वाधिक 67, आरजेडी  का 52 और जेडी-यू का 37 प्रतिशत रहा। इस बार कुल 3733 उम्मीदवारों में से 1231 करोड़पति हैं। 2015 के चुनाव में 1016 प्रत्याशी आपराधिक पृष्ठभूमि के थे। शराबबंदी और सुशासन के कारण महिलाओं ने नीतीश के  नेतृत्व वाली सरकार पर पुनर्भरोसा जताया।  हां, यह ठीक है कि प्रतिबंध के बावजूद यह धड़ल्ले से बिक रही है। पुलिस-प्रशासन की  शिथिलता के कारण रोष दिखा, किंतु आज भी ग्रामीण स्त्रियों को सुकून है। इसी कारण विशेष तौर पर जद-यू की सीटें कम हो गईं। रोजगार को लेकर शिथिलता तो दिखी। ऐन चुनाव के वक्त कॉलेज शिक्षकों के साढ़े चार हजार भर्ती विज्ञापन निकले जरूर। कई सरकारी पद खाली ही रह गए।

 इसके बाद भी युवा मतदाताओं ने राजग पर विश्वास दिखाया। रिक्त पदों की भर्ती में ढिलाई, नए पदों के सृजन में अरुचि, उद्योग-धंधे को लगाने में उदासी बरतने के बाद भी नए युवा मतदाता और बेरोजगारी का दंश झेल रहे युवाओं ने बोझिल मन से ही वोट देकर सत्ता कायम रखने में मदद की। घर लौटे प्रवासी आस लगाए कुछ महीनों रुके रहे, पर सरकार से कहीं कुछ सहयोग नहीं मिलने से वे वापस चले गए। इसके बावजूद वोट और दुआ राजग के लिए ही की। गर्ल्स स्कूल, कॉलेज, महिला थाना, स्त्री रोग अस्पताल, महिला बैंक, स्वरोजगार केंद्र के वायदे वायदे ही बनकर रह गए। युवा कल भी ठगा गया और आज भी। सरकारी नौकरी की गुंजाइश कम है। कल-कारखाने सूबे में लगाने में उद्योगपतियों की रुचि कम है। ऐसे में सरकार का दायित्व कहीं ज्यादा बढ़ जाता है। सरकार हाल में ही लाखों प्रवासियों का दिल दुखा चुकी है। बाढ़ की विभीषिका को लेकर केवल रुदन कब तक? जल क्षेत्र में मखाना, मत्स्य पालन, सिंघारा को व्यावसायिक बनाने में अब सरकार को दिलचस्पी दिखनी चाहिए। आज भी प्रदेश में 53 प्रतिशत महिलाओं से उनके पति दुर्व्यवहार करते हैं। 18 वर्ष आयु से पूर्व 43 जबकि 21 से पूर्व 35 प्रतिशत लड़कियों की शादी हो जाती है। लैंगिक असमानता भी बढ़ी है। पारंपरिक परिवार ढांचे के कारण 90 फीसदी महिलाओं ने वित्तीय मामलों में पुरुषों में पुनः आस्था व्यक्त की है। ऐसी स्थितियों में बिहार में नीतीश की डगर इस बार आसान नहीं है। उन्हें कई दबाव झेलने होंगे।


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