भौतिकवाद लील रहा लोकसाहित्य की वाचिक परंपराएं
डा. रवींद्र कुमार ठाकुर
मो.-9418638100
वर्तमान में लोक भौतिकवादी और यांत्रिक होता जा रहा है। इस स्थिति में यह स्वाभाविक है कि उसकी सोच का दायरा भौतिकवादी हो रहा है। परिणामस्वरूप वह लोक संस्कृति एवं नैतिकता से परे होता जा रहा है। इस ऊहापोह में यह डर लगने लगा है कि लोक संस्कृति कहीं लुप्त न हो जाए। यांत्रिक होते जा रहे समाज की हालत यह हो गई है कि जितने घर में सदस्य उतने ही मोबाइल फोन। जितने घर में कमरे उतने ही टेलीविजन सेट। यहां तक कि घर के सदस्यों में आपसी संवाद तक नहीं हो पाता। एकल परिवार की राह पर चला समाज जले पर नमक छिड़क रहा है। यह सामाजिक विघटन व बुज़ुर्गों की अनसुनी और अनदेखी ने जहां मानवीय मूल्यों को गिराया है, वहीं वाचिक परंपराओं के लुप्त होने से लोक संस्कृति का अहित हो रहा है। लोक संस्कृति का अस्तित्व रहेगा, तो यह पीढ़ी दर पीढ़ी पारंपरिकता से समाज को पोषित करते हुए, अपने मूल उद्देश्य को फलीभूत करती रहेगी।
लोक को लेकर आदि कवि वाल्मीकि की यह पंक्ति कितनी प्रासंगिक है कि : ‘जननी जन्म भूमिशच स्वर्गादपि गरीयसीÓ। अर्थात अपनी मां, अपने जन्म-ग्राम, अपने घर और पड़ोस के माध्यम से ही हम अपने प्रदेश, देश को पहचान सकते हैं। यदि आदि कवि वाल्मीकि जी इस बात को हजारों वर्ष पहले जानते थे, तो आज के तथाकथित भावी भारत के कर्णधार इस बात को क्यों भूल जाते हैं। वे लोक को क्यों अनपढ़-गंवार और हेय दृष्टि से देखते हैं। गांव के कृषक व सरकारी स्कूल में पढऩे वाले को क्यों पिछड़ा व असभ्य समझते हैं। मेरा प्रश्न है कि जनमानस की मानसिकता इस बात का क्यों शिकार हो रही है कि जो व्यक्ति बोर्डिंग या अंग्रेजी माध्यम से ही पढ़ कर आता है, वही श्रेष्ठ व शिष्ट है। अंग्रेजों वाली मानसिकता से ग्रसित हो, अपने लिए अलग उच्च श्रेणी की व्यवस्थाएं व नियम बनाते थे व भारतीयों के लिए अलग, और उन्हें हेय दृष्टि से देखते थे। वही सोच स्वतंत्रता के बाद भी भारत की अफसरशाही ने नहीं त्यागी है। उन्होंने दोयम नियमों को त्यागा नहीं और तथाकथित शिष्ट समझे जाने वाले लोगों और उनके बच्चों को ही पीढ़ी दर पीढ़ी अफसर बनाते रहे। पश्चिम की सोच से ग्रस्त लॉबी देश व प्रदेशों की नीति निर्धारण में उनके अनुकूल भारतीय प्रशासनिक व प्रदेश सेवा में नियम बना कर भर्ती करते रहे।
परिणामस्वरूप जो लोक संस्कृति से विमुख रहा हो, वह उसका कितना उद्धार कर सकता था। इससे परतंत्रता के दिनों से ही क्षत-विक्षत की जा रही लोक संस्कृति का बहुत अहित हुआ। यहां तक कि वह अधिकारी जिसने कभी खेतों-खलिहानों और गांव में कदम नहीं धरा, कभी ग्रामीण परिवेश की सामाजिकता और लोक संस्कृति में घुला मिला नहीं, जिसे रीति-रिवाजों, देव परंपरा, पेड़-पौधों, अनाज, दाल, जीव-जंतुओं की पहचान व समझ नहीं, केवल पढ़ा हो, वह व्यक्ति उनके संरक्षण और संवद्र्धन या विकास के लिए कितने कारगर कदम उठा सकता है। प्रशासनिक अधिकारी बनकर भारतीयों का, जो भारत गांव में बसता है, उसके सांस्कृतिक व सर्वांगीण विकास की क्या नीतियां बनाएगा और कितना उसे धरातल पर उतारेगा, इसे भलीभांति समझा जा सकता है।
आज इस बात से राहत महसूस की जा सकती है कि अब देश के नेताओं को इस बात का एहसास हो गया है कि लोक संस्कृति की जानकारी और इसका प्रचार-प्रसार किए बिना हम देश-प्रदेश का सही अर्थों में विकास नहीं कर सकते। अपनी सांस्कृतिक समृद्धि को, जो पहले विश्व गुरु सम्मान प्राप्त थी, पुन: स्थापित नहीं कर सकते। इस बात को दृष्टिगत रखते हुए, नई शिक्षा नीति के आने से क्षतिपूर्ति की आशा जगी है। इस प्रसंग को इस आलेख के साथ जोडऩे का तात्पर्य यही है कि उन तत्त्वों को जो हमारे पूर्वजों की समृद्ध लोक सांस्कृतिक विरासत थे, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती रही है और हम तक पहुंचाने में सफल रहे हैं, उन्हें लुप्त होने से बचाना है। यह कार्य केवल अकेले सरकार का नहीं अपितु हमें भी सरकार के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलना होगा।
पिछले कुछ समय से देखने में आया है कि लोक संस्कृति की कुछ परंपराएं अचानक लोक से गायब हो गई हैं। बिलासपुर जिला से संबंधित प्रख्यात पूजा थाली नृत्यांगना, लोक गीत लेखिका व गायिका स्वर्गीय श्रीमती गंभरी देवी की नृत्य कला व संगीत कला उनके साथ ही चली गई। इसी तरह आधुनिकता के रंग में कहलूर का पारंपरिक नृत्य ही बदल गया है। यही हाल धुप्पू, चंदरौली चरकटी का है। चैत्र मास में शिव महिमा गाने वाले, हस्सी समुदाय के लोग भी गाते नहीं दिखते। फक़ीर रोडे मलंग की कार फेरने वाले भी लुप्त हो गए हैं। धान के खेतों के ज्वार व घास खड़ की खड़ोडियां समाप्त होने से और उसमें गाए जाने वाले इनके गीत भी गुम हो गए हैं। यही हाल कुछ पारंपरिक कलाओं का है, जो कुछ जातियों की पुश्तैनी कलाएं हुआ करती थीं। इनका आकार और प्रसार भी दिन-प्रतिदिन सीमित होता जा रहा है। चाहे वो कुम्हार, चर्म, लकड़ी, रेशा, कपड़ा और धातु आदि के शिल्पकार या कलाकार हों। आज इनका स्थान प्लास्टिक, पॉलीथिन, अलुमिनियम ने लेकर जहां वातावरण में अथाह प्रदूषण बढ़ाया है, वहीं सैंकड़ों रोगों को भी जन्म देकर मानव जीवन तथा जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों के जीवन को समाप्त व संकटमय बना दिया है।
आज समय की मांग है कि ऐसे कदम उठाए जाएं व प्रोत्साहन दिए जाएं कि लोगों को जागरूक करके, उनके द्वारा निर्मित वस्तुओं का उपयोग बढ़े। साथ ही इनके व्यवसाय व कला को राजकीय सम्मान की दृष्टि से प्रतिष्ठित किया जाए, जिससे यह लोक कला व संस्कृति जीवंत भी रहे और रोजगार तथा समृद्धि का कारक भी बने। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपनी लोक संस्कृति के मूल तत्त्वों से निरंतर जुड़े रहें ताकि भौतिकतावाद की दौड़ में मानवतावाद भाव-शून्य न बने।
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