उच्च शिक्षा में डिजिटल निवेश: डा. वरिंदर भाटिया, कालेज प्रिंसिपल

By: डा. वरिंदर भाटिया, कालेज प्रिंसिपल Nov 11th, 2020 12:12 am

डा. वरिंदर भाटिया

कालेज प्रिंसिपल

ऑस्ट्रेलिया का उच्च शिक्षा ऋण कार्यक्रम व्यापक रूप से एक प्रशंसित मॉडल है, जिसे ऑस्ट्रेलियाई कर कार्यालय द्वारा संचालित किया जाता है। ऋण पुनर्भुगतान मात्रा को ऋण लेने वाले की आय के स्तर से जोड़ा जाता है और ऋण सीधे ऑस्ट्रेलियाई कर अधिकारियों द्वारा वसूला जाता है। एक-तिहाई आय अनुसंधान गतिविधियों से आ सकती है। हालांकि अनुसंधान मुख्य रूप से सरकार द्वारा प्रायोजित होते हैं। यूसी बर्कले, हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालय अपनी शोध निधि का एक-तिहाई हिस्सा गैर-सरकारी स्रोतों से ही जुटाते हैं। अपने देश में अनुसंधान मुख्य रूप से सरकार द्वारा प्रायोजित हैं। अपर्याप्त सरकारी अनुदानों की वजह से अनुसंधान सुविधाओं का प्रबंधन व संचालन अहम चुनौती बना हुआ है। आईआईटी दिल्ली द्वारा दुनिया की सबसे सस्ती कोविड-19 परीक्षण किट का हालिया लॉन्च और एक अन्य यूनिवर्सिटी द्वारा व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों की आपूर्ति गौर करने लायक है…

भारत में उच्च शिक्षा के सामने इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश और विकास एक प्रमुख चुनौती रही है। देश में अनेक कालेज और अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों में  इंफ्रास्ट्रक्चर के अभाव ने शिक्षा की क्वालिटी और विस्तार दोनों को ही प्रभावित किया है। बदलते वक्त के साथ उच्च शिक्षा के इंफ्रास्ट्रक्चर के मानक और मायने भी बदल गए हैं। बीती सदी तक विश्वविद्यालयों की चुनौती इमारतों और अकादमी ढांचे का विकास था, मगर अब 21वीं सदी में इंटरनेट इंफ्रास्ट्रक्चर विकास का नया पहलू बन गया है। कोरोना वायरस की महामारी के बाद यह तय भी हो चुका है कि इंटरनेट सूचनाओं का ही नहीं, भविष्य में शिक्षा का भी इंजन बन सकता है। इसके लिए देश के उच्च शिक्षा अदारों में डिजिटल निवेश बढ़ाने की जरूरत है। एक अनुमान के मुताबिक आज भारत में 28 प्रतिशत लोग ही उच्च शिक्षा की दहलीज पर पहुंच पाते हैं। भारत वैश्विक औसत 38 प्रतिशत और चीन के 51 प्रतिशत से काफी पीछे है। अगर भारत एक ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था बनना चाहता है तो हमारे उच्च शिक्षा संस्थानों को नवाचार परिवेश तंत्र बनाने में अग्रणी भूमिका निभानी पड़ेगी। उच्च शिक्षा संस्थानों का स्तर सुधारने और नए संस्थानों के निर्माण के लिए अतिरिक्त निवेश की जरूरत है, जबकि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का बहुत कम हिस्सा हमारे यहां उच्च शिक्षा पर खर्च होता है।  नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) उच्च शिक्षा के लिए सकल घरेलू उत्पाद का एक निश्चित प्रतिशत आवंटित करके इस मामले को हल करने की कोशिश कर रही है।

यह नीति उच्च शिक्षा संस्थानों को प्रशासनिक स्वायत्तता देने की भी बात करती है। वर्तमान में ये संस्थान सरकार से 80 प्रतिशत धन प्राप्त करते हैं। अपनी वित्तीय और प्रशासनिक स्वायत्तता को सुरक्षित करने के लिए इन उच्च शिक्षा संस्थानों को 21वीं सदी के माकूल वित्तीय मॉडल की खोज करनी चाहिए। देश में इंफ्रास्ट्रक्चर विकास की दिशा में कई ऐसी नीतिगत पहलकदमियां की गई हैं, जिनसे न केवल पारदर्शिता बढ़ी है, बल्कि विश्वविद्यालयों की जवाबदेही में भी इजाफा हुआ है। बढ़ी हुई जवाबदेही भविष्य में शिक्षा की गुणवत्ता और विस्तार में योगदान दे सकती है। उच्च शिक्षण संस्थानों की बेहतरी के लिए एक संरचनात्मक कायाकल्प चाहिए। इन संस्थानों के लिए एक विशेष वित्तीय मॉडल के निर्माण की जरूरत है। अपने देश में भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) उच्चतर ट्यूशन फीस या शिक्षण शुल्क लगाकर वित्तीय स्वायत्तता प्राप्त करने में सक्षम रहे हैं। इन संस्थानों के खर्च में शिक्षण शुल्क का योगदान 85 प्रतिशत तक है। क्या सिर्फ  ज्यादा फीस और शुल्क ही उच्च शिक्षण संस्थानों के लिए व्यावहारिक वित्तीय मॉडल है?

हमें इसके ऊपर विचार करना होगा। अमरीका, ऑस्ट्रेलिया और एशिया में ज्यादातर विश्वविद्यालयों की आय में ट्यूशन फीस का योगदान एक-चौथाई तक है, जबकि हमारे देश में आईआईटी में इसका सिर्फ  छह से सात प्रतिशत तक योगदान रहता है। यह गौर करने की बात है। छात्रों का लगभग एक-तिहाई हिस्सा ही ट्यूशन फीस की ऊपरी सीमा के हिसाब से भुगतान करता है। अन्य छात्र अपनी सामाजिक श्रेणी और आर्थिक स्थिति के आधार पर बहुत कम राशि का भुगतान करते हैं। यह योगदान न सिर्फ बाजार से प्रतिस्पर्द्धा के अनुरूप ट्यूशन फीस लगाकर, बल्कि सभी छात्रों को शुल्क भुगतान की श्रेणी में लाकर भी बढ़ाया जा सकता है। यह काम एक वित्तीय योजना के माध्यम से किया जा सकता है। छात्रों व उनके परिवारों को अतिरिक्त शुल्क मुक्त और ब्याज मुक्त ऋण उपलब्ध कराते हुए उनकी वित्तीय बाधाओं को दूर किया जा सकता है। ऑस्ट्रेलिया का उच्च शिक्षा ऋण कार्यक्रम व्यापक रूप से एक प्रशंसित मॉडल है, जिसे ऑस्ट्रेलियाई कर कार्यालय द्वारा संचालित किया जाता है। ऋण पुनर्भुगतान मात्रा को ऋण लेने वाले की आय के स्तर से जोड़ा जाता है और ऋण सीधे ऑस्ट्रेलियाई कर अधिकारियों द्वारा वसूला जाता है। एक-तिहाई आय अनुसंधान गतिविधियों से आ सकती है। हालांकि अनुसंधान मुख्य रूप से सरकार द्वारा प्रायोजित होते हैं। यूसी बर्कले, हार्वर्ड जैसे विश्वविद्यालय अपनी शोध निधि का एक-तिहाई हिस्सा गैर-सरकारी स्रोतों से ही जुटाते हैं। अपने देश में अनुसंधान मुख्य रूप से सरकार द्वारा प्रायोजित हैं। अपर्याप्त सरकारी अनुदानों की वजह से अनुसंधान सुविधाओं का प्रबंधन व संचालन अहम चुनौती बना हुआ है।

आईआईटी दिल्ली द्वारा दुनिया की सबसे सस्ती कोविड-19 परीक्षण किट का हालिया लॉन्च और आईआईटी दिल्ली स्टार्ट-अप्स द्वारा 45 लाख से अधिक निर्यात-गुणवत्ता वाले व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों की आपूर्ति गौर करने लायक है। उच्च शिक्षण संस्थान इस तरह से निवेश को बढ़ावा देकर शिक्षण और अनुसंधान के जरिए अपने लिए संसाधन जुटा सकते हैं। अनुसंधान में उद्योगों की भागीदारी को बढ़ावा देने की दिशा में आईआईटी मद्रास ने प्रौद्योगिकी पार्कों के निर्माण के माध्यम से एक रास्ता दिखाया है। हार्वर्ड, स्टैनफोर्ड और मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी ने दुनिया भर के विश्वविद्यालयों द्वारा अपनाई गई अक्षय निधि की अवधारणा को आगे बढ़ाया है। अक्षय निधि न सिर्फ पूर्व छात्रों के जरिए, बल्कि उद्योगों, परोपकारी दानदाताओं और सरकारों की मदद से भी बनाई जा सकती है। पिछले साल आईआईटी दिल्ली ने एक अरब डॉलर के लक्ष्य के साथ एक अक्षय निधि की शुरुआत की है, जिसके जरिए हर साल 700 करोड़ रुपए की आय हो सकती है। एक सफल अक्षय निधि मॉडल को प्रशासनिक बाधाओं से दूर रखना होगा। आने वाले दिनों में उच्च शिक्षण संस्थानों के वित्तीय मॉडल में आय के तीन स्रोत होंगे ः पहला, विलंबित ट्यूशन फीस भुगतान। दूसरा, अनुसंधान अनुदान (स्टार्ट-अप्स में निवेश), प्रौद्योगिकी हस्तांतरण शुल्क और तीसरा, अक्षय निधि में दान। उच्च शिक्षा के निवेश कार्य में बदलाव तय है। इसका काफी हिस्सा डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर को विकसित करने में हो। अब हमें देखना है कि इस दिशा में हम आगे बढ़कर नेतृत्व करते हैं या नहीं।

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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