आरक्षण के आगे बौनी पड़ती प्रतिभा

21वीं सदी में पैदा होने वाले बच्चे जातीय भेदभाव में विश्वास नहीं करते। समाज के लिए बेहतर भी यही होगा यदि आरक्षण खत्म कर इन्हें इसकी परछाई से दूर रखा जाए। आज इस  देश के शीर्ष पदों पर स्वयं राष्ट्रपति महोदय अनुसूचित जाति और प्रधानमंत्री अन्य पिछड़ा वर्ग से आते हों तो भला आरक्षण का क्या औचित्य रह जाता है? एक ही जाति का व्यक्ति विभिन्न राज्यों में अलग-अलग जाति सूची में गिना जाता है। आज जरूरत है जब सुप्रीम कोर्ट  इसमें हस्तक्षेप कर इसके जाति आधारित ढांचे को आर्थिक आधार में बदलने का विचार करे वरना राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले इसे और नासूर बना देंगे…

भारतीय डाक विभाग द्वारा अपने विभाग में  मैट्रिक की मैरिट के आधार पर अस्थायी नियुक्तियां  की गईं और आगे भी यह क्रम जारी है जो कि स्वागत योग्य है। पिछले वर्ष उन बच्चों की नियुक्तियां हुईं जिनके मैट्रिक में  92-93 प्रतिशत अंक थे। हैरानी तब हुई जब इन पदों पर इस वर्ष 96 और 97 फीसदी अंक   लेने वाले बच्चे काबिज हुए जो विभिन्न जातियों से संबंध रखते थे। पारदर्शिता के हिसाब से यह गलत भी नहीं है। हम एक बात मानते हैं कि 90 फीसदी अंक से ऊपर वाले बच्चे हमेशा ही मेधावी बच्चों में गिने जाते हैं एवं हर कोई यह आशा करता है कि देश और राज्यों के नामचीन पदों पर इन्हीं बच्चों में से अधिकतर बच्चे काबिज होंगे। अब यह कैसी विडंबना है कि यह बच्चे अपनी आधी-अधूरी पढ़ाई बीच में छोड़कर एक अर्ध-सरकारी सामान्य डाक सेवक बनकर अपने अरमानों की बलि चढ़ा रहे हैं। दिलचस्प यह भी है कि इन सब में अधिकतर बच्चों के माता-पिता इतने भी असमर्थ नहीं हैं कि वे उन्हें आगे की पढ़ाई ना करा सकें। इस उतावलेपन की मुख्य वजह यह है कि इनके माता-पिता देश में बढ़ती बेरोजगारी एवं आरक्षण नीति से इस कदर हताश और भयभीत हैं कि उन्हें अपने  आईएएस, एचएएस, एलायड और शिक्षा के क्षेत्र में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम बच्चों को डाक सेवक बनाने में तनिक सा भी परहेज नहीं है। क्या वाकई यह उन मेधावी बच्चों के सात न्याय है जो कल तक बोर्ड की टॉप 150 की सूची में शामिल थे और जिन्होंने कल तक अपने उज्ज्वल भविष्य के लिए ढेरों सपने संजोए थे?

यह अत्यंत पीड़ादायक लगता है जब अलग-अलग किस्म के आरक्षण के आगे प्रतियोगी परीक्षाओं में 75 फीसदी अंक लेने  वाले बच्चों के सामने 95 फीसदी अंक लेने वाले बच्चे ढेर हो जाते हैं। पहली दृष्टि में तो यही लगा कि भविष्य में अपने बच्चों की दाल-रोटी सुनिश्चित करने के लिए इनके अभिभावकों ने वर्तमान में मौजूदा बेरोजगारी एवं आरक्षण के खेल के आगे आत्मसमर्पण कर दिया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे देश का सामाजिक स्तर अमरीका व इंग्लैंड की तरह इतना विकसित हो गया जहां कोई भी विशिष्ट व्यक्ति किसी भी  स्तर का कार्य करने से परहेज नहीं करता। ताज्जुब  तब हुआ जब गवर्नमेंट इंजीनियरिंग कॉलेज में डिग्री करने वाला एक युवा मिला जो इंजीनियरिंग की होती बेकद्री से हताश होकर चौथे वर्ष की पढ़ाई अधूरी छोड़ मौका मिलते ही डाक सेवक बन बैठा। लाखों रुपए खर्च कर 8000 रुपए से प्राइवेट इंजीनियर की शुरुआत करने से अच्छा उसे 12000 रुपए की डाक सेवक की नौकरी में भविष्य सुनहरा और सुरक्षित लगा। आज समाज को विचार करना होगा कि क्या वाकई सरकार और उसकी नीतियां  सामाजिक उत्थान के लिए सही दिशा में जा रही हैं या वे अपनी प्रतिभाओं के लिए कुआं खोद रहे हैं। ये तो ऐसा प्रतीत होता है जैसे दूसरा बच्चा पैदा करने के चक्कर में पहला बच्चा कुपोषित हो जाए। विश्व में भारत ही एकमात्र देश है जहां तमिलनाडु जैसे राज्यों में तो शैक्षणिक संस्थानों  में 69 फीसदी तक भी आरक्षण लागू है। इससे विभिन्न आरक्षित  श्रेणियों के बीच खुद ही प्रतियोगिता शुरू हो गई है। मौजूदा समय में पटेल, जाट, बढ़ई जैसी न जाने कितनी जातियों ने अपने आप को आरक्षण में शामिल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख कर रखा है। महाराष्ट्र में कोल्हापुर के महाराज छत्रपति साहू द्वारा 1901 में गरीबी दूर करने के लिए शुरू की गई आरक्षण व्यवस्था विभिन्न बदलावों के साथ आज भी जारी है। 1991 में तत्कालीन केंद्र सरकार के मुखिया वीपी सिंह ने 1979 में बनी मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करते हुए आरक्षण की सीमा 49.5 फीसदी कर दी जिसका उस वक्त छात्र संगठनों द्वारा मौजूदा किसान आंदोलन से भी अधिक प्रभावी तरीके से विरोध किया गया था। उस समय शायद ये जरूरी भी था, परंतु वर्तमान में यह अपने उद्देश्य के बिल्कुल विपरीत है।

 इसका मौजूदा रूप ओबीसी क्रीमी लेयर और नॉन क्रीमी लेयर यानी मलाईदार तबका समझ से परे है। अब समझिए, अन्य पिछड़ा वर्ग में आरक्षण उस व्यक्ति के बच्चों को  मिलेगा जिसकी सालाना आय 8 लाख रुपए से कम है। आसान शब्दों में यदि कोई ओबीसी सरकारी नौकरी वाला व्यक्ति ग्रेड सी, बी या ग्रेड ए में नौकरी करता हुआ 8 लाख सालाना की सीमा को लांघ भी जाता है तब भी उसके बच्चे आरक्षण के दायरे में आते हैं, बशर्त वह सीधे ए ग्रेड ऑफिसर भर्ती न हुआ हो। हास्यप्रद लगता है कि लाख रुपए के लगभग वेतन लेने वाला व्यक्ति कहां का पिछड़ा रह जाता है? यदि बात अनुसूचित जाति आरक्षण की करें तो इसमें तो आय सीमा बिल्कुल भी निर्धारित नहीं है, चाहे कोई व्यक्ति 50 लाख सालाना ही क्यों न कमाता हो। आज हमारा समाज काफी बदल चुका है और जातिवाद अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है। 21वीं सदी में पैदा होने वाले बच्चे जातीय भेदभाव में विश्वास नहीं करते। समाज के लिए बेहतर भी यही होगा यदि आरक्षण खत्म कर इन्हें इसकी परछाई से दूर रखा जाए। आज इस  देश के शीर्ष पदों पर स्वयं राष्ट्रपति महोदय अनुसूचित जाति और प्रधानमंत्री अन्य पिछड़ा वर्ग से आते हों तो भला फिर आरक्षण का क्या औचित्य रह जाता है? एक ही जाति का व्यक्ति  विभिन्न राज्यों में अलग-अलग जाति सूची में गिना जाता है। आज जरूरत है जब सुप्रीम कोर्ट  इसमें हस्तक्षेप कर इसके जाति आधारित ढांचे को आर्थिक आधार में बदलने का विचार करे वरना राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले इसे और नासूर बनाते जाएंगे। अगर ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले समय में और कई जातियां  इसके लिए किसान आंदोलन की तरह मारामारी करती नजर आएंगी जो कि विश्व गुरु बनने का सपना पाले देश के लिए कतई ठीक नहीं है।


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