ग़ालिब: बदनाम शायर, बादाख्वार वली: विकास लाबरू, आईएएस अधिकारी

By: विकास लाबरू, आईएएस अधिकारी Dec 28th, 2020 12:06 am

विकास लाबरू

आईएएस अधिकारी

वो अपना आकलन करते हुए कहते हैं कि यदि उन्हें शराबनोशी की आदत न होती तो शायरी में जीवन दर्शन संबंधी समस्याओं को व्यक्त करने की उनकी क्षमता उन्हें एक वली, एक सिद्धपुरुष के रूप में स्थापित कर सकती थी। यह साहस भी तो कोई सिद्धपुरुष दिखा सकता है कि वो अपनी महानता को सिर्फ  इसलिए नकार दे क्योंकि उसमें एक मानवीय अवगुण है जिसे वो स्वयं संसार के सामने स्वीकारता है। उनकी स्वीकार्यता इतनी है कि जो संभवतः किसी दूसरे शायर को कभी नहीं मिलेगी…

‘होगा कोई ऐसा भी कि ग़ालिब को न जाने, शायर तो वो अच्छा है पे बदनाम बहुत है।’ अपने आप को बेबाकी से बदनाम स्वीकारने वाला यह सर्वकालिक महान शायर मिजऱ्ा असद-उल्ला खां ग़ालिब 27 दिसंबर 1797 को आगरा में एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में पैदा हुआ था। जब मिजऱ्ा पांच वर्ष के ही थे, तो इनके पिता एक लड़ाई में शहीद हो गए थे। इनके पिता की मृत्यु के बाद इनका पालन-पोषण इनके चाचा ने किया था। शीघ्र ही इनके चाचा का भी देहांत हो गया था जिसके बाद इनका पालन-पोषण इनके ननिहाल आगरा में हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा के विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। मात्र तेरह वर्ष की आयु में मिजऱ्ा का विवाह दिल्ली की ग्यारह वर्षीय महिला उमराव बेग़म से हो गया था तथा विवाहोपरांत वे दिल्ली में जा बसे थे। कुछ इतिहासकारों का मत है कि इनके जीवन में इनकी पत्नी का बहुत बड़ा प्रभाव रहा है। ग़ालिब के वैवाहिक जीवन का दुखद पहलू यह था कि उनकी सात संतानें हुई जिनमें से एक भी जीवित नहीं रह पाई।

कहा जाता है कि इसी दुख से उबरने के लिए उन्होंने शराब और शायरी का दामन थाम लिया था। शायरी जहां उनकी प्रसिद्धी का कारण बनी, शराब और जुए की लत उनकी वो दो कमज़ोरियां रहीं जिन्होंने उन्हें निरंतर बरबादी की तरफ  धकेला और मरते दम तक उनके साथ बनी रहीं। उनकी जीवन यात्रा का अध्ययन स्पष्ट दर्शाता है कि जीवन के प्रवाह को नियंत्रित करने में वो स्वयं को असहाय महसूस करते थे। तभी तो वो एक दार्शनिक की तरह कह उठते हैं किः- ‘रौ में है रख्श-ए-उम्र कहां देखिए थमे, न हाथ बाग पर है न पा है रकाब में।’ उर्दू शायरी के इस महान शायर और साहित्यकार की रफ्तार से भागी जा रही वो अनियंत्रित उम्र, जिसकी न लगाम उसके हाथ में थी और न जिसकी रकाब में उसके पांव थे, अंततः 15 फरवरी 1869 को दोपहर ढले दिल्ली में ठहर गई। इन दो तिथियों 27 दिसंबर 1797 और 15 फरवरी 1869 के बीच मिजऱ्ा ने पहले उपनाम ‘असद’ और बाद में उपनाम ‘ग़ालिब’ से शायरी को वो तारीख लिखी, वो इतिहास रचा जो सिर्फ हिंदोस्तान ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की विरासत है। यह वो दौर था जब बहादुर शाह ज़फर, जो खुद शायर होने के साथ-साथ शायरी के बहुत बड़े प्रशंसक थे, भारत के शासक थे।

 बादशाह सलामत भी मिजऱ्ा गा़लिब के मुरीद थे और उन्हें सुनना पसंद करते थे। मिजऱ्ा ग़ालिब के समकालीन इब्राहिम ज़ौक और मोमिन जैसे कई महान शायर थे, लेकिन उनके जैसी साहित्यिक ऊंचाई कोई भी दूसरा शायर नहीं पा सका। साहित्य का यह सफर तय करते हुए इस शायर को बहुत आलोचना, बहुत अपमान और विरोध का सामना करना पड़ा। उनका मज़ाक उड़ाया जाता था, उन पर छींटाकशी की जाती थी, पर इन सबसे बेपरवाह वो आगे बढ़ते रहे, यह कहते हुए किः- ‘न सताईश की तमन्ना न सिले की परवा, गर नहीं मेरे अशयार में माने न सही।’ इस महान शायर को उनके आजीवन संघर्ष, दुखों, पीड़ाओं ने एक विशिष्ट साहित्यिक दृष्टि प्रदान कर दी थी। इसीलिए उनकी कलम से जीवन दर्शन की वो धारा बहती थी जो उनके सृजन में वर्णित विचारों को सार्वभौमिक एवं सर्वकालिक सत्य के रूप में स्थापित कर देती थी। यही परिपक्व साहित्यिक दृष्टि कहीं उनसे ये कहलवाती है किः ‘इशरते कतरा है दरिया में फना हो जाना, दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।’ और कहीं विपत्तियों को सहजता से सहने का ये संदेश दिलवाती हैः ‘रंज से खूगर हुआ इन्सां तो मिट जाता है रंज, मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसां हो गईं।’ कभी यह उनमें निर्लिप्तता एवं तटस्थता का भाव पैदा करते हुए उनसे संसार की ये व्याख्या करवाती हैः ‘बाज़ीचा-ए अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे, होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे।’ इन शेरों में निहित दार्शनिक दृष्टिकोण मिजऱ्ा ग़ालिब को जीवन यात्रा के अनुभवों से प्राप्त हुआ था। जीवन के सत्य, जीवन के सार को आत्मसात करके अपनी शायरी में व्यक्त करने की उनकी अभूतपूर्व क्षमता और साहित्यिक दृष्टि ने ही तो उनसे स्वयं अपना आकलन इन शब्दों में करवाया थाः-‘ये मसाईले-तसव्वुफ, ये तेरा बयान ग़ालिब, तुझे हम वली समझते जो न बादाख्वार होता।’

वो अपना आकलन करते हुए कहते हैं कि यदि उन्हें शराबनोशी की आदत न होती तो शायरी में जीवन दर्शन संबंधी समस्याओं को व्यक्त करने की उनकी क्षमता उन्हें एक वली, एक सिद्धपुरुष के रूप में स्थापित कर सकती थी। यह साहस भी तो कोई सिद्धपुरुष दिखा सकता है कि वो अपनी महानता को सिर्फ  इसलिए नकार दे क्योंकि उसमें एक मानवीय अवगुण है जिसे वो स्वयं संसार के सामने स्वीकारता है। जीवन दर्शन का सिद्धपुरुष होने की अपनी क्षमता पर मिजऱ्ा ग़ालिब ने बेशक स्वयं प्रश्नचिन्ह लगा दिया हो, परंतु उनके साहित्यिक सिद्धपुरुष होने पर न कोई आज न कोई आने वाले समय में सवाल उठा पाएगा, चाहे विनयशीलता की पराकाष्ठा दर्शाते हुए ग़ालिब अपने विषय में ये कहते रहेः ‘हम कहां के दाना थे किस हुनर में यकता थे, बेसबब हुआ ‘ग़ालिब’ दुश्मन आसमां अपना।’ दो शताब्दियां बीतने के बाद ग़ालिब की उत्तरोत्तर बढ़ती लोकप्रियता, उनके नाम से जोड़कर यहां-वहां लिखे असंख्य शेर यही दर्शाते हैं कि शराबनोशी की मानवीय कमज़ोरी के बावजूद जनमानस ने उन्हें एक साहित्यिक वली, एक दाना, एक सिद्धपुरुष के रूप में वो स्वीकार्यता प्रदान कर दी है जो संभवतः किसी दूसरे शायर को कभी नहीं मिलेगी।


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