श्री गोरख महापुराण

By: Apr 1st, 2021 12:12 am

गतांक से आगे….
हर पापी को उसके कर्मों का दंड अवश्य मिलता है। इसी चिंता में मैं रजनी के यहां जाया करता था। क्योंकि मैं रजनी से प्यार करता हूं और यह भी मुझसे प्यार करती है। इसलिए मैंने वह अमर फल खुद न खाकर इसे खाने को दे दिया, किंतु न जाने क्या सोचकर यह फल को आपके पास ले आई। आपके राज्य में मुझे छोड़कर सब सुखी हैं। सईस की बात सुनकर भर्थरी ने क्रोध में भरकर कोतवाल को आज्ञा दी कि पटरानी को राजसभा में हाजिर करो। राजा का क्रोध देखकर सब दरबारी घबरा गए और सोचने लगे कि हे प्रभु आज हमारे राजा क्रोध में हैं। न जाने क्या गजब होने वाला है।

भर्थरी की आज्ञा सुनकर कोतवाल ने शीश झुकाया और पटरानी के महल में जा पहुंचा। पटरानी के सामने पहुंच कर नजर नीची कर हाथ जोड़ कर बोला, महारानी जी! आपको महाराज ने सभा में बुलवाने का हुक्म दिया है और राजा की आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है। तब पिंगला रानी बोली, महाराज ने मुझे सभा में बुलवाया है। यह मेरा अपमान है। जाओ! जाकर कह दो कि महारानी ने सभा में आने से इंकार कर दिया। कोतवाल बोला, महारानी जी! यदि मैंने राजा की आज्ञा का पालन नहीं किया, तो मेरा पूरा परिवार कोल्हू में पिलवा दिया जाएगा। इसलिए राजी-खुशी चलने में ही हम दोनों की भलाई है।

कोतवाल की बात सनुकर रानी राजसभा में चलने को तैयार हो गई और गुस्से में भरी वह राजसभा में जा पहुंची। भर्थरी के सामने पहुंच कर हाथ जोड़कर प्रणाम करके बोली, महाराज! आपने मुझे किस अपराध के लिए राजसभा में बुलवाया है? आपने तो उस दुशासन को मात दे दी, जिसने सती द्रोपदी को राजसभा में बुलवाया था और देवकी नंदन ने प्रकट होकर उसकी लाज बचाई थी। भर्थरी बोले रानी! सती द्रोपदी बनने की कोशिश मत करो। तुम जैसी विश्वास घातनी को सती द्रोपदी का नाम लेते लज्जा नहीं आई। इस अमर फल को पहचानती हो। जब तुमने इसे खा लिया था तो यह मेरे पास कैसे आ गया? रानी पिंगला बोली, क्या संसार में एक ही फल है। दूसरा फल पैदा नहीं हो सकता? आपका दिया फल तो मैंने तभी खा लिया था। इस फल का मुझे पता नहीं यह कहां से आया है? रानी की बात सुनकर भर्थरी बोले, कोतवाल रानी का शीश उतार लो। मैं भी तो देखूं कि अमर फल खाकर रानी अमर रहती है या नहीं। झूठ सच का फैसला अभी हो जाएगा। राजा की आज्ञा सुनकर कोतवाल तलवार लेकर जैसे ही रानी की ओर बढ़ा तो रानी अपनी जान बचाने के लिए भयभीत होकर एकदम पीछे हट गई और अपना अपराध स्वीकार करते हुए बोली, महाराज! मुझसे भूल हो गई।

मेरा अपराध क्षमा करो। रानी के इतना कहते ही भर्थरी को ज्ञान हो गया कि इस संसार में कदम-कदम पर धोखा है और धोखे के सिवाय कुछ भी नहीं। यह सोचकर भर्थरी सारा राजपाट ज्यों का त्यों छोड़ और अमर फल खाकर वन की ओर चल दिए। सारी रानियां और नगरी की जनता रोती- बिलखती भर्थरी को मनाती रह गई। वह बोले, मेरा दाना पानी यहां से उठ गया है और दत्तात्रेय जी को दिए वचन को भी बारह वर्ष बीत गए हैं। क्या पता गुरुदेव की इच्छा ने ही इस प्रकार मेरी आंखें खोलने का उपाय किया हो।
ईश्वर की गति ईश्वर जाने और न जाने कोय।
जो कुछ रची विधाता, राई-रत्ती न कम होय।।
अपनी प्रजा को इस प्रकार समझा कर वह अपने गुरु दत्तात्रेय जी की शरण में बद्रिकाश्रम जा पहुंचे और अपना मस्तक गुरु के चरणों में टेक दिया। – क्रमश:


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