तनाव-अवसाद से कैसे मिले मुक्ति: अशोक सिंह गुलेरिया, लेखक नगरोटा सूरियां से हैं

By: अशोक सिंह गुलेरिया, लेखक नगरोटा सूरियां से हैं Nov 3rd, 2020 12:06 am

अशोक सिंह गुलेरिया

लेखक नगरोटा सूरियां से हैं

प्रत्येक परिवार में कोई न कोई सदस्य आज किसी न किसी मानसिक अवसाद से उत्पन्न दबाव में जी रहा है, लेकिन अपेक्षाओं और भौतिकता की अंधाधुंध दौड़ में दुर्बल एवं अधिक संवेदनशील व्यक्ति इस दबाव को न झेल पाते हुए घुटने टेक देता है और मजबूरन अपनी मौत को गले लगाने को ही एकमात्र विकल्प मान बैठता है। ऐसे में परिवार और समाज का यह फर्ज है कि घर अथवा अपने इर्द-गिर्द के माहौल को सहज बनाए रखें…

विश्व स्वास्थ्य संगठन के पूर्व आंकड़ों की अपेक्षाकृत वर्तमान वर्षों में भारत में आत्महत्या से संबंधित घटनाओं का बढ़ता ग्राफ अत्यंत चिंताजनक है। हर साल करीब साढे़ आठ लाख यानी हर 40 सेकंड के अंतराल में एक व्यक्ति अपने ही हाथों हुई मौत के कारण इस दुनिया को अलविदा कह देता है। इसे विकराल रूप से बढ़ती हुई महामारी जैसी समस्या मानते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन को प्रतिवर्ष 10 सितंबर विश्व आत्महत्या रोकथाम दिवस मनाने के लिए विवश होना पड़ा। आत्महत्या के मामले में भारत की शुमारी शीर्ष देशों में बीसवें स्थान पर पहुंचना अत्यंत चिंताजनक है। अन्य पड़ोसी देशों की तुलना में भारत, जो कि जीवन शैली के हर पहलू में अपेक्षाकृत अधिक विकसित है, आत्महत्या के मामले में अन्य देशों जैसे नेपाल, भूटान, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि देशों से बहुत ऊपरी पायदान पर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व भर में आत्महत्या का बढ़ता आंकड़ा एक और नई महामारी का रूप धारण करता जा रहा है। प्रतिवर्ष आठ लाख यानी कि प्रतिदिन करीब 2200 व्यक्ति अथवा प्रति 40 सेकंड में एक व्यक्ति मौत को खुद गले लगा लेता है। भारतवर्ष में वर्ष 2019 में ही आत्महत्या संबंधी दर्ज घटनाओं की संख्या चिंताजनक रूप से 1.39 लाख है जो कि प्रतिदिन की घटनाओं के हिसाब से 381 तक है। सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि इन घटनाओं में सबसे बड़ा हिस्सा करीब 68 फीसदी युवा वर्ग का है। इसके अतिरिक्त किसान, दैनिक वेतन पाने वाले मजदूर, कारीगर, व्यापारी, नौकरीपेशा लोग इस अति चिंतनीय प्रवृत्ति का शिकार हो रहे हैं। प्राथमिक रूप से इन घटनाओं के कारणों का पता चलने पर पाया गया है कि घरेलू हिंसा, नशाखोरी, पारिवारिक विवाद, लिंग आधारित भेदभाव, लंबी बीमारियां, कर्जदारी और पारिवारिक तथा नौकरीपेशा से उत्पन्न हुए तनाव की व्यापकता इनसान को मौत को गले लगाने के लिए बाध्य कर रही है।

स्वास्थ्य संगठनों के आकलन के अनुसार भारत जैसे विकासशील देशों में व्यक्ति के मानसिक अवसादों को जानने एवं समझने की जागरूकता केवल नाममात्र ही है। व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को स्वास्थ्य नीतियों में उचित स्थान न मिल पाना भी इन घटनाओं के लिए आग में घी के समान है। आज भी देश में स्वास्थ्य सुविधाओं में इजाफा करते हुए सरकारें मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े आधारभूत ढांचे और संसाधनों की उचित व्यवस्था और क्रियान्वयन को अधिक महत्त्व नहीं देतीं। हालांकि कई समाजसेवी संस्थाएं, गैर सरकारी संगठन अपने स्तर पर लोगों को मानसिक स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता प्रदान करते हैं, लेकिन यह प्रयास भी पर्याप्त साबित नहीं होते। फलस्वरूप किसी न किसी जगह आकस्मिक जानलेवा प्रयास एक और आत्महत्या में तब्दील हो जाता है। इसी तरह हिमाचल प्रदेश जैसे शांत एवं सौहार्दपूर्ण राज्य में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति ने समाज और सरकारों को झकझोरना शुरू कर दिया है।

हिमाचल प्रदेश पुलिस विभाग द्वारा घोषित आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में प्रतिदिन औसतन चार लोग किसी न किसी कारणवश मौत को गले लगा लेते हैं। इनमें अधिकतम महिलाएं, निजी क्षेत्र में कार्यरत व्यक्ति व दैनिक पेशा करने वाले लोग इत्यादि शामिल हैं। कोरोना महामारी काल के आरंभ से यदि आत्महत्याओं के कारणों का पता लगाया जाए तो बेरोजगारी, भय, अवसाद, घरेलू हिंसा, नशाखोरी, आर्थिक संकट से उत्पन्न हुई असमय मौतें सभी को चिंतित कर सकती हैं। यद्यपि केंद्र एवं राज्य सरकारों ने लोगों को आधारभूत आवश्यकता एवं सुविधाएं पूरी करने में भरसक प्रयास किए हैं, किंतु तीव्र गति से बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई तथा अनिश्चितता से उत्पन्न हुए मानसिक तनाव और अवसाद की पहचान तथा उपाय किसी भी स्तर पर अपर्याप्त ही साबित हुए हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों का हवाला देते हुए राज्य पुलिस प्रमुख श्री संजय कुंडू ने हाल ही में सभी पुलिस थानों को आत्महत्या संबंधी घटनाओं का अलग से रजिस्टर रखने तथा प्रत्येक घटना का विश्लेषणात्मक रिकॉर्ड रखने की हिदायतें दी हैं जो वास्तव में इस बढ़ती हुई समस्या के कारणों को जानने की दिशा में एक सार्थक पहल है।

पिछले दो महीनों में ही हिमाचल में आश्चर्यजनक 250 से अधिक आत्महत्या की घटनाएं अत्यंत चिंतनीय विषय है। जरूरी तो यह भी है कि पुलिस विभाग आंकड़े एकत्र करने के साथ-साथ लोगों को मानसिक समस्याओं के प्रति जागरूक भी करे तथा मनोविज्ञानियों तथा कुशल चिकित्सकों की मदद से जन जागरूकता का अभियान भी आरंभ करे। यद्यपि आत्महत्या जैसे सवालों पर चिंतन करने की आवश्यकता पर अब अहम विश्लेषण होने लगा है और सवाल उठ रहे हैं, लेकिन हमारे समाज का नकारात्मक दृष्टिकोण भी इन घटनाओं के प्रति संवेदनहीनता की दास्तान है। प्रत्येक परिवार में कोई न कोई सदस्य आज किसी न किसी मानसिक अवसाद से उत्पन्न दबाव में जी रहा है, लेकिन अपेक्षाओं और भौतिकता की अंधाधुंध दौड़ में दुर्बल एवं अधिक संवेदनशील व्यक्ति इस दबाव को न झेल पाते हुए घुटने टेक देता है और मजबूरन अपनी मौत को गले लगाने को ही एकमात्र विकल्प मान बैठता है। ऐसे में परिवार और समाज का यह फर्ज है कि घर अथवा अपने इर्द-गिर्द के माहौल को सहज बनाए रखें। किसी भी व्यक्ति को ज्यादा प्रताडि़त, उत्पीडि़त अथवा मानसिक रूप से ठेस न पहुंचाएं। व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व को समझें तथा उसे जीवन के सही रास्ते पर चलने का मार्गदर्शन करें। किसी भी व्यक्ति को अपने जैसा या किसी अन्य व्यक्ति के अनुरूप काबिल होने के लिए बाध्य एवं प्रताडि़त न करें। परिवार के सदस्य दिनचर्या में मानसिक एवं शारीरिक आराम पर भी ध्यान दें। किसी भी व्यक्ति को भयभीत न होने दें। प्रतिदिन ध्यान, योगाभ्यास, उचित खानपान, सैर करना इत्यादि गतिविधियां भी व्यक्ति के अंदर जीने की लालसा और सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करती हैं।


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