डा. अंबेडकर के आर्थिक विचार एवं दर्शन

हम जब कभी भी, चाहे वह राजनीतिक चिंतक हो या सामाजिक कार्यकर्ता, बाबा साहेब अंबेडकर के बारे में सोचते हैं तो उन्हें हम अधिकांशतः एक दलित नेता के रूप में ही दर्शाते हैं। परंतु डा. अंबेडकर को मात्र दलित नेता कहना उनकी विद्वता व उनके द्वारा किए गए सामाजिक तथा आर्थिक तंत्र में कार्यों को आंकने में न्याय नहीं होगा। यह बात सही है कि जिस सामाजिक ढांचे में वे पले-बढ़े तथा जिन अन्यायपूर्ण, गैर बराबरी तथा अस्पृश्यता जैसी घिनौनी परिस्तिथितियों में से वे संघर्ष करते हुए आगे बढे, उसी को ही दृष्टि में रखते हुए सभी की नजरें आकर्षित होती हैं। परंतु डा. अंबेडकर एक बहु-आयामी व्यक्तित्व वाले एक अच्छे शिक्षक, कानूनविद, संविधान-विशेषज्ञ, अर्थ-शास्त्री, प्रखर विचारक और दूर-दृष्टा थे, जिन्होंने समाज के दलितों, वंचितों व पिछड़ों को समानता का अधिकार दिलाने तथा समाज में फैली कुरीतियों खासकर अस्पृश्यता जैसी बीमारी को समाप्त करने के लिए महान कार्य किया।

उन्हें आज हर क्षेत्र में उनके योगदान के लिए आंकना ही सही मायने में एक सकारात्मक कार्य होगा। डा. अंबेडकर द्वारा अर्थशास्त्र के क्षेत्र में किया गया कार्य अभूतपूर्व है। वास्तव में डा. अंबेडकर का मूल प्रशिक्षण एक अर्थशास्त्री के रूप में ही हुआ था। उन्होंने अमरीका के प्रख्यात कोलंबिया विश्वविद्यालय से 1914 में एमए तथा 1917 में पीएचडी की, वह अर्थशास्त्र में ही की थी और फिर 1923 में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स, ने उन्हें डीएससी (डॉक्टरेट ऑफ साइंस) की उपाधि भी उनके अर्थ-शास्त्रीय अनुसंधान के आधार पर ही थी। डा. अंबेडकर के अर्थशास्त्री होने की छाप उनके द्वारा प्रत्येक क्षेत्र में किए गए कार्य से स्पष्ट है। उनके द्वारा समय-समय पर दिए गए वक्तव्यों और आयोगों के समक्ष उनके कथनों से भारतीय अर्थ-व्यवस्था की समस्याओं के बारे में उनकी सूक्ष्म पहचान तथा गहरा ज्ञान प्रदर्शित होता है। अस्पृश्यता तथा जाति व्यवस्था जैसी सामाजिक बुराइयों के आर्थिक पहलुओं पर प्रकाश डालने वाले शायद वह पहले विचारक थे। डा. अंबेडकर ने लोकतंत्र को ऐसी प्रणाली के साथ जोड़ा जिसमें शासकों द्वारा जनता के आर्थिक और सामाजिक जीवन में आमूल परिवर्तन लाना संभव हो। उन्होंने सामाजिक लोकतंत्र और आर्थिक लोकतंत्र को राजनीतिक लोकतंत्र की कोशिकाओं और तंतुओं के समान माना।


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