पहाड़ी भाषा आठवीं अनुसूची में कब: उमा ठाकुर, लेखिका शिमला से हैं

By: उमा ठाकुर, लेखिका शिमला से हैं Nov 2nd, 2020 12:08 am

उमा ठाकुर

लेखिका शिमला से हैं

आकाशवाणी शिमला, हमीरपुर, धर्मशाला केंद्र भी स्थानीय बोलियों के संरक्षण के लिए प्रयासरत हैं। पहाड़ी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए हिमाचल के साहित्यकार, कवि व लेखक पहाड़ी बोली में ज्यादा से ज्यादा लेखन कार्य कर विशेष योगदान दे सकते हैं। हिमाचली भाषा का इतिहास काफी गौरवपूर्ण रहा है। साथ ही हमारी गौरवपूर्ण सभ्यता, संस्कृति और साहित्य को वर्तमान संदर्भ में कलमबद्ध करने की नितांत आवश्यकता है ताकि आने वाली पीढ़ी अमूल्य धरोहर से वंचित न रह जाए…

किसी भी राष्ट्र या देश की उन्नति, सभ्यता, संस्कृति और उसके मानवीय विकास को परखने की कसौटी उसकी बोली है। इसके अलावा बोली का महत्त्व इस बात पर निर्भर करता है कि सामाजिक व्यवहार, शिक्षा और साहित्य में उसका क्या महत्त्व है। प्रत्येक भाषा का विकास बोलियों से ही होता है। यहां तक कि पशु-पक्षी अपनी भाव-अभिव्यक्तियों के लिए जिन ध्वनियों का प्रयोग करते हैं, उन्हें भी बोली ही कहते हैं। पुरानी भाषा या बोलियों के नमूने हमें अनेक शिलालेख, ताम्रपत्र, भोजपत्र तथा स्तंभ आदि पर प्राचीनकालीन लिपियों के रूप में मिलते हैं। इसलिए शायद हमारी पहाड़ी भाषाओं का उद्गम वैदिक संस्कृति से ही माना जाता है। हिमाचल के अधिकतर क्षेत्रों में स्थानीय बोलियां प्रचलित हैं। इनमें महासवी, कुल्लवी, कांगड़ी, मंडियाली, किन्नौरी बोलियां प्रमुख हैं।

वर्तमान में हिमाचल में करीब 33 क्षेत्रीय बोलियां बोली जाती हैं। ये बोलियां लोक साहित्य, दलांगी साहित्य, लोक गीत, लोक गाथाओं और नैतिक मूल्यों का बेशकीमती खजाना अपने आप में संजोए हुए हैं। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि हमारे हिमाचल में बारह कोस पर बोली बदल जाती है, लेकिन जो हमारे रीति-रिवाज, लोक परंपराएं और लोक संस्कृति है, वह करीब-करीब एक समान ही है। जनजातीय क्षेत्र जैसे किन्नौर की बात करें तो पुराने जमाने में यहां रेखड़ पद्धति थी। रामपुर बुशहर में टांकरी का प्रचलन रहा और ऊपरी किन्नौर में तिब्बती या भोटी भाषा में तीन भाषाओं के तत्त्व मिले हैं। तिब्बती भाषा को किन्नौरी भाषा का मूल अंश भी माना जाता है। भरमौर के गद्दी जनजातीय क्षेत्र में भरमौरी भाषा बोली जाती है।

 रोहड़ू, जुब्बल, कोटखाई, कोटगढ़ यानी अपर हिमाचल में महासवी बोली बोली जाती है। हिमाचल प्रदेश का गौरवमयी इतिहास रहा है। हाल ही में हिमाचल की बोलियों को हिमाचली भाषा का स्वरूप दिया गया है, जिसकी लिपि तैयार की जा रही है। हिमाचल प्रदेश की लोक कलाएं जैसे वास्तुकला, पहाड़ी चित्रकला, पहाड़ी रूमाल, हस्तशिल्प कला व काष्ठकला इत्यादि देश में ही नहीं बल्कि विश्वभर में अपना लोहा मनवा चुकी है। परंतु खेद का विषय है कि हम 21वीं सदी में भी पहाड़ी बोली को संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान नहीं दिला पाए हैं। वर्तमान परिपे्रक्ष्य की अगर हम बात करें तो हमारे रहन-सहन, रीति रिवाजों में ंकाफी बदलाव आ चुका है। आधुनिकता की होड़ में हम पाश्चात्य सभ्यता के रंग में कुछ इस कदर रंग चुके हैं कि मां की लोरी, गांव की मीठी बोली, खेत-खलिहान, मुंडेर, बावडि़यां, कुएं, मेले, तीज-त्योहार व लोक परंपराएं पीछे छूट गई हैं। आज की युवा पीढ़ी पहाड़ी बोली नहीं जानती। कसूर उनका नहीं, कसूर अभिभावकों का है, जो उन्हें इन सब से दूर रख रहे हैं। बच्चे हिंदी और अंगे्रजी तो फर्राटे से बोलते हैं, लेकिन मीठी बोली, मां की बोली व गांव की बोली की मिठास नहीं समझ पाते। पहाड़ी बोली के अस्तित्व को बिखरने से रोकना है तो यह हम सभी की नैतिक जिम्मेदारी है कि हम अपने बच्चों को हिंदी और अंग्रेजी के अलावा मातृ बोली बोलना भी सिखाएं। अभिभावकों की भी यह नैतिक जिम्मेदारी है कि अपने बच्चों में बचपन से ही पहाड़ी बोली के महत्त्व को बताएं।

वे अपने बच्चों को संस्कार का बीज अपनी स्थानीय बोली को जीवित रख कर बो सकते हैं, जिससे न केवल बच्चों में लोक संस्कृति, लोक साहित्य व इसके इतिहास में रुचि पैदा होगी, साथ ही उनका नैतिक और बौद्धिक विकास भी होगा। आधुनिकता की चकाचौंध भी उनकी मानसिकता व मूल्यों को बदल नहीं पाएगी। युवा पीढ़ी मां बोली, गांव की मीठी बोली को अपना कर अपने जीवन मूल्यों को समझे और अपनी युवा  सोच से  देश के नवनिर्माण में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करे। यदि हम आज नहीं संभले तो पहाड़ी बोली के अस्तित्व को तलाशते नजर आएंगे कि हमारे पूर्वज किस बोली में अपने मनोभाव को व्यक्त करते थे। तब शायद बोली के इस मूल रूप को समझने वाले कोई न हो, इसलिए प्रत्येक जिला की बोलियों को सहज कर रखने की नितांत आवश्यकता है। मेरा यह मानना है कि युवाशक्ति ही ऐसी शक्ति है जो समाज की धारा को बदल सकती है। वर्तमान संदर्भ में इंटरनेट का प्रचलन बहुत बढ़ गया है। युवा वर्ग अपनी स्थानीय बोली में ब्लॉग लिख कर भी विश्वग्राम की परिकल्पना को साकार कर सकता है। हिमाचल प्रदेश का भाषा एवं संस्कृति विभाग व कला संस्कृति एवं भाषा आकादमी विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से लोक संस्कृति, साहित्य, कला व बोलियों के संरक्षण में अहम भूमिका निभा रहे हैं। आकाशवाणी शिमला, हमीरपुर, धर्मशाला केंद्र भी स्थानीय बोलियों के संरक्षण के लिए प्रयासरत हैं। पहाड़ी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए हिमाचल के साहित्यकार, कवि व लेखक पहाड़ी बोली में ज्यादा से ज्यादा लेखन कार्य कर विशेष योगदान दे सकते हैं।


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