स्कूल शिक्षकों का दायित्व: डा. वरिंदर भाटिया, कालेज प्रिंसिपल

By: डा. वरिंदर भाटिया, कालेज प्रिंसिपल Nov 18th, 2020 12:08 am

डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (डीआईएसई) के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2010-11 से 2017-18 के बीच सरकारी स्कूलों के दाखिले में 2.38 करोड़ की कमी हुई, जबकि इसी अवधि में निजी गैर सहायता प्राप्त स्कूलों में होने वाले दाखिलों में 2.11 करोड़ की वृद्धि हुई। इन आंकड़ों में गैर मान्यता प्राप्त स्कूलों में होने वाले दाखिलों की संख्या शामिल नहीं है क्योंकि डीआईएसई गैर मान्यता प्राप्त स्कूलों के आंकड़े एकत्रित नहीं करता है। पंजाब और हिमाचल जैसे कुछ राज्य इस दिशा में अच्छा काम कर रहे हैं। छात्रों के द्वारा सरकारी स्कूलों को छोड़कर जाने का परिणाम यह हुआ कि वर्ष 2017-18 में 100 से कम नामांकन वाले स्कूलों की संख्या बढ़कर 68 फीसदी हो गई जबकि प्रति स्कूल औसत छात्रों की संख्या 45 रह गई। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से पहली बार सरकार ने इसे बड़ी समस्या के तौर पर संज्ञान में तो लिया है, लेकिन समाधान के तरीके ठीक नहीं हैं…

स्कूल शिक्षा का देश के लिए भी बहुत महत्त्व है क्योंकि आदर्श नागरिक बनने की नींव वहीं रखी जाती है। स्कूल देश का भविष्य भी निर्धारित करते हैं। स्कूल शिक्षा का महत्त्व शैक्षणिक और नैतिक मूल्यों के गिरने से कम नहीं होना चाहिए। हमारे देश में तुच्छ राजनीति से सब गड़बड़ शुरू होती है। कुछ अधिकारी, कुछ नेता, कुछ लालची प्रकाशक, कुछ लालची स्कूल मालिक और कुछ निवेशक मिलकर देश में स्कूल शिक्षा को एक माफिया जैसा स्वरूप दे रहे हैं। इन बिंदुओं को नजर में रखते हुए स्कूल शिक्षा से जुड़े अध्यापकों की जिम्मेवारी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गई है। तीन दशकों से अधिक के इंतजार के बाद आई नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत मौजूदा स्कूल शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की कार्ययोजना तैयार की गई है। इसमें कई उत्कृष्ट प्रस्तावों को शामिल किया गया है जो वर्तमान परिदृश्य के हिसाब से बेहद प्रासंगिक हैं। 3-6 वर्ष की आयु वर्ग के नौनिहालों के लिए अर्ली चाइल्डहुड केयर एंड एजुकेशन, तीसरी कक्षा तक पहुंचने से पहले छात्रों को आधारभूत शिक्षा और संख्या ज्ञान सुनिश्चित करना, आर्ट्स, कॉमर्स और साइंस वर्ग के बीच की स्पष्ट विभाजन रेखा को अप्रासंगिक बनाना और नियमित स्कूली शिक्षा के साथ-साथ रोजगार परक शिक्षा प्रदान करने की योजना आदि ऐसे ही कुछ उत्कृष्ट प्रावधान हैं जो नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति को वर्तमान के हिसाब से बेहद प्रासंगिक बनाते हैं। इस नीति में सरकारी नियंत्रण के स्कूलों के शिक्षकों की जवाबदेही सुनिश्चित करने के मुद्दे की अनदेखी इस शिक्षा नीति की सफलता की संभावनाओं को संदिग्ध बना सकती है।

दरअसल, यही वह कड़ी है जिसने शिक्षा के अधिकार कानून (आरटीई) के तहत किए गए सतत एवं समग्र मूल्यांकन के प्रावधान को असफल बनाने में अहम भूमिका निभाई थी। कक्षा 8वीं तक छात्रों के प्रदर्शन का लगातार मूल्यांकन करने और उनकी कमजोरियों को दूर करने के प्रयास वाले प्रावधान को छात्रों को आवश्यक रूप से अगली कक्षा में प्रमोट करने के प्रावधान में तब्दील कर दिया गया। इस प्रकार जवाबदेही शिक्षकों के कंधों से हटाकर छात्रों के कंधों पर डाल दी गई। परिणाम वही हुआ जिसकी आशंका थी। नौवीं व 10वीं कक्षा में बड़ी तादाद में छात्र फेल होने लगे और साथ ही फेल हो गई आरटीई भी। राज्य सरकारों को यूटर्न लेते हुए ‘नो डिटेंशन’ के प्रावधान को समाप्त करना पड़ा या 5वीं कक्षा तक सीमित करना पड़ा।

वही प्रावधान प्राइवेट स्कूलों पर भी लागू था, लेकिन वहां पढ़ने वाले छात्रों के लर्निंग आउटकम पर उतना प्रभाव नहीं पड़ा जितना कि सरकारी स्कूलों के छात्रों पर पड़ा। दूसरी तरफ निजी स्कूल प्रबंधन व अध्यापक जहां अभिभावकों व छात्रों के प्रति जवाबदेह होते हैं, वहीं सरकारी स्कूलों के अध्यापक अधिकारियों व शिक्षा विभाग के प्रति अधिक जवाबदेह होते हैं। निजी स्कूलों के शिक्षकों का हित अपनी ड्यूटी (शिक्षण) से छात्रों व अभिभावकों खुश रखने में होता है, वहीं सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के हितों की पूर्ति शिक्षा विभाग के अधिकारियों को खुश रखने से होती है। कई शोधों में इस बात का पता चला है कि देश में औसतन प्रतिदिन लगभग 25 फीसदी अध्यापक अनुपस्थित रहते हैं और उपस्थित अध्यापकों में से भी आधे कक्षा नहीं ले रहे होते हैं। जबकि उनकी प्रोन्नति और वेतन वृद्धि निश्चित समयांतराल पर होती रहती है। आश्चर्य नहीं कि इन्हीं कारणों से सीमित आय व संसाधनों वाले शिक्षा के प्रति थोड़ा-बहुत भी जागरूक अभिभावक अपने बच्चे को निशुल्क सरकारी स्कूलों की बजाय निजी स्कूलों में भेजना पसंद करते हैं।

डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (डीआईएसई) के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2010-11 से 2017-18 के बीच सरकारी स्कूलों के दाखिले में 2.38 करोड़ की कमी हुई, जबकि इसी अवधि में निजी गैर सहायता प्राप्त स्कूलों में होने वाले दाखिलों में 2.11 करोड़ की वृद्धि हुई। इन आंकड़ों में गैर मान्यता प्राप्त स्कूलों में होने वाले दाखिलों की संख्या शामिल नहीं है क्योंकि डीआईएसई गैर मान्यता प्राप्त स्कूलों के आंकड़े एकत्रित नहीं करता है। पंजाब और हिमाचल जैसे कुछ राज्य इस दिशा में अच्छा काम कर रहे हैं। छात्रों के द्वारा सरकारी स्कूलों को छोड़कर जाने का परिणाम यह हुआ कि वर्ष 2017-18 में 100 से कम नामांकन वाले स्कूलों की संख्या बढ़कर 68 फीसदी हो गई जबकि प्रति स्कूल औसत छात्रों की संख्या 45 रह गई। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से पहली बार सरकार ने इसे बड़ी समस्या के तौर पर संज्ञान में तो लिया है, लेकिन इसके समाधान के लिए उसी पुराने व घिसे-पिटे तरीकों जैसे कि स्कूलों का एकीकरण, स्कूल भवन का निर्माण, अध्यापकों को अतिरिक्त प्रशिक्षण आदि की बात कही गई है। समाधान के ये तरीके बीमारी के लक्षणों का इलाज करने सरीखा हैं, न कि बीमारी के कारणों को जानकर उसका इलाज करना। यदि गहराई से पड़ताल की जाए तो पता चलेगा कि शिक्षा के क्षेत्र में खराब परिणामों का सबसे बड़ा कारण स्कूलों के शिक्षकों की जवाबदेही तय न होना है।

स्कूलों का एकीकरण और अध्यापकों को अतिरिक्त प्रशिक्षण देने का कोई भी फायदा नहीं होगा, यदि वे उसका इस्तेमाल नहीं करते हैं। यदि अध्यापकों की जवाबदेही तय न किए जाने के पीछे राजनीतिक कारण हैं तो यह सही समय है कि हमें इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। इसलिए शिक्षा नीति में और बदलाव की जरूरत है। नई शिक्षा नीति की सफलता इसी बदलाव पर टिकी है। स्कूल अध्यापकों की जवाबदेही तय करनी ही होगी। इसमें राजनीति आड़े नहीं आनी चाहिए। नई शिक्षा नीति का देश को लाभ तभी होगा, जब हम इसमें आवश्यक बदलाव कर पाएंगे। स्कूल अध्यापकों को भी समझ लेना चाहिए कि नई शिक्षा नीति के लिए उनकी जवाबदेही अति आवश्यक है। स्कूल शिक्षकों को अपने दायित्व का अच्छी तरह आभास होना चाहिए, तभी हम शिक्षा में क्रांतिकारी बदलाव की अपेक्षाएं कर सकते हैं।

ईमेल ः hellobhatiaji@gmail.com


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