आंदोलन के समाधान: कुलभूषण उपमन्यु, अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

By: कुलभूषण उपमन्यु, अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान Dec 16th, 2020 12:07 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

भारतवर्ष में किसानों की समस्या नई नहीं है। आजादी से पहले ही अंग्रेजी राज में किसानी कर्ज और कम उत्पादन की शिकार हो गई थी। आजादी के बाद जितना ध्यान उद्योगों के विकास पर दिया गया, उतना कृषि के विकास पर नहीं दिया गया। 60 के दशक में देश अकाल जैसी स्थिति से रूबरू हुआ, जिसके बाद कृषि क्षेत्र के विकास की ओर ध्यान दिया गया। परिणामस्वरूप हरित क्रांति का दौर आया। उपज में आशातीत बढ़ोतरी हुई। किसान भी कुछ हद तक खुशहाल हुआ। किंतु घटती मिट्टी की उर्वरता, बढ़ते मशीनीकरण के बोझ, बीज-खाद की बढ़ती लागत के चलते खेती घाटे का सौदा होती गई। खाद्य जरूरतों के मामले में देश आत्मनिर्भर होने के बाद अतिरिक्त उत्पादन करने लगा। देश की चिंता मिटी, किंतु किसानी की चिंता बढ़ते-बढ़ते किसान आत्महत्या के चंगुल में फंस गया। सबके इस बात पर सहमत होने के बावजूद हालात को बदलने के लिए कुछ सार्थक कर पाने की प्रभावी पहल नहीं हो सकी है। स्थिति को समझने के लिए देवेंद्र शर्मा का विश्लेषण मददगार होगा। 1970 से अब तक किसान की आय में 19 गुणा बढ़ोतरी हुई है, जबकि मजदूरी में 100 गुणा और अन्य वेतनभोगी आय में सौ से तीन सौ बीस गुणा तक वृद्धि हुई है। इससे एक तरफ  किसान का खेती पर लागत खर्च नहीं निकलता है, दूसरी ओर समाज में आय में असमानता की बढ़ती खाई से किसान सामाजिक दबाव झेलने पर विवश हो रहा है। इस परिस्थिति ने किसान को आत्मघात करने पर विवश कर दिया है।

 आज किसान सड़कों पर अपनी बदहाली से बाहर निकलने के लिए संघर्ष कर रहा है। सरकार ने कृषि सुधार के लिए तीन कानून बनाए हैं। सरकार का कहना है कि किसान को बदहाली से बाहर निकालने के लिए ये कानून कारगर होंगे, तो किसान इनसे अपनी समस्या का हल होते नहीं देख रहे, बल्कि उन्हें अंदेशा है कि इन कानूनों से किसान की हालत और खराब हो जाएगी। सरकार अपना पक्ष समझा कर अपनी नेक नीयत का सबूत देना चाहती है और किसान अपनी आशंकाओं को निर्मूल नहीं समझते, इसलिए कानूनों को रद्द करवाने तक आंदोलन पर अड़ गए हैं। थोड़ा इन कानूनों पर नजर डालें। कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य कानून 2020 : सरकार कह रही है कि इससे किसानों और व्यापारियों को एपीएमसी मंडियों से बाहर फसल बेचने की आजादी मिलेगी। इससे एपीएमसी मंडियों और बाहर की बिक्री में प्रतिस्पर्धा के कारण किसानों को न्यूनतम कीमत से ज्यादा पर उपज बेचने की सुविधा मिलेगी। बाहर ज्यादा कीमत न मिलने की सूरत में वह सरकारी मंडी में न्यूनतम कीमत पर बेचने के लिए स्वतंत्र होगा। फसल एक राज्य से दूसरे राज्य में भी ले जाकर बेचने की छूट होगी। यदि वहां ज्यादा पैसा मिलेगा तो किसान वहां ले जाएगा।

 यदि खेत से ही फसल बिक जाएगी तो किसान को मंडी तक ढुलाई का खर्च बचेगा। इसके विरोध में तर्क है कि मंडियों से बाहर बिक्री पर राज्य को फीस और आढ़तियों को आढ़त नहीं मिलेगी, उनका क्या होगा? धीरे-धीरे मंडियां बंद हो जाएंगी और न्यूनतम मूल्य पर खरीद भी बंद हो जाएगी। दूसरा कानून है ‘कृषक, कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार कानून 2020’। इसके तहत कॉन्ट्रेक्ट खेती के लिए राष्ट्रीय ढांचा तैयार किया जाएगा। किसान इच्छुक फर्मों, विक्रेताओं से कॉन्ट्रेक्ट करके पहले से निर्धारित कीमत पर अपनी फसल बेच सकते हैं। पांच हेक्टेयर से छोटे किसानों को इसमें विशेष लाभ होगा। बाजार की अनिश्चितता का भार किसान के बजाय कॉन्ट्रेक्ट खेती करवाने वाले पर डाला गया है। कॉन्ट्रेक्ट फसल का होगा, जमीन का नहीं। इसलिए किसान को जमीन से वंचित होने का कोई खतरा नहीं। विवाद के हल के लिए तंत्र की स्थापना होगी। इसके विरोध में तर्क है कि कॉन्ट्रेक्ट  के दौरान किसान की सौदेबाजी की शक्ति फर्मों के सामने कम होगी। छोटे किसानों से प्रायोजक बात करने से कतराएंगे, विवाद में प्रायोजक का दबाव किसान पर होगा। तीसरा कानून है ‘आवश्यक वस्तु संशोधन कानून 2020’। इसके तहत अनाज, दलहन, खाद्य तेल, प्याज, आलू को आवश्यक वस्तु सूची से हटाना। युद्ध जैसी परिस्थिति को छोड़ कर इनकी भंडारण मात्रा पर सीमा नहीं लगेगी। इससे निजी निवेशकों का डर कम होगा। कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़ेगा जिसका लाभ किसान को होगा। कोल्ड स्टोरेज, फूड सप्लाई श्रृंखला का विकास और आधुनिकीकरण होगा। इसके विरोध में तर्क है कि जमाखोरी को प्रोत्साहन मिलेगा और किसानों पर मूल्य तय करते समय दबाव डाला जा सकेगा। जमाखोरी से व्यापारी का लाभ बढ़ेगा व भाव बढ़ेंगे।

 देखने से लगता है कि दोनों तरफ  तर्कों में कुछ-कुछ वजन है। यदि पुरानी व्यवस्था अच्छी ही है तो आज किसान आत्महत्या क्यों कर रहा है? इसलिए कुछ नई व्यवस्था, बदलाव तो जरूरी है। सरकार ने इसकी पहल की, शुरुआत हुई, चुप्पी टूटी। किंतु किसानों को इसमें कुछ कमियां दिखती हैं तो उन्हें दूर करना चाहिए। किसान और सरकार दोनों खुले मन से समाधान की तलाश करने के लिए इकठ्ठा बैठें। बातचीत से पीछे न हटें, क्योंकि किसानी को घाटे के सौदे से लाभकारी बनाना करोड़ों लोगों के किसानी और उससे जुड़े व्यवसायों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन चुका है। देश में बेरोजगारी के समाधान में भी यह बड़ी छलांग साबित होने वाला काम है। औद्योगिक विकास की अपनी सीमाएं प्रकट होने लग पड़ी हैं। यह विकास रोजगार पैदा नहीं कर रहा है। उद्योग स्वचालित तकनीकों के प्रयोग से लाभ कमाना सीख चुके हैं। अब किसानी को लाभकारी बना कर ही इतनी बड़ी आबादी का पेट भरने के साथ-साथ उनके हाथों को काम दिया जा सकता है। फिलहाल टकराव टालने के लिए सरकार इन कानूनों को मॉडल कानून के तौर पर आगे लाए। जिस राज्य को इस व्यवस्था में जाना हो, वह जाए, जिसे न जाना हो वह न जाए। इससे इनकी परख भी हो जाएगी। यदि लाभकारी हुए तो बाकि राज्य भी अपना लेंगे, यदि कुछ समस्या दिखी तो कानून में सुधार के साथ आगे बढ़ने का रास्ता निकाला जा सकेगा। असली मामला तो किसान की आय को बाकि वर्गों के समान लाना है, ताकि वह भी सम्मानजनक जीवनयापन कर सके और बहुत से लोग एक अच्छा रोजगार पा सकें।

 वास्तव में कृषि सेक्टर एक ऐसा सेक्टर है, जहां रोजगार की व्यापक संभावनाएं हैं। अतः इस सेक्टर की समस्याओं को हल करना जरूरी है। सरकार को किसानों की मांगों पर सहानुभूति के साथ विचार करना चाहिए। किसान जिन संशोधनों का सुझाव देते हैं, उन्हें कानून में शामिल किया जाना चाहिए। न्यूनतम समर्थन मूल्य को अनिवार्य बनाकर उसे कानून में शामिल करने से सरकार को हिचकिचाना नहीं चाहिए। वास्तव में किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य की समस्या को हमेशा-हमेशा के लिए सुलझा लेना चाहता है। अगर इसे कानून में शामिल कर लिया जाए, तो यह हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। ऐसा होने पर किसान चैन से जी सकेगा। किसानों को भी चाहिए कि वे बातचीत के लिए आगे आएं। उनके पास अगर सरकार की ओर से कोई सकारात्मक प्रस्ताव बातचीत का आता है, तो किसानों को उससे पीछे नहीं हटना चाहिए। बातचीत से ही इस समस्या को सुलझाया जा सकता है और आंदोलन को खत्म किया जा सकता है।


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