कांट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों को खतरे: कुलभूषण उपमन्यु, अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

By: कुलभूषण उपमन्यु, अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान Dec 22nd, 2020 12:07 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालय नीति अभियान

इसलिए  यह ध्यान रखना होगा कि हमारी किसानी अमरीका की तरह कॉर्पोरेट घरानों के हाथ में न चली जाए, जहां आज स्वतंत्र कृषक नाममात्र 2.5 फीसदी ही बचे हैं। ऐसी परिस्थिति को भारत जैसा देश कदापि सहन नहीं कर सकता जहां 60 फीसदी लोग खेती पर ही निर्भर हैं और उसके वैकल्पिक रोजगार खड़े होने की भी कोई संभावना नहीं है। सरकार खुद पहल करके वार्ता करे, कुछ आशंकाएं यदि आधारहीन हैं तो किसानों को समझाया जा सकता है…

दुनियाभर में ट्रेड वार, जलवायु परिवर्तन, वैश्वीकरण और कॉर्पोरेट खेती के चलते छोटा किसान दबाव में आ गया है। छोटा किसान उस स्तर का मशीनीकरण खेती में प्रयोग नहीं कर सकता जैसा बड़ा किसान या कॉर्पोरेट घराने कर सकते हैं। इसलिए छोटे किसान के मुकाबले बड़े किसान या कॉर्पोरेट कृषक सस्ता उत्पादन कर सकते हैं। इसके चलते छोटा किसान प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाता है। इस दबाव में जब वह कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के लिए जाने पर बाध्य होता है तो उसे कॉर्पोरेट की शर्तों को मान्य करना पड़ता है। या फिर घाटे की कृषि को छोड़ कर जमीन बेचने पर मजबूर होना पड़ता है। अमरीका जैसे समृद्ध देशों में भी छोटा किसान इन दबावों को झेल नहीं पा रहा है। इसी का परिणाम है कि 2011 और 2018 के बीच अमरीका में एक लाख छोटे किसान गायब हो गए।

वे अपने खेत बेचने पर मजबूर हुए। अमरीका में भी स्वतंत्र छोटा किसान कर्ज और आत्महत्या के भंवर में फंस चुका है। स्वतंत्र कृषि कोई लाभदायक व्यवसाय नहीं रहा है और ग्रामीण जीवन खतरे में आ गया है। कॉर्पोरेट फार्मिंग ही लाभकारी बची है। अमरीका के फार्म ब्यूरो के वैज्ञानिक जॉन न्यूटन के अनुसार विश्व में खाद्य उत्पादन तीन प्रतिशत बढ़ा है, किंतु किसान को मिलने वाले भाव आपूर्ति बढ़ने से कम होते चले गए। लागत खर्च तो कम नहीं हुआ, उलटे बढ़ा ही है। इसके कारण छोटे किसान खेती छोड़ कर शहरों की ओर पलायन करने पर मजबूर हो रहे हैं। अमरीका में एक नारा चल पड़ा  है कि ‘गेट बिग’ और ‘गेट आउट’। यानी जोत बड़ी कर लो या खेती व्यवसाय से बाहर हो जाओ।

1987 और 2012 के बीच 2000 एकड़ से बड़े फार्म दो गुने हो गए और 200 एकड़ के लगभग वाले फार्म 44 फीसदी घट गए। यानी धीरे-धीरे छोटे किसान को खेती छोड़ने की स्थितियां पैदा हो गई हैं और मजबूत होती जा रही हैं। भारतवर्ष की स्थिति इस मामले में और भी चिंताजनक हो सकती है क्योंकि सघन आबादी के कारण यहां 95 फीसदी के लगभग जोतें लघु और  सीमांत किसानों की हैं। जब कॉर्पोरेट खेती से 200 एकड़ वाला ही मुकाबला नहीं कर पा रहा है तो 5 एकड़ वाला किसान कैसे करेगा? खेती छोड़ कर शहरों को भागने वाला किसान उद्योगों में रोजगार पाने का प्रयास करता है, किंतु उद्योग जगत भी उतने लोगों को रोजगार देने में अक्षम होता जा रहा है क्योंकि वहां भी स्वचालित तकनीकों  से उत्पादन लागत बचाने की सोच हावी हो रही है। अतः खेती छोड़ रहे किसानों को रोजगार उद्योगों में भी मिलने वाला नहीं है। इसलिए खेती के ऐसे मॉडल की बात भारतवर्ष में होनी चाहिए जिसमें छोटा किसान स्वतंत्र कृषक के रूप में इज्जत से जीवनयापन कर सके।

वर्तमान कानून में जाहिर है कि बिना उचित कानूनी पकड़ के किसान को कारपोरेट फर्मों से निपटना आसान नहीं होगा। यह ठीक है कि जमीन लीज पर नहीं दी जाएगी, केवल फसल का ही ठेका होगा। और पहले से निर्धारित कीमत पर फसल की गारंटी होने के कारण बाजार के उतार-चढ़ाव से किसान सुरक्षित रहेगा। किंतु ठेके की शर्तों में शरारत करने की गुंजाइश तो बनी ही रहेगी। क्योंकि किसान को बड़े व्यापारिक घरानों पर विश्वास की कमी है, इसलिए ऐसा कोई भी कानून किसानों और कृषि विशेषज्ञों को एक साथ बिठा कर बनाया जाना चाहिए या अभी उसमें संशोधन की व्यवस्था की जानी चाहिए जिसमें कोई किसान विरोधी छेद न हो। मान लो आसपास के 20 किसान अपनी फसल का ठेका किसी कंपनी से कर लेते हैं तो जाहिर है कि उनके बीच में फंसे 2-4 किसानों को भी फसल का ठेका करना ही पड़ेगा, चाहे उनकी इच्छा ऐसा करने की न हो। फिर उन कंपनियों से मूल्य में भी मुकाबला करना पड़ेगा। बड़ी फर्मों की उत्पादन लागत कम आएगी जिसके बूते वे छोटे किसानों को मजबूर करके ठेका व्यवस्था में आ जाने पर मजबूर कर सकते हैं।

इसलिए  यह ध्यान रखना होगा कि हमारी किसानी अमरीका की तरह कॉर्पोरेट घरानों के हाथ में न चली जाए, जहां आज स्वतंत्र कृषक नाममात्र 2.5 फीसदी ही बचे हैं। ऐसी परिस्थिति को भारत जैसा देश कदापि सहन नहीं कर सकता जहां 60 फीसदी लोग खेती पर ही निर्भर हैं और उसके वैकल्पिक रोजगार खड़े होने की भी कोई संभावना नहीं है। सरकार खुद पहल करके वार्ता करे, कुछ आशंकाएं यदि आधारहीन हैं तो किसानों को समझाया जा सकता है। कानून का कागजी स्वरूप और उसका क्रियान्वित रूप ज्यादातर अलग होने की संभावनाएं बनी ही रहती हैं। जैसे कि दहेज लेना-देना अपराध है, किंतु सबसे ज्यादा दहेज कानून बनाने वाले ही लेते-देते पाए जाते हैं। स्पष्ट कानून होने के बावजूद बड़े-बड़े अपराधी छुट्टा घूमते हैं। ऐसा वे पैसे के दम पर कर पाते हैं। इसी तरह बड़ी कॉर्पोरेट फर्मों द्वारा कानून को घुमा-फिरा कर किसानों के शोषण के रास्ते निकाल लेने का अंदेशा भी बना ही रहेगा। अतः ऐसे कोई छेद न रह जाएं जिनसे किसान का शोषण संभव हो। यह सुनिश्चित करने और किसानों के शक दूर करने के लिए सांझी समझ, जिसमें किसान, कृषि विशेषज्ञों को साथ बिठा कर, तीनों कानूनों के संयुक्त प्रभाव का आकलन करके उस हिसाब से संशोधन करने की दिशा में बढ़ना चाहिए। सरकार को यह नहीं सोचना चाहिए कि हम छह बार वार्ता कर चुके हैं, परिणाम नहीं निकला, बल्कि खुद पहल करके यह साबित करना चाहिए कि किसी भी सूरत में सरकार किसानों को संतुष्ट करना चाहती है। जो लोग इसमें राजनीतिक लाभ उठाने का मौका देखते हैं, उनको भी आत्ममंथन करना चाहिए और किसान हित को प्रमुख मानते हुए किसान नेताओं को बात करने देना चाहिए और बिना कारण बयानबाजियों से दूर रहना चाहिए। बढ़ती ठंड और सामने आ रहे मृत्यु के मामलों को देखते हुए अब इस मामले को और लटकाना किसी भी पक्ष के हित में नहीं है।


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