साहित्य के सागर को निचोड़ते

By: Apr 18th, 2021 12:04 am

डा. हेमराज कौशिक

अपनी गागर में साहित्य के सागर को निचोड़ते डा. हेमराज कौशिक फिर ‘कथा समय की गतिशीलताÓ के साथ विमर्श के एक साथ कई संगम पैदा कर रहे हैं। पुस्तक में साहित्य के कई पात्र, प्रेरक व प्रतिबोधक अपनी-अपनी परिस्थितियों की जमीन, ऊर्जा, सरोकारों, विचारों, विचारधाराओं और सामाजिक विषमताओं को ओढ़े लेखन के दरिया में उतर रहे हैं। ‘कथा समय की गतिशीलताÓ में साहित्य के बहाने समाज व देश के भीतर के अंतद्र्वंद्व, रूढ़ता, विषमता और संकीर्णताओं में दखल देते साहित्यिक पन्नों की खनक, खूबसूरती और खिलाफत अपनी सघनता के साथ दर्ज है। किताब में लेखक हमें साहित्य को पढऩे की वजह और लेखक समाज को समझने की संवेदना पैदा करते हुए, अपनी टिप्पणियों के साथ अध्ययन-अनुसंधान की एक परिपाटी को खड़ा कर देते हैं।

कुल चौदह उपन्यासों की समीक्षा और विषय वृत्तांत के साथ पाठक कौतुक बढ़ाते डा. कौशिक अपने हिस्से की युग यात्रा पर निकले हैं, तो सामने मील-पत्थर साबित होते यशपाल, कृष्णा सोबती, फणीश्वर नाथ रेणु, रामस्वरूप अणखी के साथ-साथ महाराज कृष्ण काव, राजेंद्र राजन, खेमराज शर्मा और जयनारायण कश्यप भी शरीक हो जाते हैं। ये तमाम उपन्यास समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र, अर्थशास्त्र और इतिहास तक पढ़ा देते हैं। यशपाल के ‘झूठा सचÓ के बीच सामाजिक-राजनीतिक चेतना की गहराई और पृष्ठभूमि में भारत की बनती-बिगड़ती सरहदों का आज के संदर्भ में शोधन होता है तो समाचारपत्रों की प्रासंगिकता पर लेखक का सवाल फिर वाजिब हो जाता है, ‘समाचारपत्र शासन तंत्र से जुड़कर पक्षधर हो जाते हैं। पूंजीपतियों का आधिपत्य उन्हें पक्षतापूर्ण बनाता है। डा. हेमराज की अध्ययनशीलता में उनका कृष्णा सोबती के लेखन के प्रति अनुराग पांच उपन्यासों की उत्कृष्ट समीक्षा में झलकता है।\

‘मित्रो मरजानी के बहाने लेखक स्त्री विमर्श की आंतरिक और बाह्य तहों का स्पर्श करते हैं। स्त्री की भावुक लक्ष्मण रेखा के बाहर की दिलेरी को अगर सोबती की कलम ने जीया, तो पुरुष के नए यथार्थ को स्वीकार करके इसे विस्तार देने की नसीहत भी दी है। पुस्तक में ‘सूरजमुखी अंधेरे के, दिलो-दानिश, समय-सरगम, गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान तक सोबती के लेखन में डा. कौशिक पाठक के मन की खिड़कियां खोलकर यह बताने में सफल रहे, ‘देश विभाजन से पूर्व उपन्यासकार कृष्णा सोबती अपने जन्म स्थान गुजरात और लाहौर को यह कह कर विदा हुई थी- याद रखना हम यहां रह गए हैं। फणीश्वर नाथ रेणु के ‘दीर्घतपा, जुलूस, कितने चौराहे, पल्टू बाबू रोड आदि उपन्यासों में भी विस्थापन की टीस, सांस्कृतिक मूल्यों की संघर्षशीलता, कठोर जातिवादी व्यवस्था, रूढि़वादिता और क्षेत्रवाद के साथ-साथ भीड़ की परिस्थितियों में मनोविज्ञान जन्म लेता है। रामस्वरूप अणखी के ‘कोठे खड़क सिंह और ‘दुल्ले दी ढाव न केवल पंजाबी साहित्य की कोख से निकले भारतीय संस्करण हैं, बल्कि आज के संदर्भों में भी वहां किसानी में फटी अंगुलियों का दर्द समझा जा सकता है। किताब में महाराज कृष्ण काव के ‘आसमान नहीं गिरते, राजेंद्र राजन के ‘मौन से संवाद और खेमराज शर्मा के ‘दम का उल्लेख भी जिज्ञासा बढ़ा देता है। कहानियों में प्रेमचंद, यशपाल, चित्रा मुद्गल, सृंजय, देवेंद्र, पद्म गुप्त अमिताभ, साधुराम दर्शक से जयदेव विद्रोही की सृजनशीलता का जिक्र पुस्तक की प्रासंगिकता बढ़ा देता है। पुस्तक अपने तीसरे खंड में आते-आते अपना कैनवास और बड़ा कर देती है। इसीलिए लेखक उपन्यास की थरथराहट में उपस्थित हिमाचल के साहित्यकारों की जमीन को छूने का प्रयास करते हुए दिखाई देते हैं। यह यात्रा 1941 में यशपाल के कृतित्व की रूह तक समाई किताब के रूप में, जैसे अपने पंखों पर हिमाचल के सृजन इतिहास के साथ उड़ान भर रही हो।

यहां लेखन एक तरह का साहित्यिक मंचन हो जाता है और एक-एक पर्दा खोलकर डा. कौशिक अपने पाठक को उस धरातल पर खड़ा कर देते हैं, जहां उपन्यास हिमाचल की पगडंडियों पर चलते हुए और कभी पहाड़ों से गलबहियां करते हुए समीप आ जाते हैं। किताब में यादों के झरोखे कभी शिमला के बिशप कॉटन स्कूल में मोहन राकेश, तो कभी निर्मल वर्मा को खोज लेते हैं। यहां ‘अंधेरे बंद कमरे भी हैं, तो ‘लाल टीन की छत भी। कहीं किशोरी लाल वैद्य, विजेंद्र दुसाज, हरदयाल नास्तिक, रामकृष्ण कौशल, संतराम शर्मा ‘उसी छत के नीचे हैं तो कहीं मनसा राम अरुण, मस्तराम कपूर, कृष्ण कुमार नूतन, सुदर्शन वशिष्ठ और सुशील कुमार फुल्ल भी हैं। लेखकों की हिमाचली पहचान में डा. कौशिक अपने आसपास के सृजन को सहलाते हुए अंतिम पंक्ति तक पहुंचने की तासीर में पूरी पुस्तक अर्पित कर देते हैं। पुस्तक अपने विवेचन की धार पैदा करते हुए ईमानदारी से लेखन और लेखक को पढऩे के साथ-साथ समीक्षा करना भी सिखाती है। पुस्तक प्राप्ति : पुष्पांजलि प्रकाशन, नई दिल्ली।

-निर्मल असो


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