सड़क के लड्डू : अजय पाराशर, लेखक धर्मशाला से हैं

By: अजय पाराशर, लेखक, धर्मशाला से हैं Dec 1st, 2020 12:06 am

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शाम की सैर के दौरान पंडित जॉन अली और मैं पार्क के साथ वाली उस सडक़ पर तेज़ी से कदम बढ़ा रहे थे, जिस पर हाल ही में कोलतार डालने के बाद सडक़ को नमी से बचाने के लिए कोलतार मिश्रित रेत डाली गई थी। वहीं सड़क पर बच्चे आपस में खेलते हुए एक-दूसरे पर कोलतार मिश्रित रेत के गोले बनाकर मार रहे थे। उनमें से एक गोला जब सदन में दिए जा रहे किसी माननीय के वक्तव्य की तरह पंडित जी के कपड़ों पर आ कर फटा तो उन्होंने नाराज़गी जताते हुए बच्चों से पूछा, ‘क्या कर रहे हो भई, क्यों दूसरों के कपड़े ़खराब कर रहे हो और अपने भी। क्या तुम्हें पता नहीं कि इस तरी़के से सड़क से रेत इकट्ठी करना और गोले बनाकर एक-दूसरे पर फेंकना राष्ट्रीय संपत्ति की बरबादी है। क्यों सडक़ का नाश पीट रहे हो?’ एक बच्चा हंस कर बोला, ‘अंकल, हमने क्या सड़क का नाश पीटना है? पीटने वाले तो पहले ही अर्थव्यवस्था की तरह सड़क का नाश पीट कर जा चुके हैं। हम तो केवल किसानों की तरह अपने हिस्से में आई सबसिडी से सड़क के लड्डू बना कर एक-दूसरे पर फेंक रहे हैं।’ बच्चे की इस प्रतिक्रिया पर मैं हंसे बिना न रह सका।

पंडित जी खिसियाते हुए मेरी हंसी में मजबूरन वैसे ही शामिल हुए जैसे किसी बैट्समैन द्वारा छक्का मारे जाने पर दूसरी टीम का खिलाड़ी बाउंड्री पर केवल उछल कर रह जाता है। मैंने उनकी स्थिति भांपते हुए उन्हें सहज करने के इरादे से वैसा ही अटपटा सवाल पूछ लिया जैसे सदन में देश की आर्थिकी पर चल रही गंभीर चर्चा के दौरान कोई सोया हुआ माननीय अचानक उठकर अपने दल के पक्ष में गाय पर बोलना शुरू कर देता है। मैंने पूछा, ‘ठग्गू के लड्डू और सड़क के लड्डुओं में क्या ़फर्क है?’ पंडित जी किसी मंझे हुए राजनेता की तरह अपने पक्ष में मोर्चा संभालते हुए बोले, ‘दोनों में फर्क है भी और नहीं भी। जैसे ठग्गू के लड्डू ठग्गू और ग्राहक दोनों के मन में मिठास घोलते हैं, वैसे ही सड़क के लड्डू माननीयों, विभाग और ठेकेदार सभी के जीवन में मिठास घोलते हैं। ठग्गू को लड्डू बेचने से फायदा होता है तो विभाग को सड़क का ठेका देने पर। लेकिन जहां ग्राहक अपने पैसे ़खर्च कर, अपने मुंह में मिठास घोलता है, वहीं ठेकेदार देश के मुंह से टिकाऊ विकास की गारंटी के चने छीनकर माननीय, विभाग और अपने जीवन में मिठास घोलने वाले लड्डुओं के लिए बेसन पीसता है। फिर विभाग के मंत्री, स्थानीय माननीय और विभाग को उनका हिस्सा देकर, सड़क निर्माण के लिए वह चासनी ़खरीदता है जो उसे अगले बरस फिर उसी सड़क का ठेका दिलवा सके।

लेकिन सड़क में डलने वाली चीनी को जब ये सभी लोग मिल-बांटकर खा जाते हैं तो वह टिकेगी कैसे? ऐसे में अगर बच्चे उसके लड्डू बना कर खेलते हैं तो अगले दो सालों में किसानों की आय दोगुनी करने के वायदे की तरह उसके टिकाऊ होने की बात में कोई अतिरंजना भी नहीं है। जैसे ठग्गू अपनी साख बनाए रखने के लिए पूरी ईमानदारी के साथ अपने थाल सजाता है, वैसे ही माननीय, विभाग और ठेकेदार पूरी ईमानदारी के साथ मिलकर सड़क बनाते हैं। अगर ऐसा न हो तो बनने के बाद ह़फ्ते भर में ही सड़क क्यों टूटे? फिर अगर सड़क टूटेगी नहीं तो अगले साल ठेका किसे मिलेगा और अगर ठेका नहीं मिलेगा तो माननीय, विभाग, ठेकेदार और बच्चों को अपने हिस्से के लड्डू कैसे मिलेंगे?’ इतना सुनने के बाद मैंने भी सड़क के लड्डू बनाकर बच्चों के साथ खेलना आरंभ कर दिया।


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