नारों नहीं, अधिकारों से जय होगा किसान: राकेश शर्मा, लेखक जसवां से हैं


किसानों का यह आंदोलन जब शुरू हुआ था तो उनकी मुख्य मांग फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में कानून में कोई प्रावधान करने और फसलों को मंडियों से बाहर बेचने के नए प्रावधान के चलते पुरानी मंडियों के समाप्त होने के खतरे से संबंधित थी। वे अपनी इन मांगों को पूरा करने के लिए कानून में बदलाव की मांग कर रहे थे और मुख्य रूप से इन्हीं मांगों को लेकर ही किसानों ने राजधानी की तरफ कूच किया था। किसानों से की गई क्रूरता के कारण अब वे कृषि बिलों को रद करने की मांग कर रहे हैं…
किसान शब्द कानों में पड़ते ही मन में जो पहली छवि बनती है, वह एक मेहनतकश और अपने काम के प्रति समर्पित इनसान की होती है। एक ऐसा इनसान जो ठंड, गर्मी और बरसात में खुले आसमान के नीचे अपने खेतों में मेहनत करता हुआ नजर आता है। उसकी इसी मेहनत के कारण ही देशवासियों को प्रतिदिन भरपेट खाना नसीब होता है। किसान अगर अपने खेतों में मेहनत करके फसलें न उगाए तो भारत जैसे बड़ी आबादी वाले देश में अनाज की कमी से जो हालात पैदा होंगे, उसकी कल्पना मात्र ही सिहरन पैदा कर देती है। किसान के लिए अपने खेत-खलिहानों से बढ़कर कुछ भी नहीं है। प्रतिकूल हालात से लड़कर और खेतों की मिट्टी को अपने पसीने से सींच कर सदियों से हमारा किसान देश की तस्वीर को उज्ज्वल बनाता आया है।
भारत का कृषि और किसान से रिश्ता कोई नया नहीं है। यह रिश्ता सिंधु घाटी की सभ्यता के जितना ही पुराना है। आजादी के बाद यदि भारत की आबादी में तीन गुना की वृद्धि हुई है तो देश में कृषि उत्पादन में किसानों ने चार गुना की वृद्धि करके दिखाई है ताकि बढ़ती हुई आबादी की जरूरतों को पूरा किया जा सके। वर्तमान में देश की कुल जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान लगभग सोलह प्रतिशत है जो कि विश्व की जीडीपी में कृषि के योगदान लगभग दस प्रतिशत से काफी अच्छा है। इसके अलावा देश की कुल आबादी का लगभग साठ प्रतिशत हिस्सा कृषि पर ही आधारित है अर्थात उनको कृषि से ही रोजगार मिल रहा है। सन् 1960 में हरित क्रांति की शुरुआत के समय देश की कुल जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान लगभग चालीस प्रतिशत था। इसके बाद सन् 1965 में जब देश के दूसरे प्रधानमंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री द्वारा देश के जवानों के साहस और किसानों के श्रम को समर्पित ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया गया, तब दो वर्षों के भयानक सूखे के बावजूद 1967 में देश के किसानों की मेहनत की बदौलत सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान 42 प्रतिशत से भी अधिक हो गया था जो कि आज तक का सर्वाधिक योगदान रहा है। उस समय देश में औद्योगिक और सेवा क्षेत्र का विस्तार नहीं हुआ था और देश पूरी तरह से कृषि पर ही आधारित था।
समय बीतने के साथ देश ने कई तरह की अन्य क्रांतियां भी देखी, जिससे देश का हर क्षेत्र में विकास हुआ और धीरे-धीरे देश की कुल जीडीपी बढ़ने के साथ उसमें कृषि का योगदान कम होता चला गया। आज भले ही सेवा और औद्योगिक क्षेत्रों का योगदान भारत की जीडीपी में सबसे अधिक हो, फिर भी कृषि क्षेत्र द्वारा प्रदान किए जा रहे रोजगार और देश के विकास में दिए गए योगदान को कम नहीं आंका जा सकता है। कर्ज, सूखा, महंगाई और अन्य कई तरह की मुसीबतों को झेलते हुए किसान अकसर फंदों पर झूलता हुआ मिलता है। तीन लाख से अधिक किसानों द्वारा आज तक देश में आत्महत्या की जा चुकी है। इन सब परेशानियों के बीच किसानों के लिए लाए गए तीन कृषि कानून किसानों के लिए नया सिरदर्द बन चुके हैं। आजकल देश का किसान केंद्र सरकार द्वारा जून महीने में लॉकडाउन के दौरान अचानक अध्यादेश के रूप में लाए गए तीन कृषि बिलों के खिलाफ दिल्ली की सड़कों पर बैठा हुआ है। जल्दबाजी में लाए गए इन कानूनों के बारे में किसान संगठनों से पहले कोई भी चर्चा नहीं की गई थी, इसलिए इन कानूनों को किसान और किसान संगठन पचा नहीं पाए। तीन कृषि बिलों से सरकार यह साबित करना चाहती है कि ये बिल किसान हितैषी हैं, जबकि किसानों की राय इससे बिल्कुल विपरीत है। देश के किसान संगठनों और सरकार के बीच आंदोलन को समाप्त करने के लिए कई दौर की वार्ता हो चुकी है जिससे कोई भी नतीजा सामने नहीं आया है। इस तरह की वार्ता के दौर यदि इन कानूनों को बनाने से पहले किए गए होते तो शायद इस तरह की टकराव की स्थिति पैदा न होती।
किसानों का यह आंदोलन धीरे-धीरे एक जनांदोलन का रूप लेता जा रहा है। केवल किसान ही नहीं, बल्कि देश के अन्य वर्गों से संबंधित लोग भी इस आंदोलन के साथ खड़े होते हुए नजर आ रहे हैं। किसानों द्वारा दिल्ली जाने वाले रास्तों को बंद करने से लोगों को तकलीफ जरूर हो रही है, लेकिन किसानों के लिए लोग इस तकलीफ को उठाने के लिए भी तैयार हैं। किसानों का यह आंदोलन जब शुरू हुआ था तो उनकी मुख्य मांग फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य के बारे में कानून में कोई प्रावधान करने और फसलों को मंडियों से बाहर बेचने के नए प्रावधान के चलते पुरानी मंडियों के समाप्त होने के खतरे से संबंधित थी। वे अपनी इन मांगों को पूरा करने के लिए कानून में बदलाव की मांग कर रहे थे और मुख्य रूप से इन्हीं मांगों को लेकर ही किसानों ने राजधानी की तरफ कूच किया था। हरियाणा की सीमा पर किसानों के साथ की गई क्रूरता और अत्याचार से न केवल किसान आक्रोशित हुए, बल्कि वे अब तीनों कृषि बिलों को निरस्त करने की मांग कर रहे हैं। किसानों को अपनी फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य प्राप्त करने का अधिकार मिलना ही किसानों के साथ सबसे बड़ा न्याय है। न्यूनतम समर्थन मूल्य से संबंधित एक नया कानून सरकार द्वारा किसानों की बेहतरी के लिए लाया जाना चाहिए। देश के किसान को आज अन्नदाता का नाम दिया जा रहा है और दशकों से किसानों को नारों से खुश भी किया जाता रहा है, लेकिन सही मायनों में किसान को नामों या नारों की नहीं, बल्कि अधिकारों की सबसे अधिक जरूरत है।