कश्मीर की सुरक्षा में हिमाचल का योगदान : प्रताप सिंह पटियाल, लेखक बिलासपुर से हैं

By: प्रताप सिंह पटियाल, लेखक बिलासपुर से हैं Dec 9th, 2020 12:08 am

देश के लिए हिमाचल का सैन्य बलिदान हमेशा अग्रणी रहा है। इसलिए देश के कुछ नेताओं तथा मायानगरी के अदाकारों को भी वीरभूमि हिमाचल पर लफ्फाजी करने से परहेज करना होगा। इसके अलावा हमारे देश के कुछ हुक्मरान ‘पीओके’ को वापस लेने की ख्वाहिश जाहिर करते हैं, जबकि यह जोखिम भरा काम भी हमारी सैन्यशक्ति के साहस व पराक्रम पर मुन्नसर करता है…

बीते सात दशकों से भी अधिक समय से भारतीय सैन्यशक्ति की वीआईपी सुरक्षा के साए में महफूज रहकर जम्मू-कश्मीर की आवाम पर पुश्तों से हुकूमत कर रहे वहां के तमाम सियासतदान अपने राज्य से अनुच्छेद 370 व 35ए की फुर्कत में कई तरह के बयान व मशवरे पेश कर रहे हैं जिनमें कभी देश के राष्ट्रध्वज तिरंगे को न उठाना, कभी बंदूक उठाने वालों का समर्थन या चीन की मदद से धारा 370 की बहाली आदि प्रमुख हैं। मगर अपने नामुकम्मल होने वाले ख्वाबों तथा बयानों से बेनकाब हो रहे ये हुक्मरान यदि अपने राज्य के इतिहास से मुखातिब हों तो उन्हें कश्मीर के भौगोलिक विस्तार से लेकर आंतरिक सुरक्षा व सरहदों की हिफाजत के लिए हिमाचली जांबाजों के रक्तरंजित सैन्य इतिहास का अक्स व शौर्य पराक्रम के निशान कश्मीर की वादियों के हर महाज पर मौजूद मिलेंगे। कश्मीर की सुरक्षा के लिए पाकिस्तान व चीन के साथ पांच बडे़ युद्धों व कई सैन्य संघर्षों में बलिदान देने वाले हिमाचल के योद्धाओं की फेहरिस्त बहुत लंबी है। 15 अगस्त 1947 में देश की आजादी के साथ ही पड़ोस में भारत विरोधी वायरस तथा मजहबी तूफान से ग्रसित पाकिस्तान वजूद में आ गया था।

अस्तित्व में आने के दो महीने बाद ही पाक सिपहसालारों ने कश्मीर को हथियाने की साजिश को अंजाम दे दिया था। उस उन्मादी हमले से निपटने की एकमात्र ताकत भारतीय सेना थी। यदि आज भारत के मानचित्र पर श्रीनगर तथा गुपकार रोड मौजूद है तो इसका श्रेय हिमाचली शूरवीर मेजर सोमनाथ शर्मा प्रथम ‘परमवीर चक्र’ को जाता है जिन्होंने अपने ‘4 कुमांऊ’ के सैन्य दल के साथ पाकिस्तानी सेना को मुंहतोड़ जवाब देकर श्रीनगर पर पाक परचम लहराने वाली मंसूबाबंदी पर पानी फेर कर 3 नवंबर 1947 को शहादत को गले लगा लिया था। इसी युद्ध में कर्नल शेर जंग थापा ‘महावीर चक्र’ ने अपने सीमित सैनिकों के साथ 11 फरवरी 1948 को पाक सेना को धूल चटाकर स्कर्दू किले पर कब्जा कर लिया था। आज चीन के साथ जिस लेह-लद्दाख को लेकर कसीदगी का माहौल बना है, 1947-48 में लद्दाख घाटी को पाक सेना के उस आक्रमण से बचाने के लिए हिमाचल के डोगरा सैनिकों को विशेष तरीके से चुना गया था। उस सैन्य मिशन का उत्कृष्ट नेतृत्व कर्नल ठाकुर पृथी चंद ‘महावीर चक्र’, मेजर खुशाल ठाकुर ‘महावीर चक्र’ तथा सूबेदार भीम चंद ‘वीर चक्र’ ने किया था। उन बहादुर सैनिकों ने बेहद कठिन परिस्थितियों में हजारों फीट की ऊंचाई पर जोजिला दर्रे को माइनस डिग्री के तापमान में पार करके 8 मार्च 1948 को लेह-लद्दाख की धरती पर हिंदोस्तान के शौर्य का तिरंगा लहराकर हिमाचल के शौर्य की गवाही पेश कर दी थी। उस सैन्य दल को ‘सेवर्स ऑफ  लद्दाख’ के नाम से भी जाना जाता है। कर्नल कमान सिंह पठानिया ‘महावीर चक्र’ (3 गढ़वाल) टिथवाल क्षेत्र 18 मई 1948 तथा कर्नल अनंत सिंह पठानिया ‘महावीर चक्र’ (प्रथम गोरखा) ने 14 नवंबर 1948 को ‘गुमरी नाला’ पर कब्जा जमाए बैठी पाक सेना व रजाकारों को जहन्नुम का रास्ता दिखा दिया था।

इसी युद्ध में हिमाचल के सूरमाओं से सुसज्जित डोगरा रेजिमेंट (4 डोगरा) के जवानों ने अप्रैल 1948 को राजौरी के निकट ‘चिंगस किले’ तथा ‘बड़वाली हिल्स’ पर भारी तादाद में मोर्चा जमाए बैठी पाक सेना व कबाइली पठानों पर धावा बोलकर उन्हें नेस्तनाबूद करके भारतीय परचम फहरा दिया था। सूबेदार हीरा सिंह व संसार सिंह तथा जमादार बचितर सिंह (तीनों वीरचक्र) इसी यूनिट के जांबाज थे। मगर अफसोसजनक कि कश्मीर को बचाने वाले देश के उन गुमनाम मुहाफिजों का हमारे इतिहास में जिक्र तक नहीं होता जिनके पराक्रमी तेवरों से खौफजदा होकर 1947-48 युद्ध के पाक सैन्य कमांडर मेजर जनरल अकबर खान शिकस्त की जलालत झेलकर अपने शेष बचे लाव-लश्कर के साथ पाकिस्तान वापस भाग गया था। यदि इससे भी पीछे का सैन्य इतिहास खंगालें तो मालूम होगा कि हिमाचली शूरवीर व जम्मू-कश्मीर रियासत के महान् जरनैल जोरावर सिंह ने 13 फरवरी 1840 को ‘थामोकोन’ के मैदाने-जंग में बाल्टिस्तान के सेनापति वजीर गुलाम हुसैन को अपनी शमशीर से खामोश करके उसकी सेना को परास्त किया था तथा बाल्टिस्तान, गिलगिट व स्कर्दू को जम्मू-कश्मीर की डोगरा सल्तनत में मिला दिया था। 1947 में जम्मू-कश्मीर राज्य के प्रथम प्रधानमंत्री मेहरचंद महाजन का संबंध भी हिमाचल से ही था। देश के लिए हिमाचल का सैन्य बलिदान हमेशा अग्रणी रहा है। इसलिए देश के कुछ नेताओं तथा मायानगरी के अदाकारों को भी वीरभूमि हिमाचल पर लफ्फाजी करने से परहेज करना होगा। इसके अलावा ‘पीओके’ जिसे पाकिस्तान 73 वर्षों से अपनी मल्कियत मान कर बैठा है, हमारे देश के कुछ हुक्मरान उस ‘पीओके’ को वापस लेने की ख्वाहिश जाहिर करते हैं, जबकि यह जोखिम भरा काम भी हमारी सैन्यशक्ति के साहस व पराक्रम पर मुन्नसर करता है। लेकिन जब देश की सरहदों पर बरसते बारूद व मिसाइलों के घातक हमलों के बीच चौबीसों घंटे मुस्तैद होकर शहादत दे रहे देश के सैनिकों की पेंशन कटौती जैसे सेना का मनोबल गिराने वाले प्रस्ताव आते हैं तो देश की तमाम सियासी जमातें खामोशी का लबादा ओढ़ लेती हैं।

22 हजार फीट की बुलंदी पर मौजूद बर्फ  का रेगिस्तान सियाचिन ग्लेशियर व आतंकी घुसपैठ का मरकज नियंत्रण रेखा जहां बारूद कभी ठंडा नहीं होता, वहां से तिरंगे में लिपट कर आ रहे शहीद सैनिकों की शहादतों पर गमजदा माहौल में देशभक्ति का इजहार करने वालों को शहीदों के आश्रितों तथा पूर्व सैनिकों के जज्बातों की कदर का मिजाज भी पैदा करना होगा। चूंकि सैन्य अभियानों को धरातल पर अंजाम देना पड़ता है, अतः सेना को रोजगार का जरिया मानने वाला नजरिया भी बदलना होगा। लाजिमी है कि सरकार वन रैंक वन पेंशन व पैरामिलिट्री के जवानों की पेंशन जैसे मुद्दों पर भी विचार करे। बहरहाल तन्कीदगी की जद में सियासी जमीन तराश रहे गुपकार ग्रुप को देश के उन शहीदों का शुक्रगुजार रहना चाहिए जिन्होंने कश्मीर का वजूद बचाने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। देश उन जांबाजों का सदैव ऋणी रहेगा।


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