हमारे ऋषि-मुनि, भागः 42श्री चैतन्य महाप्रभु

By: - सुदर्शन भाटिया  Dec 19th, 2020 12:13 am

फाल्गुन शुक्ल 15, शक संवत् 1407 को, सिंह लग्न में, दिन के समय बालक चैतन्य का जन्म हुआ। नाम रखा निमाई। गांव का नाम नवद्वीप है तथा वह पश्चिमी बंगाल में पड़ता है। पिता थे श्री जगन्नाथ मिश्र तथा माता थी शची देवी। आप भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त थे तथा समय आने पर श्री चैतन्य महाप्रभु के नाम से विख्यात हुए। माना जाता है कि आप श्री राधा के अवतार थे। इनकी मान्यता इतनी थी कि बंगाल में इन्हें अब श्री साक्षात ब्रह्म के रूप में पूजा जाता है। इन्होंने जीवन के अंतिम छह वर्ष राधाभाव में ही व्यतीत किए। यह वह समय था जब इनके अंदर महाभाव के सभी लक्षण उत्पन्न हुए।

दुराचारी भी इन्हें जानकर संत बन गए

कभी-कभी तो भगवान के विरह में वह रोया भी करते। भांति-भांति की अवाजें निकलतीं। उस समय के अद्वैत वेदांती वासुदेव सार्वभौम तथा प्रकाशनंद सरस्वती भी इनके करीब आकर कृष्णप्रेमी बन गए। इनके शत्रु भी इनके शिष्य बनकर सुख पाने लगे। इनकी कृष्ण भक्ति के आगे तो सभी सिर झुकाते थे। ये सभी को स्न्रेह भरी नजरों से देखते थे।

जप और कीर्तन उद्धार का साधन

भगवदभक्ति तथा भगवन्नाम का प्रचार करना ही इनके जीवन का मुख्य उद्देश्य था। वह चाहते थे कि जगत में प्रेम बढ़े। भाईचारा हो, लोग शांति से जीवनयापन करें। यह सब किया, मगर ऐसा करते समय किसी भी अन्य धर्म या संप्रदाय की इन्होंने निंदा नहीं की। द्वैत और अद्वैत में समन्वय करने में सफल हुए जप और कीर्तन ेसे ही उद्धार संभव है, ऐसा समझाया गोदावरी के तट पर जो इन्होंने राधाभाव दर्शाते हुए राय रामानंद के साथ बड़ा विलक्षण संवाद किया। इन्होंने शिक्षाष्टक नामक ग्रंथ की रचना की, जिसमें अपने उपदेशों का निचोड़ भरा।

दैवी संपित्त का अर्जन जरूरी

ईश्वर के नाम का स्मरण करने पर जोर देने वाले चैतन्य महाप्रभु ने कहा, हमें दैवी संपित्त का अर्जन भी करना चाहिए, जिसके लक्षण इस प्रकार गिनाए दया, अहिंसा, उदारता, शौच, समता, परोपकार, निष्कामता, इंद्रियदमन,गंभरता, धैर्य, तेज, मैत्री, परदुःख, कातरता, अनासक्ति, मृदुता, चित्त की स्थिरता, सत्य, मत्सरशून्यता, इंद्रियमन तथा युक्ताहार, विहार आदि इसके अतिरिक्त उन्होंने चित्त की पवित्रता को अधिमान दिया। किसी भी शिष्य को किसी भी स्त्री से बात करने की इजाजत नहीं थी। चैतन्य महाप्रभु स्वयं चौबीस वर्ष की आयु तक गृहस्थाश्रम में रहे।

हरिदास का परित्याग

अपने बनाए नियमों का कठोरता से पालन करवाते। एक बार सर्वथा निर्दोष चरित्र वाले शिष्य हरिदास ने माधवी नाम की एक वृद्धा से बात कर ली। वह भी महाप्रभु की भक्त थी। इसे अपराध बताकर चैतन्य महाप्रभु ने उसे सदा के लिए त्यग दिया था।

हस्तलिखित ग्रंथ को जल में बहाकर खत्म कर दिया

महाप्रभु न्याय के महापंडित थे तथा न्यायशास्त्र पर एक अच्छा ग्रंथ तैयार किया। तभी तो मित्र भी ईर्ष्या करने लगे थे। जब उनके एक मित्र ने शंका जतलाई कि चैतन्य जी के ग्रंथ का आदर होगा और उनके द्वारा रचित ग्रंथ को कोई नहीं पढ़ेगा,तब मित्र को सुख देने के लिए चैतन्य महाप्रभु ने अपना ग्रंथ दरिया में फेंक दिया। पांडुलिपि पानी में डूबकर खत्म हो गई। बिना पूर्ण वैराग्य हुए ये किसी को दीक्षा नहीं देते थे। तभी तो इन्होंने पहली बार अपने शिष्य रघुनाथ दास को संन्यास लेने से मना कर दिया। महाप्रभु के शिष्यों में से कुछ नाम श्री नित्यानंद प्रभु, श्री रूप सनातन, जीव गोस्वामी, राय रामानंद अद्वैत प्रभु आदि। इनके जीवन में अनेक अलौकिक घटनाएं घटीं।                                                               – सुदर्शन भाटिया 


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