पंचायती राज में मनरेगा की संजीवनी

मजदूर की दिहाड़ी समय पर उसके खाते में डाली जानी चाहिए जिससे उसका उत्साह बना रहे। 15वें वित्त आयोग में मनरेगा के बजट में 30 फीसदी कटौती करके इसमें से 20 फीसदी पंचायत समिति और 10 फीसदी जिला परिषद सदस्यों के लिए जारी किया गया है जिससे निष्क्रिय हो चुके पंचायती राज के दोनों अभिन्न  अंग पंचायतों के विकास मे  अहम भूमिका निभा सकते हैं…

हमारे समाज में पंचायतों का अस्तित्व उस वक्त से है जिस दौरान पांच प्रतिष्ठित बुद्धिमान व्यक्ति पेड़ों के नीचे बैठकर आम सहमति से समस्याओं का समाधान कर देते थे जिन्हें पंच कहा जाता था। अंग्रेजों ने आते ही आईपीसी से इस नियम को ही तोड़ दिया जिसके कारण पंचायतें हाशिए पर चली गइर्ं। गरीब भोला-भाला व्यक्ति अदालतों के चक्कर में फंस कर रह गया। महात्मा गांधी का पंचायती राज व्यवस्था के माध्यम से देश को राम राज्य बनाने का सपना धरा का धरा रह गया, परंतु प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा राजस्थान के नागौर जिले के बगदरी गांव में 2 अक्तूबर 1959 को पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई। निश्चित रूप से लोकतंत्र को मजबूत करने की दिशा में यह एक बड़ा कदम था। उसके उपरांत 1986 में राजीव गांधी द्वारा सिंघवी कमेटी का गठन किया गया और 1992 में 73वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा इसका मौजूदा रूप प्राप्त हुआ। वर्तमान समय में इसके तीन  स्वरूप जिला परिषद, ब्लॉक समिति व ग्राम पंचायत में बेशक जिला परिषद का ओहदा सबसे बड़ा हो, परंतु बजट के हिसाब से ग्राम पंचायत ही सर्वश्रेष्ठ नजर आती है। जब 2005 में इसमें महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) को शामिल किया गया तो इससे पंचायतों को मानो संजीवनी मिल गई। यह भी बिल्कुल सत्य है कि मनरेगा से गांवों के स्वरूप बदल रहे हैं और निष्क्रिय हो चुकी पंचायतें  करोड़ों रुपए का कार्य कर देश की प्रगति में जान फूंक रही हैं।

14वें वित्त आयोग में इसे 60000 करोड़ का बजट जारी किया गया। अतः इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अथाह धन के आने से इसमें भ्रष्टाचार रूपी जिन्न प्रवेश करता जा रहा है। जनता को समझना होगा कि पंचायत प्रतिनिधि ऐसे व्यक्ति को चुनें जो न केवल ईमानदार और शिक्षित हो, अपितु कुशल, बेधड़क एवं सक्रिय भी हो, वरना ईमानदार होना ही सब कुछ नहीं है। सबसे जरूरी है कि हमारा प्रतिनिधि ऐसा हो जो इसे रोजगार न मानकर जनसेवा समझे। मनरेगा के लिए नियम और भी कड़े बनाए जाएं ताकि सरकार के पैसे का कम से कम 90 फीसदी तो सही प्रयोग हो। हिमाचल प्रदेश में  कृषि जैसे कार्य में भी मनरेगा का अधिक से अधिक उपयोग हो, जो कि हमारे देश की जीडीपी की रीढ़ है। पंचायत प्रतिनिधियों को दूरदर्शिता का परिचय देते हुए योजना को सही तरीके से लागू करवाना होगा जिससे इसका असल मकसद पूरा हो सके। जिस प्रकार जल संग्रहण की दृष्टि से लाखों रुपए खर्च कर वाटर टैंक तो बने, परंतु इसमें पंचायतों की खामियां साफ  दिखती हैं। वर्षा का जल एकत्रित करने की बजाय लोगों द्वारा नल का पानी एकत्रित किया गया जो कि इस योजना के मूल उद्देश्य से एकदम परे है।

 यह योजना तो उल्टा आईपीएच महकमे के लिए भंडारण की दृष्टि से मुसीबत बन गई। हम यह तो नहीं कह सकते कि सभी पंचायतें भ्रष्टाचार में लिप्त हैं क्योंकि कई पंचायतों के प्रतिनिधियों ने अपने उत्तम कार्य से हमें अचंभित भी किया है। कई बार प्रधानों को मनरेगा के कार्यों को पूर्ण करने के लिए नियमों को ताक पर रखकर काम करना पड़ता है जिसे स्थानीय लोग भ्रष्टाचार की संज्ञा देते हैं, जो शायद पूरी तरह न्यायसंगत नहीं है। इसके लिए कहीं न कहीं सरकार भी उत्तरदायी है। पंचायतों में रेत-बजरी टेंडर वाले व्यक्ति के बिलों का सरकार द्वारा समय पर भुगतान नहीं किया जाता जिससे उसकी कमर टूट जाती है और वह माल सप्लाई बंद कर देता है। माल मैटीरियल की आपूर्ति बंद होने और सीमेंट को बर्बादी से बचाने  के लिए प्रधान भी नियमों के विरुद्ध हाथ-पांव तो जरूर मारेगा, जिसे भ्रष्टाचार कहना सरासर गलत है। मनरेगा में युवा, गर्भवती महिला, विकलांग और 80 वर्षीय वृद्ध व्यक्ति की दैनिक मजदूरी एक समान है। इसी वजह से कई बार तकनीकी अधिकारी द्वारा श्रम का मूल्यांकन करते समय मजदूर की दिहाड़ी 70 से 80 रुपए बनती है जिससे हताश होकर कई युवा मजदूर मनरेगा से हमेशा के लिए किनारा कर लेते हैं। यदि सरकार सही मायने में पंचायतों द्वारा युवाओं का शहरों को पलायन रोकने और घर-द्वार पर रोजगार उपलब्ध कराने के प्रति गंभीर है तो 60 वर्ष से कम आयु वाले  मनरेगा मजदूर की 198 रुपए की दिहाड़ी में प्रदेश सरकार को अपनी ओर से हिस्सेदारी में ज्यादा इजाफा करना होगा। हिमाचल जैसे अति साक्षर राज्य में जहां रोजगार के साधन बहुत कम हैं, कोई भी पढ़ा-लिखा  युवा 198 रुपए में अपनी आकांक्षा तो दूर, सही तरीके से अपना पेट भी नहीं पाल सकता। पंचायतों के लिए कुशल कारीगर की 271 रुपए दिहाड़ी भी सिर दर्द है क्योंकि इतनी कम दिहाड़ी में कोई भी मिस्त्री काम करने को तैयार नहीं होता।

मजदूर की दिहाड़ी समय पर उसके खाते में डाली जानी चाहिए जिससे उसका उत्साह बना रहे। 15वें वित्त आयोग में मनरेगा के बजट में 30 फीसदी कटौती करके इसमें से 20 फीसदी पंचायत समिति और 10 फीसदी जिला परिषद सदस्यों के लिए जारी किया गया है जिससे निष्क्रिय हो चुके पंचायती राज के दोनों अभिन्न  अंग  पंचायतों के विकास मे  अहम भूमिका निभा सकते हैं। पंचायतों को और ज्यादा अधिकार मिलें ताकि छोटे-छोटे झगड़ों के लिए अदालतों पर बढ़ते बोझ को कम किया जा सके। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए सतर्कता कमेटियों का चयन पंचायतों द्वारा पिछले दरवाजे से न किया जाए एवं उन्हें और अधिक अधिकार दिए जाने की जरूरत है। योजनाएं बेशक दिल्ली में बनती हैं, परंतु पंचायतों को यदि पूरे अधिकार मिलें तो देश की सबसे छोटी इकाई पंचायत में देश की विकास दर को दो अंकों तक ले जाने जाने की पूरी क्षमता है, बशर्ते जनता भी सजगता दिखाए। कोई भी योजना जनता की भागीदारी के बिना पूरी तरह सफल नहीं होती है। अतः पंचायतों के काम-काज की निगरानी में जनता को सचेत होकर काम करना होगा। इससे मनरेगा जैसी योजनाओं में भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकेगा तथा पंचायतों की कार्यप्रणाली में भी निखार आएगा। मनरेगा के अंतर्गत होने वाले कार्यों की निगरानी जब जनता खुद करेगी, तो किसी को भ्रष्टाचार करने का मौका नहीं मिलेगा।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App