शिक्षा से संभव है सामाजिक परिवर्तन

जब तक देश में सामाजिक भेदभाव समाप्त नहीं हो जाता, इस वर्ग को आरक्षण की सुविधा मिलती रहेगी। देश में न्याय, सौहार्द, समानता कायम कर ही डा. भीमराव अंबेडकर को सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है…

मनुष्य के जीवन की हर चुनौती वह चाहे सामाजिक, सांस्कृतिक या फिर आर्थिक क्षेत्र हो, का सामने करने में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। सीखने का जज़्बा हो तो कोई भी बाधा पार की जा सकती है, वह चाहे जाति व्यवस्था की बेडि़यां हों, अस्पृश्यता हो या फिर गरीबी की बाधा। इसका सबसे अच्छा उदाहरण डा. बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर का जीवन है। भीमराव रामजी अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को हुआ था। वह सेना के अधिकारी सूबेदार रामजी मालोजी सकपाल तथा लक्ष्मण मुरबादकर की बेटी भीमाबाई सकपाल की 14वीं संतान थे। उनका जन्म एक महार (दलित) जाति में हुआ था, जिन्हें अछूत माना जाता था और जिनके साथ सामाजिक-आर्थिक भेदभाव किया जाता था। उन्हें काफी पहले यह अहसास हो गया कि सामाजिक और आर्थिक समानता के लक्ष्य को हासिल करने के लिए वह शिक्षा को हथियार बनाएंगे। आज उनका जीवन हर व्यक्ति के लिए जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है। पीएचडी सहित कुल 26 डिग्रियां और खिताब उनके नाम के साथ जुड़े हैं। डा. अंबेडकर का मानना था कि शिक्षा मनुष्य को उच्च स्तर तक पहुंचाती है और शिक्षा ही समाज में परिवर्तन और प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।

उन्होंने कहा था, ‘बुद्धि का विकास मानव के अस्तित्व का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए।’ डा. अंबेडकर को विदेश में अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की डिग्री हासिल करने वाले पहले भारतीय होने का गौरव प्राप्त हैं। यही नहीं, वह अर्थशास्त्र में पहले पीएचडी और दक्षिण एशिया में अर्थशास्त्र में पहले ‘डबल डॉक्टरेट’ धारक भी हैं। वह अपनी पीढ़ी के भारतीयों में उच्च शिक्षित थे। कोलंबिया विश्वविद्यालय में अपने तीन वर्षों के दौरान डा. अंबेडकर ने अर्थशास्त्र में 29 पाठ्यक्रम, इतिहास में ग्यारह, समाजशास्त्र में छह, दर्शनशास्त्र में पांच, नृविज्ञान में चार, राजनीति में तीन और प्राथमिक फ्रेंच और जर्मन में एक-एक पाठ्यक्रम का अध्ययन किया। यहां यह उल्लेखनीय है कि बड़ौदा के शासक सयाजी राव गायकवाड़ द्वारा दी गई फेलोशिप डा. अंबेडकर की शैक्षिक गतिविधियों में सहायक बनी। बड़ौदा नरेश सयाजी राव गायकवाड़ की फैलोशिप पाकर अंबेडकर ने 1912 में मुबई विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की थी। संस्कृत में पढ़ने पर मनाही होने से वह फारसी से पास हुए। उनका मानना था, ‘शिक्षा ही समाज में स्थापित होने का एकमात्र मापदंड है।’ आजीवन संघर्ष करते रहे लेकिन शिक्षा का त्याग नहीं किया, जो उनकी शक्ति थी। डा. अंबेडकर ने बचपन से ही भेदभावपूर्ण प्रथाओं को देखा और अनुभव किया। दो घटनाओं ने उन पर ऐसा प्रभाव छोड़ा कि समानता और न्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के लिए काम करने का उनका संकल्प और दृढ़ हुआ। पहली घटना उनके और उनके ममेरे भाई के साथ हुई।

स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद वे दोनों घर जा रहे थे। हालांकि, पत्र लिखकर उन्होंने अपने मामा को इसकी सूचना दे दी थी। लेकिन, किसी कारणवश वह पत्र उनके मामा को नहीं मिला। तपती धूप में वे रेलवे स्टेशन पर उतरे और उन्हें ले जाने कोई नहीं आया। स्टेशन से बाहर निकलकर वह एक छकड़े पर जाने को मजबूर हुए। कुछ दूर जाने पर छकड़ा चलाने वाले को मालूम हुआ कि वे महार जाति से संबंधित हैं। उन्हें छकड़े से नीचे उतार दिया गया तथा कहा कि वह उन्हें जातिगत वजह से नहीं ले जा सकता। हालांकि डा. अंबेडकर ने कहा कि वह सवारी के दोगुने पैसे देंगे। लेकिन वह नहीं माना। उन्हें गोरे गांव तक जाना था। रास्ते में भी उन्हें कोई पानी पिलाने को तैयार नहीं हुआ। इस घटना ने अंबेडकर को मानसिक तौर पर काफी विचलित कर दिया। ऐसी ही एक दूसरी घटना ने भी अंबेडकर को इस सामाजिक बुराई के खिलाफ गहराई से सोचने पर मजबूर कर दिया। वह सड़क किनारे लगे नल से पानी पीने गए तो उन्हें महार जाति का कहकर भगा दिया गया और पानी नहीं पीने दिया गया। यहां तक कि उन्हें मारा-पीटा गया। वह समझ गए कि उन्हें अब ऐसे लोगों का उद्धार करना है जो इस सामाजिक बुराई को झेल रहे हैं। उन्हें जीने का हक दिलाना है। उच्च जाति के हिंदुओं की प्रतिक्रिया ने डा. अंबेडकर को धार्मिक रूपांतरण पर विचार करने पर मजबूर किया। उन्होंने कहा कि यह हिंदुओं को तय करना है कि वे निचली जाति के लोगों को अपनाना चाहते हैं या नहीं। उनके विचारों को जानने के बाद विभिन्न धर्मों के नेताओं जैसे कि ईसाई और मुसलमानों ने उनसे अपने धर्म में परिवर्तित होने के लिए संपर्क किया। एक समय में उन्होंने सिख धर्म में परिवर्तित होने का फैसला कर लिया, लेकिन हिंदू समाज को ‘शॉक ट्रीटमेंट’ देने के लिए उन्होंने बौद्ध धर्म को चुना। मुझे लगता है कि इसका एक कारण हिंदू धर्म के मूल्यों की बौद्ध धर्म से निकटता है। डा. अंबेडकर ने मानवाधिकार के लिए लड़ाई लड़ी और पीडि़तों व शोषित वर्ग का संरक्षण किया। उन्हें गहराई से समझें तो वे आत्म गौरव के लिए चैतन्य मूर्ति हैं। वह भारत के पहले श्रम मंत्री थे और पहले कानून मंत्री बने।

वह एक विद्वान होने के साथ-साथ अच्छे अर्थशास्त्री भी थे। 29 अगस्त 1947 को अंबेडकर को स्वतंत्र भारत के नए संविधान की रचना के लिए बनी संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। वह एक बुद्धिमान संविधान विशेषज्ञ थे, जिन्होंने लगभग 60 देशों के संविधानों का अध्ययन किया था और भारत के संदर्भ में अनुकूल विशेषताओं को ग्रहण किया। उन्हें ‘संविधान निर्माता’ के रूप में मान्यता प्राप्त है। सन 1990 में उन्हें मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। भारत सहित पूरी दुनिया में 14 अप्रैल को उनकी जयंती मनाई जाती है। अगले साल 2022 में हम आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, लेकिन आज भी डा. अंबेडकर द्वारा लड़ी गई सामाजिक बुराइयों को पूरी तरह मिटाया नहीं जा सका है। आज भी संकीर्ण मानसिकता के लोग समुदायों के बीच नफरत फैलाने और उनसे भेदभाव करते हैं। यह विडंबना है कि इस तरह की शिक्षा के बाद भी उन्हें कुछ लोगों ने अछूत माना। आज भी देश में कुछ लोग अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण समाप्त होने का झूठा प्रचार कर रहे हैं। लेकिन, जब तक देश में सामाजिक भेदभाव समाप्त नहीं हो जाता, इस वर्ग को आरक्षण की सुविधा मिलती रहेगी। देश में सामाजिक एवं आर्थिक न्याय, सौहार्द, समानता कायम कर ही बाबासाहेब डा. भीमराव अंबेडकर को सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सकती है।


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